अचानक रूकने की कुछ विधियां:
पहली विधि:
‘’जैसे ही कुछ करने की वृति हो , रूक जाओ।‘’
ये सारी विधियां मध्य में रूकने से संबंधित है। जार्ज गुरजिएफ ने पश्चिम में इन विधियों को प्रचलित किया था, लेकिन उसे विज्ञान भैरव तंत्र का पता नहीं था। उसने ये विधियां तिब्बत में बौद्ध लामाओं से सीखी थी। पश्चिम में उसने इन विधियों पर काम किया और अनेक साधक इन विधियों के द्वारा केंद्र को उपलब्ध हो गए। वह उन्हें स्टाप एक्सरसाइज, रूक जाने का प्रयोग कहता था। लेकिन इन प्रयोगों का स्त्रोत विज्ञान भैरव तंत्र है।
बौद्धों ने भी विज्ञान भैरव तंत्र से ही सीखा था। सूफियों में भी ऐसे प्रयोग चलते है। सबने विज्ञान भैरव से ही लिया है। दुनिया में ऐसी जो भी विधियां चलती है। उन सबका स्त्रोत-ग्रंथ यही है।
गुरूजिएफ बहुत सरल ढंग से इसका प्रयोग करता था। उदाहरण के लिए, वह अपने शिष्यों को नाचने के लिए कहता था। बीस लोगों का समूह नाच रहा है। नाच के बीच ही वह अचानक जोर से कहता, ‘’स्टॉप।‘’ और जब गुरूजिएफ रूकने को कहता तो उन्हें तुरंत और समग्ररतः: रूकना पड़ता था। जब और जहां रूकने की आज्ञा होती तभी और वहां ही रूकना अनिवार्य था। उसमें जरा भी हेर-फेर या समायोजन की गुंजाइश नहीं थी। अगर तुम्हारा एक पैर जमीन से ऊपर उठा था और एक पैर पर तुम खड़े थे तो तुम्हें उसी मुद्रा में जम जाना पड़ता।
यह बात अलग है कि तुम गिर जाओ, लेकिन इस गिरने में कोई सहयोग नहीं देना था। अगर तुम्हारी आंखें खुली थी तो उन्हें खुली रहने देना था। अब तुम उन्हें बंद नही कर सकते। यह बात दूसरी है कि वे अपने आप ही बंद हो जाएं। जहां तक तुम्हारा संबंध है तुम्हें सचेतन रूप से ज्यों का त्यों रूक जाना है। तुम्हें पत्थर की मूर्ति जैसा हो जाना है।
और इसके अद्भुत नतीजे आते थे। क्योंकि जब तुम सक्रिय होते हो, नाचते होते हो गतिमान होते हो। और अचानक बीच में रूक जाते हो, तो जो उससे एक अंतराल पैदा होता है। सभी क्रिया का अचानक बंद होना तुम्हें दो भागों में बांट देता है। तुम्हें तुम्हारे शरीर से अलग कर देता है। अभी तुम और तुम्हारा शरीर दोनों गतिमान थे। तुम अचानक रूक जाते हो। शरीर इस आकस्मिक ठहराव के लिए तैयार नहीं है। तुम्हें अचानक लगता है कि शरीर अभी भी कुछ करना चाहता है। लेकिन तुम रूक जाते हो। इससे एक अंतराल पैदा हो गया है। तुम्हें लगता है, तुम्हारा शरीर तुमसे दूर है, बहुत दूर है, जिसमे अभी क्रिया का संवेग भरा है। लेकिन क्योंकि तुम ठहर गए थे और तुम अपने शरीर के साथ, शरीर के संवेग के साथ सहयोग नहीं कर रहे हो, इसलिए तुम उससे पृथक हो जाते हो।
लेकिन तुम अपने को धोखा भी दे सकते हो। जरा सा सहयोग, और अंतराल घटित नहीं होगा। उदाहरण के लिए तुम कुछ असुविधा अनुभव कर रहे हो। तभी गुरु ने कहा कि रूक जाओ। तुम सुन भी लेते हो, लेकिन अपनी सुविधा बनाकर रुकते हो। इतने से ही सब बात बिगड़ गई, अब कुछ नहीं होगा। तब तुमने को धोखा दिया—गुरु को नहीं। तब तुम चूक गए। तब विधि का पूरा महत्व ही नष्ट हो गया।
जब अचानक रूकने की आवाज सुनाई पड़े, तत्क्षण तुम्हें रूक जाना है। अब कुछ भी नहीं करना है। हो सकता है कि जिस मुद्रा में तुम थे वह असुविधाजनक थी। तुम्हें डर था कि तुम गिर जाओगे, तुम्हारी हड्डी टूट जाएगी। लेकिन कुछ भी हो तुम्हें चिंता नहीं लेनी है। यदि तुमने चिंता ली तो अपने को ही धोखा दोगे।
यह जो अचानक मृतवत होना है यह अंतराल पैदा करता है। रूकना तो शरीर के तल पर होता है, लेकिन रूकने वाला केंद्र है। परिधि और केंद्र अलग-अलग है। एकाएक रूकने की घटना में तुम पहली बार अपने को अनुभव करोगे। पहली बार केंद्र को महसूस करोगे।
गुरूजिएफ ने इस विधि के जरिए अनेक लोगो की मदद की। इस विधि के कई आयाम है, यह विधि कई ढंग से इस्तेमाल होती है। लेकिन पहल इसकी संरचना को समझने की चेष्टा करो। संरचना सरल है। तुम कोई काम करते हो। जब तुम काम में होते हो तो तुम अपने को पूरी तरह भूल जाते हो। तब कृत्य तुम्हारे अवधान का केंद्र हो जाता है।
समझो की कोई व्यक्ति मर गया है और तुम उसके लिए चीख-चिल्ला रहे हो, आंसू बहा रहे हो। अब तुम अपने को पूरी तरह भूल गये हो। मरने वाला केंद्र हो गये हो। और उसके चारों और रोने की, आंसू की, शोक की क्रिया घट रही है। अगर मैं एकाएक कहूं कि रूक जाओ और तुम तरह रूक जाओ तो तुम अपने शरीर और कर्म के जगत से सर्वथा अलग हो जाओगे। जब तुम काम में होते हो तो तुम उसमे खो जाते हो। अचानक ठहरना तुम्हारे संतुलन को हिला देता है। वह तुम्हें कर्मों के बाहर कर देता है। और वही चीज तुम्हें तुम्हारे केंद्र पर पहुंचा देती है।
सामान्यत: हम एक काम से दूसरे काम में गति करते रहते है। अ से ब में, ब से स में। ज्यों ही तुम सुबह जागते हो, कर्म का जगत शुरू हो जाता है। अब तुम सारा दिन सक्रिय रहोगे। तुम अनेक बार काम बदलोगे, लेकिन एक क्षण को भी निष्क्रिय नहीं रहोगे। निष्क्रिय रहना कठिन है। अगर तुम निष्क्रिय रहने की कोशिश करोगे। तो वही सक्रियता बन जाएगी।
अनेक लोग निष्क्रिय होने की चेष्टा करते है। वे बुद्ध की तरह बैठ जाते है और निष्क्रिय होने की चेष्टा करते है। लेकिन निष्क्रिय होने की चेष्टा कैसे हो सकती है। चेष्टा ही सक्रियता बन जाएगी। तुम निष्क्रियता को भी सक्रियता बना लोगे। तुम अपने को जबरदस्ती शांत बना ले सकते हो। लेकिन वह जबरदस्ती खुद मन की क्रिया होगी।
यही कारण है कि अनेक लोग ध्यान में जाने की चेष्टा करते है। लेकिन कही नहीं पहुंचते है। कारण है कि उनका ध्यान भी एक सक्रियता है। एक क्रिया है। क्रिया बदली जा सकती है। तुम एक साधारण गीत गा रहे थे, उसे छोड़कर भजन गा सकते हो। पहल तेज गा रहे थे, अब आहिस्ता से गा सकते हो। लेकिन दोनों क्रियाएं है। तुम दौड़ रहे हो, तुम चल रहे हो। तुम पढ़ रहे हो। सब कुछ सक्रियता है। तुम प्रार्थना करते हो—वह भी सक्रियता है। तुम एक क्रिया से दूसरी क्रिया में गति करते रहते हो। ऐसे रात सोने तक कर्म जारी रहता है।
और सोते-सोते भी तुम सक्रिय रहते हो। क्रिया रुकती नहीं है। यही कारण है कि स्वप्न धटित होता है। स्वप्न उसी सक्रियता का विस्तार है। नींद में भी क्रिया जारी रहती है। अब तुम्हारा अचेतन सक्रिय है—कुछ करता है। चीजें बटोरता है, कुछ गँवाता है। कही जाता है। स्वप्न का अर्थ है कि थक कर शरीर सो गया है। लेकिन क्रिया किसी तल पर जारी है।
केवल कभी-कभी और वह भी कुछ क्षणों के लिए—आधुनिक मनुष्य के लिए यह भी दुर्लभ है—स्वप्न बंद होता है। और तुम गाढ़ी नींद में होते हो। लेकिन यह निष्क्रियता अचेतन है। तुम अब चेतन नहीं हो, गहरी नींद में हो, सक्रियता बंद हो गई है। अब कोई परिधि नहीं है; अब तुम केंद्र पर हो, लेकिन सर्वथा थके हुए—अचेतन, मृतवत।
यही कारण है कि हिंदू सदा कहते है कि सुषुप्ति और समाधि समान है। उनमें एक ही भेद है; लेकिन यह भेद बड़ा है। भेद बोध का है। सुषुप्ति में स्पप्नरहित नींद में तुम अपने केंद्र पर होते हो; लेकिन अचेतन। समाधि में भी, जो ध्यान की परम अवस्था है, तुम केंद्र पर होते हो। लेकिन चेतन। यही भेद है। क्योंकि बेहोश होकर केंद्र पर होने का कोई अर्थ नहीं है। यह ठीक है कि इससे तुम ताजा हो जाते हो, जीवंत हो जाते हो; ऊर्जावान हो जाते हो। सुबह तुम अधिक ताजा और आनंदित रहते हो। लेकिन अगर तुम बेहोश हो, तो केंद्र पर होकर भी तुम आदमी वही रहते हो, जो थे।
समाधि में तुम पूरे होश से, पूरे चैतन्य के साथ प्रवेश करते हो। और जब तुम पूरे चैतन्य के साथ केंद्र पर होते हो तो फिर कभी वह आदमी नहीं रहोगे; जो पहले थे। अब तुम जानोंगे कि मैं कौन हूं। अब तुम जानोंगे कि तुम्हारी चीजें, तुम्हारे कर्म परिधि पर है; वे मात्र लहरे है। वे तुम्हारा स्वभाव नहीं है।
अचानक रूकने की इन विधियों का उदेश्य तुम्हें निष्क्रियता में डालना है। इसलिए इस बिंदु का अचानक आना महत्वपूर्ण है। क्योंकि अगर निष्क्रिय होने की चेष्टा की जाएगी तो वही चेष्टा सक्रियता बन जाएगी। तो चेष्टा मत करो, बस निष्क्रिय हो जाओ। रूक जाओ का यही अर्थ है। अगर तुम दौड़ रहे हो और मैं कहता हूं रूक जाओ। तो तुम तुरंत रूक जाओ, चेष्टा मत करो। अगर चेष्टा करोगे तो चूक जाओगे।
यह एक विधि है: ‘’जैसे ही कुछ करने की वृति हो, रूक जाओ।‘’
यह एक आयाम है। जैसे, तुम्हें छींक आ रही है। तुम्हें लगता है कि अब तुम छींकने-छींकने को हो, एक क्षण और, और छींक आ जायेगी। तब मैं कुछ न कर सकूंगा लेकिन छींकने की वृति के पहले एहसास के साथ ही, जब उसकी पहली-पहली अहाट सुनाई पड़े, तभी ठहर जाओ।
तुम क्या कर सकते हो, क्या छींक को रोक सकते हो?
अगर तुम छींक को रोकने की कोशिश करोगे तो वह और जल्दी आएगी। क्योंकि रोकने की चेष्टा तुम्हें सचेत कर देगी। और छींक की उतैजना को बड़ा देगी तुम ज्यादा संवेदनशील होओगे। तुम्हारा पूरा अवधान वही इकट्ठा हो जाएगा। और उसी अवधान के कारण छींक जल्दी घटित हो जाएगी। वह असह्य हाँ जायेगी।
तुम सीधे-सीधे छींक को नहीं रोक सकते। लेकिन तुम अपने को रोक सकते हो। क्या कर सकते हो? तुम्हें एहसास होता है कि छींक आ रही है—ठहर जाओ। छींक को रोकने की कोशिश मत करो। बस तुम स्वयं रूक जाओ। कुछ मत करो। पूरी तरह अचल रहो, जिससे श्वास का आना जाना भी न हो। क्षण भर के लिए बिलकुल ठहर जाओ। और तुम देखोगें कि छींकने की वृति वापस लौट गई खत्म हो गई और वृति के जाने के साथ ही तुम्हारे भीतर कोई सूक्ष्म ऊर्जा मुक्त होकर तुम्हें केंद्र पर ले जाती है।
छींकने के साथ या किसी भी वृति के साथ तुम्हारी कुछ ऊर्जा बहार जाती है। वृति का अर्थ है कि तुम्हारी कुछ उर्जा भारी हो गई है और तुम उसका कोई उपयोग नहीं कर सकते हो। वह ऊर्जा तुम में जज़्ब भी नहीं हो सकती। यह सिर्फ बाहर जाना चाहती है। निकास चाहती है। तुम्हें राहत की जरूरत है। और कारण है कि छींकने के बाद तुम अच्छा अनुभव करते हो—एक सूक्ष्म सुख की अनुभूति। क्या हुआ? कुछ भी नहीं, तुमने कुछ ऊर्जा बाहर फेंक दी है जो व्यर्थ थी, फालतू थी, बोझ थी। इसलिए उसके निकल जाने पर तुम राहत अनुभव करते हो। तब तुम अपने भीतर एक सूक्ष्म विश्राम की अनुभूति होती है।
एक और बात ख्याल में रख लो कि ऊर्जा सदा गतिमान रहती है। या तो वह बाहर जाती है या भी तर आती है। ऊर्जा कभी ठहराव में नहीं होती। ये नियम है। और यदि तुमने नियमों को समझा तो इस विधि का सूत्र पकड़ में आ जायेगा। ऊर्जा सदा गति है। वह या तो बाहर जाती है या भीतर; पर वह कभी अगति में नहीं होती। वह अगर अगति में है तो वह ऊर्जा ही नहीं है। और ऐसा कुछ भी नहीं है जो ऊर्जा नहीं है। इसलिए प्रत्येक चीज कही न कहीं गति कर रही है।
तो जब कोई वृति तुम में पैदा होती है तो उसका मतलब है कि ऊर्जा बाहर जा रही है। इसी से तुम्हारी हाथ गिलास पर चला जाता है। तुम बाहर गए। कुछ करने की इच्छा पैदा हुई। सब सक्रियता गति है—भीतर से बाहर की और जब तुम अचानक ठहर जाते हो तो तुम्हारे साथ ऊर्जा नहीं ठहरती है। तुम अगति में हो; लेकिन ऊर्जा अगति में नहीं हो सकती। और जिस यंत्र के द्वारा वह बाहर गति करती थी। वह मरा नहीं है। मात्र ठहर गया है। जो ऊर्जा क्या करे? वह भीतर जाने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर सकती। ऊर्जा स्थिर नहीं रह सकती। वह बाहर जा रही थी तुम रूक गए और यंत्र भी रूक गया। लेकिन जो यंत्र उसे केंद्र पर ले जा सकता है वह मौजूद है। अब वह ऊर्जा भीतर की और गति करेगी।
और तुम क्षण-क्षण जाने अनजाने अपनी ऊर्जा को रूपांतरित कर रहे हो। उसके आयाम को बदल रहे हो। तुम क्रोध में हो; तुम किसी को मारना चाहते हो, कोई चीज नष्ट करना चाहते हो, या कुछ हिंसा करना चाहते हो। इसी क्षण एक प्रयोग करो। किसी मित्र को, अपनी पत्नी का या अपने किसी बच्चे को प्रेम करने लगी। उसे चूमो, उसे गले लगाओ। तुम गुस्से में थे तुम किसी को मिटाने जा रहे थे। तुम हिंसा पर उतारू थे। तुम्हारा चित विध्वंस के लिए तत्पर था; तुम्हारी ऊर्जा हिंसा की और गति कर रही थी। और तभी तुम किसी को अचानक और तुरंत प्रेम करने लगते हो।
शुरू में तुम्हें लगेगा, यह तो अभिनय जैसा है। तुम्हें आश्चर्य होगा कि मैं प्रेम कैसे कर सकता हूं। मैं तो अभी क्रोध में हूं लेकिन तुम मन के यंत्र को नहीं समझते हो। इसी क्षण तुम गहरे प्रेम में उतर सकते हो। क्योंकि ऊर्जा जाग गई है। वह उस बिदुं पर पहूंच गई है। जहां उसे अभिव्यक्ति चाहिए। ऊर्जा को गति करने की जरूरत है। अगर इसी क्षण तुम किसी को प्रेम करने लगो तो ऊर्जा प्रेम में प्रविष्ट हो जायेगी। और तुम्हें ऊर्जा का यह प्रवाह अभिभूत कर देगा जिसका अनुभव संभवत: तुम्हें पहले कभी नहीं हुआ होगा।
तुम अपना निरीक्षण करो, और तुम यही पाओगे। तुम कहते एक बात हो और सोचते बिलकुल दूसरी बात हो। तुम बिलकुल दूसरी बात कहना चाहते थे; लेकिन अगर तुम सच बोल दो तो तुम किसी काम के न रहोगे। कारण यह है कि समूचा समाज झूठा है। और एक झूठे समाज में तुम झूठे होकर ही रह सकते हो। जितने तुम समाज से समायोजित होगें उतने ही झूठे हो जाओगे। और अगर सच्चे होना चाहोगे तो समाज के साथ ताल मेल नहीं होगा। तुम उखड़े-उखड़े रहोगे।
यही कारण है कि संन्यास का जन्म हुआ। वह झूठे समाज के कारण आया। बुद्ध को समाज का त्याग इसलिए नहीं करना पडा कि उसका कोई अपने में अर्थ था। उसका सिर्फ निषेधात्मक उपयोग था। झूठे समाज के साथ तुम सच्चे नहीं रह सकते। और यदि रहा तो कदम-कदम पर उसके साथ अनावश्यक संघर्ष करना होगा। उससे ऊर्जा नष्ट होती है। झूठे को छोड़ो ताकि तुम सच्चे हो सको। सब संन्यास का बुनियादी कारण यही था।
अपना निरीक्षण करो कि तुम कितने झूठे हो। अपने दोहरे मन को देखो। तुम कहते एक बात हो और सोचते बिलकुल विपरीत बात हो। साथ ही साथ तुम मन में कुछ कह रहे हो और बाहर कुछ और बोल रहे हो।
ऐसी किसी झूठी वृति के साथ ठहरने से यह विधि काम न करेगी। अपने बाबत कुछ प्रामाणिक खोजों, और उसके साथ ठहरने का प्रयोग करो। सब कुछ झूठ नहीं हो गया है। बहुत चीजें अभी भी वास्तविक है। सौभाग्य से कभी-कभी प्रत्येक व्यक्ति वास्तविक होता है। किसी-किसी क्षण में प्रत्येक व्यक्ति प्रामाणिक होता है। तब रुको।
तुम क्रोध में हो, और जानते हो कि क्रोध सच्चा है। तुम किसी को नष्ट करने जा रहे हो। या अपने बच्चे को पीटने जा रहे हो। वहां रुको। लेकिन किसी प्रयोजन से नहीं। मत कहो कि क्रोध करना बुरा है, इसलिए मैं रुकता हूं। किसी मानसिक सोच-विचार की जरूरत नहीं है। सोच-विचार से ऊर्जा उसमें ही लग जाती है। यह भीतरी व्यवस्था है। अगर तुम कहते हो कि मुझे बच्चे को नहीं मारना चाहिए। क्योंकि इससे उसका कोई लाभ नहीं होने वाला है। और इससे मेरा भी कोई लाभ नहीं हो सकता है। यह बात ही व्यर्थ है। किसी काम का नहीं है। तो जो ऊर्जा क्रोध बनने जा रही थी, वह सोच-विचार बन जाएगी। जब तुम सारी चीज पर विचार कर लोगे तो क्रोध की ऊर्जा उतर जाएगी और सोच-विचार में प्रवेश कर जायेगी। उस अवस्था में रूकने पर गति करने के लिए ऊर्जा नहीं रहती है। जब तुम क्रोध में हो विचार मत करो। यह मत कहो कि भला है या बुरा कुछ विचार ही मत करो। एकाएक विधि को स्मरण करो और रूक जाओ।
क्रोध शुद्ध ऊर्जा है—न बुरा है और न भला। क्रोध भला भी हो सकता है। और बुरा भी हो सकता है। यह उसके परिणाम पर निर्भर है। ऊर्जा पर नहीं है। यह बुरा हो सकता है। अगर यह बाहर जाए और किसी को नष्ट करे। अगर यह विध्वंसक हो जाए। वहीं क्रोध सुंदर समाधि में परिणत हो सकता है। अगर वह भीतर मुड़ जाए और वह तुम्हें तुम्हारे केंद्र पर फेंक दे। तब वह फूल बन जाएगा। ऊर्जा मात्र ऊर्जा है। स्वच्छ, निर्दोष, तटस्थ।
तो विचार मत करो। अगर तुम कुछ करने जा रहे हो तो सोचो मत; केवल ठहर जाओ। और ठहरे रहो। उस ठहरने में तुम्हें केंद्र की झलक मिलती है। तुम परिधि को भूल जाओगे। और तुम्हें केंद्र दिखने लगेगा।
‘’जैसे ही कुछ करने की वृति हो, रूक जाओ।‘’
इसका प्रयोग करो। इस संबंध में तीन बातें स्मरण रखो। एक, प्रयोग तभी करो जब वृति वास्तविक हो। दो, रूकने के संबंध में विचार मत करो। बस रूक जाओ। तीन, प्रतीक्षा करो। जब तूम ठहर गए तो श्वास न चले, कोई गति न हो—बस प्रतीक्षा करो कि क्या होता है। कोई चेष्टा न हो।
जब मैं कहता हूं कि प्रतीक्षा करो तो उससे मेरा मतलब है कि आंतरिक केंद्र के संबंध में विचार करने की चेष्टा मत करो। यदि चेष्टा की तो फिर चूक जाओगे। केंद्र की मत सोचो। मत सोचो कि अब झलक आने को है। कुछ भी मत सोचो। मात्र प्रतीक्षा करो। वृति को, ऊर्जा को स्वयं करने दो। अगर तुम केंद्र और आत्मा ब्रह्म के बारे में विचार करने लगे तो ऊर्जा उसी विचारणा में लग जाएगी।
तुम बहुत आसानी से आंतरिक ऊर्जा को गंवा सकते हो। एक विचार भी उसे गति देने के लिए काफी है। तब तुम सोचते चले जाओगे। जब मैं कहता हूं कि ठहर जाओ तो उसका मतलब है पूरी तरह, समग्ररूपेण ठहर जाओ। कुछ भी गति न हो—मानो कि सारा जगत ठहर गया है; कोई गति नहीं; केवल तुम हो। उस केवल अस्तित्व में अचानक केंद्र का विस्फोट होता है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—2
प्रवचन—17