साक्षित्व की तीसरी विधि–
’’प्रिय, न सुख में और न दुःख में, बल्कि दोनों के मध्य में अवधान को स्थित करो।‘’
प्रत्येक चीज ध्रुवीय है। अपने विपरीत के साथ है। और मन एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव पर डोलता रहता है। कभी मध्य में नहीं ठहरता।
क्या तुमने कोई ऐसा क्षण जाना है जब तुम न सुखी हो और न दुखी? क्या तुमने कोई ऐसा क्षण जाना है जब तुम न स्वास्थ थे न बीमार? क्या तुमने कोई ऐसा क्षण जाना है जब तुम न यह थे न वह। जब तुम ठीक माध्य में थे, ठीक बीच में थे?
मन अविलंब एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है। अगर तुम सुखी हो तो देर-अबेर तुम दुःख की तरफ गति कर जाओगे। और शीध्र गति कर जाओगे। सुख विदा हो जाएगा। और तुम दुःख में हो जाओगे। अगर तुम्हें अभी अच्छा लग रहा है तो देर अबेर तुम्हें बुरा लगने लगेगा। और तुम बीच में कहीं नहीं रुकते, इस छोर से सीधे उस छोर पर चले जाते हो। घड़ी के पैंडुलम की तरह तुम बांए से दाएं और बाएं डोलते रहते हो। और पैंडुलम डोलता ही रहता है।
एक गुह्म नियम है। जब पैंडुलम बायी और जाता है तो लगता तो है कि बायी और जा रहा है। लेकिन सच में तब वह दायी और जाने के लिए शक्ति जुटा रहा है। और वैसे ही जब वह दायी और जा रहा है तो बायी और जाने के लिए शक्ति जुटा रहा है। तो जैसा दिखाई पड़ता है वैसा ही नहीं है। जब तुम सुखी हो रहे हो तो तुम दुःखी होने के लिए शक्ति जुटा रहे हो। और जब तुम्हें हंसते देखता हूं तो जानता हूं कि रोने का क्षण दूर नहीं है।
भारत के गांवों में माताएं यह जानती है। जब कोई बच्चा बहुत हंसने लगता है तो वे कहती है कि उसका हंसना बंद करो, अन्यथा वह रोएगा। वह होने ही वाला है। अगर कोई बच्चा बेहद खुश हो तो उसका अगला कदम दुःख में पड़ने ही वाला है। इसलिए माताएं उसे रोकती है, अन्यथा वह दुःखी होगा।
लेकिन यही नियम विपरीत ढंग से भी लागू होता है। और लोग यह नहीं जानते है। कोई बच्चा रोता हे तो तुम उसे रोने से रोकते हो तो तुम उसका रोना ही नहीं रोकते हो, तुम उसका लगता कदम भी रोक रहे हो। अब वह सुखी भी नहीं हो पाएगा। बच्चा जब रोता है तो उसे रोने दो। बच्चा जब रोता है तो उसे मदद दो कि और रोंए। जब तक उसका रोना समाप्त होगा। वह शक्ति जुटा लेगा। वह सुखी हो सकेगा।
अब मनोवैज्ञानिक कहते है कि जब बच्चा रोता-चीखता हो तो उसे रोको मत, उसे मनाओ मत, उसे बहलाओ मत। उसके ध्यान को रोने से हटाकर कहीं अन्यत्र ले जाने की कोशिश मत करो, उसे रोना बंद करने के लिए रिश्वत मत दो। कुछ मत करो; बस उसके पास मौन बैठे रहो और उसे रोने दो। चिल्लाने दो। तब वह आसानी से सुख की और गति कर पाएगा। अन्यथा न वह रो सकेगा। और न सुखी हो सकेगा।
हमारी यह स्थिति है। हम कुछ नहीं कर पाते है। हम हंसते है तो आधे दिल से और रोते है तो आधे दिल से। लेकिन यही मन का प्राकृतिक नियम है; वह एक छोर से दूसरे छोर पर गति करता रहता है। यह विधि इस प्राकृतिक नियम को बदलने के लिए है।
‘’प्रिये, न सुख में और न दुःख में, बल्कि दोनों के मध्य में अवधान को स्थिर करो।‘’
किन्हीं भी ध्रुवों को, विपरीतताओं को चुनो और उनके मध्य में स्थित होने की चेष्टा करो। इस मध्य में होने के लिए तुम क्या करोगे। मध्य में कैसे होओगे?
एक बात कि जब दुख में होते हो तो क्या करते हो? जब दुःख आता है तो तुम उससे बचना चाहते हो। भागना चाहते हो। तुम दुःख नहीं चाहते। तुम उससे भागना चाहते हो। तुम्हारी चेष्टा रहती हे कि तुम उससे विपरीत को पा लो। सुख को पा लो। आनंद को पा लो। और जब सुख आता है तो तुम क्या करते हो? तुम चेष्टा करते हो कि सुख बना रहे। ताकि दुःख न आ जाए; तुम उससे चिपके रहना चाहते हो। तुम सुख को पकड़कर रखना चाहते हो और दुःख से बचना चाहते हो। यही स्वाभाविक दृष्टिकोण है, ढंग है।
अगर तुम इस प्राकृतिक नियम को बदलना चाहते हो, उसके पास जाना चाहते हो, तो जब दुःख आए तो उससे भागने की चेष्टा मत करो; उसके साथ रहो। उसको भोगो। ऐसा करके तुम उसकी पूरी प्राकृतिक व्यवस्था को अस्तव्यस्त कर दोगे। तुम्हें सिरदर्द है; उसके साथ रहो। आंखें बंद कर लो और सरदर्द पर ध्यान करो, उसके साथ रहो। कुछ भी मत करो; बस साक्षी रहो। उससे भागने की चेष्टा मत करो। और जब सुख आए और तुम किसी क्षण विशेष रूप से आनंदित अनुभव करो तो उसे पकड़कर उससे चिपक मत जाओ। आंखें बंद कर लो और उसके साथ साक्षी हो जाओ।
सुख को पकड़ना और दुःख से भागना भूल भरे चित के स्वाभाविक गुण है। और अगर तुम साक्षी रह सको तो देर अबेर तुम मध्य को उपलब्ध हो जाओगे। प्राकृतिक नियम तो यही है कि एक से दूसरी अति पर आते-जाते रहो। अगर तुम साक्षी रह सके तो तुम मध्य में रह सकोगे।
बुद्ध ने इसी विधि के कारण अपने पूरे दर्शन को मज्झम निकाय—मध्य मार्ग कहा है। वे कहते है कि सदा मध्य में रहो; चाहे जो भी विपरीतताएं हों, तुम सदा मध्य में रहो। और साक्षी होने से मध्य में हुआ जा सकता है। जि क्षण तुम्हारा साक्षी खो जाता है तुम या तो आसक्त हो जाते हो या विरक्त। अगर तुम विरक्त हुए तो दूसरी अति पर चले जाओगे और आसक्त हुए तो इस अति पर बने रहने की चेष्टा करोगे। लेकिन तब तुम कभी मध्य में नहीं होगे। सिर्फ साक्षी बनो; न आकर्षित होओ और न विकर्षित ही।
सिरदर्द है तो उसे स्वीकार करो। वह तथ्य है। जैसे वृक्ष है, मकान है, रात है, वैसे ही सिरदर्द है। आँख बंद करो और उसे स्वीकार करो। उससे बचने की चेष्टा मत करो। वैसे ही तुम सुखी हो तो सुख के तथ्य को स्वीकार करो। उससे चिपके रहने की चेष्टा मत करो। और दुःखी होने का प्रयत्न भी मत करो; कोई भी प्रयेत्न मत करो। सुख आता है तो आने दो; दुःख आता है तो आने दो। तुम शिखर पर खड़े दृष्टा बने रहो। जो सिर्फ चीजों को देखता है। सुबह आती है। शाम आती है। फिर सूरज उगता है। और डूबता है। तारे है और अँधेरा है, फिर सूर्योदय—और तुम शिखर पर खड़े दृष्टा हो।
तुम कुछ कर नहीं सकते; तुम सिर्फ देखते रहते हो। सुबह आती है, इस तथ्य को तुम भलीभाँति देख लेते हो और तुम जानते हो कि अब सांझ जाएगी। क्योंकि सांझ सुबह के पीछे-पीछे आती है। वैसे ही जब सांझ आती है। तो तुम उसे भी भलीभाँति देख लेते हो और तुम जानते हो कि अगर सुबह आएगी, क्योंकि सुबह सांझ के पीछे-पीछे आती है। जब दुःख है तो तुम उसके भी साक्षी हो। तुम जानते हो कि दुःख आया है, देर अबेर वह चला जाएगा। और उसका विपरीत ध्रुव आ जाएगा और जब सुख आता है। तो तुम जानते हो कि वह सदा नहीं रहेगा। दुःख कहीं पास ही छिपा होगा। आता ही होगा। तुम खुद द्रष्टा ही बने रहते हो।
अगर तुम आकर्षण और विकर्षण के बिना, लगाव और दुराव के बिना देखते रहे तो तुम मध्य में आ जाओगे। और जब पैंडुलम बीच में ठहर जाएगा। तो तुम पहली दफा देख सकोगे कि संसार क्या है। जब तक तुम दौड़ रहे हो, तुम नहीं जान सकते कि संसार क्या है। तुम्हारी दौड़ सब कुछ को भ्रांत कर देती है। धूमिल कर देती है। और जब दौड़ बंद होगी तो तुम संसार को देख सकोगे। तब तुम्हें पहली बार सत्य के दर्शन होंगे। अकंप मन ही जानता है कि सत्य क्या है। कंपित मन सत्य को नहीं जान सकता।
तुम्हारा मन ठीक कैमरे की भांति है। अगर तुम चलते हुए फोटो लेते हो तो जो भी चित्र बनेगा वह धुंधला-धुंधला ही होगा। असपष्ट होगा। विकृत होगा। कैमरे को हिलना नहीं चाहिए। कैमरा हिलेगा तो चित्र बिगड़ेगा ही।
तुम्हारी चेतना एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव पर गति करती रहती है। और इस भांति तुम जो सत्य जानते हो वह भ्रांति है, दुख स्वप्न है। तुम नहीं जानते हो कि क्या-क्या है। सब भ्रम है, सब धुआं-धुंआ है। सत्य से तुम वंचित रह जाते हो। सत्य को तुम तब जानते हो जब तुम मध्य में ठहर जाता है। और तुम्हारी चेतना वर्तमान के क्षण में होती है। केंद्रित होती है। अचल और अकंप चित ही सत्य को जानता है।
‘’प्रिये, न सुख में और न दुःख में, बल्कि दोनों के मध्य में अवधान को स्थिर करो।‘’
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन
प्रवचन-37