केंद्रित होने की आठवीं विधि:
‘’किसी चलते वाहन में लयवद्ध झुलने के द्वारा, अनुभव को प्राप्त हो। या किसी अचल वाहन में अपने को मंद से मंदतर होते अदृश्य वर्तृलों में झुलने देने से भी।‘’
दूसरे ढंग से यह वही है। ‘’किसी चलते वाहन में……….।‘’
तुम रेलगाड़ी या बैलगाड़ी से यात्रा कर रहे हो। जब यह विधि विकसित हुई थी तब बैलगाड़ी ही थी। तो तुम एक हिंदुस्तानी सड़क पर—आज भी सडकें वैसी ही है—बैलगाड़ी में यात्रा कर रहे हो। लेकिन चलते हुए अगर तुम्हारा सारा शरीर हिल रहा है तो बात व्यर्थ हो गई।
‘’किसी चलते वाहन में लयवद्ध झुलने के कारण……..।‘’
लयवद्ध ढंग से झूलों। इस बात को समझो, बहुत बारीक बात है। जब भी तुम किसी बैलगाड़ी या किसी वाहन में चलते हो तो तुम प्रतिरोध करते होते हो। बैलगाड़ी बाई तरफ झुकती है, लेकिन तुम उसका प्रतिरोध करते हो, तुम संतुलन रखने के लिए दाई तरफ झुक जाते हो। अन्यथा तुम गिर जाओगे। इसलिए तुम निरंतर प्रतिरोध कर रहे हो। बैल गाड़ी में बैठे-बैठे तुम बैलगाड़ी के हिलने-डुलते से लड़ रहे हो। वह इधर जाती है तो तुम उधर जाते हो। यही वजह है कि रेलगाड़ी में बैठे-बैठे तुम थक जाते हो। तुम कुछ करते नहीं हो तो थक क्यों जाते हो। अन्यथा ही तुम बहुत कुछ कर रहे हो। तुम निरंतर रेलगाड़ी से लड़ रहे हो, प्रतिरोध कर रहे हो।
प्रतिरोध मत करो, यह पहली बात है। अगर तुम इस विधि को प्रयोग में लाना चाहते हो तो प्रतिरोध छोड़ दो। बल्कि गाड़ी की गति के साथ-साथ गति करो, उसकी गति के साथ-साथ झूलों। बैलगाड़ी का अंग बन जाओ, प्रतिरोध मत करो। रास्ते पर बैलगाड़ी जो भी करे, तुम उसके अंग बनकर रहो। इसी कारण यात्रा में बच्चे कभी नहीं थकते है।
पूनम हाल ही में लंदन से अपने दो बच्चों के साथ आई है। चलते समय वह भयभीत थी कि इतनी लंबी यात्रा के कारण बच्चें थ जाएंगे। बीमार हो जाएंगे। वह थक गई और वे हंसते हुए यहां पहुँचे। वह जब यहां पहुंची तो थक कर चूर-चूर हो गई थी। जब वह मेरे कमरे में प्रविष्ट हुई, वह थकावट से टूट रही थी। और दोनों बच्चें वहीं तुरंत खेलने लग गये। लंदन से बंबई अठारह घंटे की यात्रा है। लेकिन वे जरा भी थके नहीं। क्यों? क्योंकि अभी वे प्रतिरोध करना नहीं जानते है।
एक पियक्कड़ सारी रात बैलगाड़ी में यात्रा करेगा। और सुबह वह ताजा का ताजा रहेगा। लेकिन तुम नहीं। कारण यह है कि पियक्कड़ भी प्रतिरोध नहीं करता है। वह गाड़ी के साथ गति करता है। वह लड़ता नहीं है। वह गाड़ी के साथ झूलता है, और एक हो जाता है।
‘’किसी चलते वाहन में लयवद्ध झुलने के द्वारा……..।‘’
तो एक काम करो, प्रतिरोध मत करो। और दूसरी बात कि एक लय पैदा करो, अपने हिलने डुलनें में लय पैदा करे, उसे लय में बांधों। उसमे एक छंद पैदा करो। सड़क को भूल जाओ। सड़क या सरकार को गालियां मत दो, उन्हें भी भूल जाओ। वैसे ही बैल और बैलगाड़ी को या गाड़ीवान को गाली मत दो। उन्हें भी भूल जाओ। आंखें बंद कर लो। प्रतिरोध मत करो। लयवद्ध ढंग से गति करो और अपनी गति में संगीत पैदा करो। उसे एक नृत्य बना लो।
‘’किसी चलते वाहन में लयवद्ध झुलने के द्वारा……अनुभव को प्राप्त हो।‘’
सूत्र कहता है कि तुम्हें अनुभव प्राप्त हो जाएगा।
‘’या किसी अचल वाहन में….।‘’
यह मत पूछो कि बैलगाड़ी कहां मिलेगी। अपने को धोखा मत दो।
क्योंकि यह सूत्र कहता है: ‘’या किसी अचल वाहन में अपने को मंद से मंदतर होते अदृश्य वर्तुलों में झुलने देने से भी।‘’
यही बैठे-बैठे हुए वर्तुल में झूलों, घूमों। वर्तुल को छोटे से छोटा किए जाओ—इतना छोटा कि तुम्हारा शरीर दृश्य से झूलता हुआ न रहे। लेकिन भीतर एक सूक्ष्म गति होती रहे। आंखे बंद कर लो। और बड़े वर्तुल से शुरू करे। आंखे बंद कर लो, अन्यथा जब शरीर रूक जाएगा तब तुम भी रूक जाओगे। आंखे बंद करके बड़े वर्तुल को छोटा, और छोटा किए चलो।
दृश्य रूप से तुम रूक जाओगे। किसी को नहीं मालूम होगा कि तुम अब भी हिल रहे हो। लेकिन भीतर तुम एक सूक्ष्म गति अनुभव करते रहोगे। अब शरीर नहीं चल रहा है। केवल मन चल रहा है। उसे भी मंद से मंदतर किए चलो। और अनुभव करो; वही केंद्रित हो जाओगे। किसी वाहन में, किसी चलते वाहन में एक अप्रतिरोध और लयबद्ध गति तुम्हें केंद्रित हो जाओगे।
गुरूजिएफ ने इन विधियों के लिए अनेक नृत्य निर्मित किए थे। वह इस विधि पर काम करता था। वह अपने आश्रम में जितने नृत्यों का प्रयोग करता था वह सच में वर्तुल में झूमने से संबंधित थे। सभी नृत्य वर्तुल में चक्कर लगाने से संबंधित है। बाहर चक्कर लगाकर लगाना होता, भीतर होश पूर्ण रहना होता। फिर वे धीरे-धीरे वर्तुल को छोटा और छोटा किए जाते है। तब एक समय आता है कि शरीर ठहर जाता है। लेकिन भीतर मन गति करता रहता है।
अगर तुम लगातार बीस घंटे तक रेलगाड़ी में सफर करके घर लोटों और घर में आंखे बंद करके देखो तो तुम्हें लगेगा। कि तुम अब भी गाड़ी में यात्रा कर रहे हो। शरीर तो ठहर गया है, लेकिन मन का लगता है कि यह गाड़ी में ही है। वैसे ही इस विधि का प्रयोग करो। गुरजिएफ ने अद्भुत नृत्य पैदा किए और सुंदर नृत्य। इस सदी में उसने सचमुच चमत्कार किया है। वे चमत्कार सत्य साईं बाबा के चमत्कार नहीं थे। साई बाबा के चमत्कार तो कोई गली-गली फिरने वाला मदारी भी कर सकता है। लेकिन गुरूजिएफ ने असली चमत्कार पैदा किए। ध्यान पूर्ण नृत्य के लिए उसने सौ नर्तकों की एक मंडली बनाई। और पहली बार उसने न्यूयार्क के एक समूह के सामने उनका प्रदर्शन किया।
सौन नर्तक मंच पर गोल-गोल नाच रहे थे। उन्हें देखकर अनेक दर्शकों के भी सिर घूमने लगे। ऐसे सफेद पोशाक में वे सौ नर्तक नृत्य करते थे। जब गुरूजिएफ हाथों से नृत्य का संकेत करता था तो वे नाचते थे और ज्यों ही वह रूकने का इशारा करता था, वे पत्थर की तरह ठहर जाते थे। और मंच पर सन्नाटा हो जाता था। वह रूकना दर्शकों के लिए था। नर्तकों के लिए नही; क्योंकि शरीर तो तुरंत रूक सकता है। लेकिन मन तब नृत्य को भीतर ले जाता है। और वहां नृत्य चलता रहता है।
उसे देखना भी एक सुंदर अनुभव था कि सौ लोग अचानक मृत मूर्तियों जैसे हो जाते है। उसके दर्शकों में एक आघात पैदा होता था, क्योंकि सौ नृत्य, सुंदर और लयवद्ध नृत्य अचानक ठहरकर जाम हो जाते थे। तुम देख रहे हो, कि वे घूम रहे है, गोल-गोल नाच रह है और अचानक सब नर्तक ठहर गए। तब तुम्हारा विचार भी ठहर जाता है। न्यूयार्क में अनेक को लगा कि यह तो एक बेबूझ, रहस्यपूर्ण नृत्य है। क्योंकि उनके विचार भी उसके साथ तुरंत ठहर जाते थे। लेकिन नर्तकों के लिए नृत्य भीतर चलता रहता था। भीतर नृत्य के वर्तुल छोटे से छोटे होते जाते थे और अंत में वह केंद्रित हो जाते थे।
एक दिन ऐसा हुआ कि सारे नर्तक नाचते हुए मंच के किनारे पर पहुंच गए। लोग सोचते थे कि अब गुरूजिएफ उन्हें रो देंगे। अन्यथा वे दर्शकों की भीड़ पर गिर पड़ेंगे। सौ नर्तक नाचते-नाचते मंच के किनारे पर पहुंच गए है। एक कदम और, और वे नीचे दर्शकों पर गिर पड़ेंगे। सारे दर्शक इस प्रतीक्षा में थे कि गुरूजिएफ रुको कहकर उन्हें वहीं रो देगा। लेकिन उसी क्षण गुरूजिएफ ने उनकी तरफ से मुख फैर लिया और पीठ कर के खड़ा हो कर अपना सिंगार चलाने लगा। और सौ नर्तकों की पूरी मंडली मंच से नीचे नंगे फर्श पर गिर पड़ी।
सभी दर्शक उठ खड़े हुए। उनकी चीख़ें निकल गई। गिरना इस धमाके के साथ हुआ था कि उन्हें लगा कि अनेक दर्शकों के हाथ पैर टूट गए होंगे। लेकिन एक भी व्यक्ति को चोट नहीं लगा थी। किसी को खरोंच तक भी नहीं आई थी।
उन्होंने गुरूजिएफ से पूछा कि क्या हुआ कि एक आदमी भी घायल नहीं हुआ। जब कि नर्तकों का नीचे गिरना इतना बड़ा था। यह तो एक असंभव घटना मालूम होती है।
कारण इतना ही था कि उस क्षण नर्तक अपने शरीरों में नहीं थे। वे अपने भीतर के वर्तुलों को मंदतर किए जा रहे थे। और जब गुरजिएफ ने देखा कि वे पूरी तरह अपने शरीरों को भूल गये है तब उसने उन्हें नीचे गिरने दिया।
तुम जब शरीर को बिलकुल भूल जाते हो तो कोई प्रतिरोध नहीं रह जाता है। और हड्डी तो टूटती है प्रतिरोध के कारण। जब तुम गिरने लगते हो तो तुम प्रतिरोध करते हो, अपने को गिरने से रोकते हो। गिरते समय तुम गुरुत्वाकर्षण के विरूद्ध संघर्ष करते हो। और वही प्रतिरोध, वही संघर्ष समस्या बन जाता है। गुरुत्वाकर्षण नहीं, प्रतिरोध से हड्डी टूटती है। अगर तुम गुरूत्वाकर्षण के साथ सहयोग करो; उसके साथ-साथ गिरो, तो चोट लगने की कोई संभावना नहीं है।
सूत्र कहता है: ‘’किसी चलते वाहन में लयवद्ध झुलने के द्वारा, अनुभव को प्राप्त हो। या किसी अचल वाहन में अपने को मंद से मंदतर होते अदृश्य वर्तुलों में झुलने देने से भी।‘’
यह तुम ऐसे भी कर सकते हो, वाहन की जरूरत नहीं है। जैसे बच्चें गोल-गोल घूमते है वैसे गोल-गोल घूमों। और जब तुम्हारा सिर घूमने लगे और तुम्हें लगे कि अब गिर जाऊँगा तो भी नाचना बंद मत करो। नाचते रहो। अगर गिर भी जाओ तो फिक्र मत करो। आँख बंद कर लो और नाचते रहो। तुम्हारा सिर चकर खानें लगेगा। और तुम गिर जाओगे। तुम्हारा शरीर गिर जाए तो भीतर देखो; भीतर नाचना जारी रहेगा। उसे महसूस करो। वह निकट से निकटतर होता जाएगा। और अचानक तुम केंद्रित हो जाओगे।
बच्चे इसका खूब मजा लेते है। क्योंकि इससे उन्हें बहुत ऊर्जा मिलती है। लेकिन उनके मां-बाप उन्हें नाचने से रोकते है। जो कि अच्छा नहीं है। उन्हें नाचने देना चाहिए, उन्हें इसके लिए उत्साहित करना चाहिए। और अगर तुम उन्हें अपने भीतर के नाच से परिचित करा सको तो तुम उन्हें उसके द्वारा ध्यान सिखा दोगे।
वे इसमे रस लेते है। क्योंकि शरीर-शून्यता का भाव उनमें है। जब वे गोल-गोल नाचते है तो बच्चों को अचानक पता चलता है कि उनका शरीर तो नाचता है, लेकिन वे नहीं नाचते। अपने भीतर वे एक तरह से केंद्रित हो गए महसूस करते है। क्योंकि उनके शरीर और आत्मा में अभी दूरी नहीं बनी हे। दोनों के बीच अभी अंतराल है। हम सयाने लोगों को यह अनुभव इतनी आसानी से नहीं हो सकता।
जब तुम मां के गर्भ में प्रवेश करते हो तो तुरंत ही शरीर में नहीं प्रविष्ट हो जाते हो। शरीर में प्रविष्ट होने में समय लगता है। और जब बच्चा जनम लेता है तब भी वह शरीर से पूरी तरह नहीं जुड़ा होता है, उसकी आत्मा पूरी तरह स्थित नहीं होती है। दोनों के बीच थोड़ा अंतराल बना रहता है। यही कारण है कि कई चीजें बच्चा नहीं कर सकता। उसका शरीर तो उन्हें करने को तैयार है, लेकिन वह नहीं कर पाता।
अगर तुमने खयाल किया हो तो देखा होगा नवजात शिशु दोनों आंखों से देखने में समर्थ नहीं होते है। वे सदा एक आँख से देखते है। तुमने गौर किया होगा कि जब बच्चे कुछ देखते है, निरीक्षण करते है, तो दोनों आंखों से नहीं करते। वे एक आँख से ही देखते है, उनकी वह आँख बड़ी हो जाती है। देखते क्षण उनकी एक आँख की पुतली फैल कर बड़ी हो जाती है। और दूसरी पुतली छोटी हो जाती है। बच्चे अभी स्थिर नहीं हुए है। उनकी चेतना अभी स्थिर नहीं है। उनकी चेतना अभी ढीली–ढीली है। धीरे-धीरे वह स्थिर होगी और तब वे दोनों आँख से देखने लगेंगे।
बच्चें अभी अपने और दूसरे के शरीर में फर्क करना नहीं जानते है। यह कठिन है। वे अभी अपने शरीर से पूरी तरह नहीं जुडे है। यह जोड़ धीरे-धीरे आएगा।
ध्यान फिर से अंतराल पैदा करने की चेष्टा है। तुम अपने शरीर से जुड़ गए हो, शरीर के साथ ठोस हो चुके हो। तभी तो तुम समझते हो कि मैं शरीर हूं। अगर फिर से एक अंतराल बनाया जा सके तो फिर समझने लगोगे कि मैं शरीर नहीं हूं। शरीर से परे कुछ हूं। इसलिए झूलना और गोल-गोल घूमना सहयोगी होते है। वे अंतराल पैदा करते है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र
(तंत्र-सूत्र—भाग-1)
प्रवचन-13