काम संबंधि पहला सूत्र–
‘’काम-आलिंगन में आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।‘’
कई कारणों से काम कृत्य गहन परितृप्ति बन सकता है और वह तुम्हें तुम्हारी अखंडता पर, स्वभाविक और प्रामाणिक जीवन पर वापस पहुंचा सकता है। उन कारणों को समझना होगा।
एक कारण यह है कि काम कृत्य समग्र कृत्य है। इसमें तुम अपने मन से बिलकुल अलग हो जाते हो। छूट जाते हो। यही कारण है कि कामवासना से इतना डर लगता है। तुम्हारा तादात्म्य मन के साथ है और काम अ-मन का कृत्य है। उस कृत्य में उतरते ही तुम बुद्धि-विहीन हो जाते हो। उसमे बुद्धि काम नहीं करती। उसमे तर्क की जगह नहीं है। कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं है। और अगर मानसिक प्रक्रिया चलती है तो काम कृत्य सच्चा और प्रामाणिक नहीं हो सकता। तब आर्गाज्म संभव नहीं है। गहन परितृप्ति संभव नहीं है। तब काम-कृत्य उथला हो जाता है। मानसिक कृत्य हो जाता है। ऐसा ही हो गया है।
सारी दुनिया में कामवासना की इतनी दौड़ है, काम की इतनी खोज है, उसका कारण यह नहीं है कि दुनिया ज्यादा कामुक हो गई है। उसका कारण इतना ही हे कि तुम काम-कृत्य को उसकी समग्रता में नहीं भोग पाते हो। इसीलिए कामवासना की इतनी दौड़ है। यह दौड़ बताती है कि सच्चा काम खो गया है। और उसकी जगह नकली काम हावी हो गया है। सारा आधुनिक चित कामुक हो गया है। क्योंकि काम कृत्य ही खो गया है। काम कृत्य भी मानसिक कृत्य बन गया है। काम मन में चलता रहता है और तुम उसके संबंध में सोचते रहते हो।
मेरे पास अनेक लोग आते है और कहते है कि हम काम के संबंध में सोच-विचार करते है, पढ़ते है, चित्र देखते है। अश्लील चित्र देखते है। वही उनका कामानंद है, सेक्स का शिखर अनुभव है। लेकिन जब काम का असली क्षण आता है तो उन्हें अचानक पता चलता है कि उसमे उनकी रूचि नहीं है। यहां तक कि वे उसमे अपने को नापुंसग अनुभव करते है। सोच-विचार के क्षण में ही उन्हें काम उर्जा का एहसास होता है। लेकिन जब वे कृत्य में उतरना चाहते है तो उन्हें पता चलता है कि उसके लिए उनके पास ऊर्जा नहीं है। तब उन्हें कामवासना का भी पता नहीं चलता है। उन्हें लगता है कि उनका शरीर मुर्दा हो गया है।
उन्हें क्या हो गया है?यही हो रहा है कि उनका काम-कृत्य भी मानसिक हो गया है। वे इसके बारे में सिर्फ सोच विचार कर सकते है। वे कुछ कर नहीं सकते। क्योंकि कृत्य में तो पूरे का पूरा जाना पड़ता है। और जब भी पूरे होकर कृत्य में संलग्न होने की बात उठती है। मन बेचैन हो जाता है। क्योंकि तब मन मालिक नहीं रह सकता, तब मन नियंत्रण नहीं कर सकता।
तंत्र काम-कृत्य को, संभोग को तुम्हें अखंड बनाने के लिए उपयोग में लाता है। लेकिन तब तुम्हें इसमे बहुत ध्यानपूर्वक उतरना होगा। तब तुम्हें काम के संबंध में वह सब भूल जाना होगा जो तुमने सुना है, पढ़ा है, जो समाज ने, संगठित धर्मों ने, धर्म गुरूओं ने तुम्हें सिखाया है। सब कुछ भूल जाओ। दिया है। और समग्रता से इसमे उतरो। भूल जाओ कि नियंत्रण करना है। नियंत्रण ही बाधा है। उचित है कि तुम उस पर नियंत्रण करने की बजाय अपने को उसके हाथों में छोड़ दो। तुम ही उसके बस में हो जाओ। संभोग में पागल की तरह जाओ। अ-मन की अवस्था पागलपन जैसी मालूम पड़ती है। शरीर ही बन जाओ। पशु ही बन जाओ। क्योंकि पशु पूर्ण है।
जैसा आधुनिक मनुष्य है। उसे पूर्ण बनाने की सबसे सरल संभावना केवल काम में है। सेक्स में है, क्योंकि काम तुम्हारे भीतर गहन जैविक केंद्र है। तुम उससे ही उत्पन्न हुए हो। तुम्हारी प्रत्येक कोशिका काम-कोशिका है। तुम्हारा समस्त शरीर काम-उर्जा की घटना है।
यह पहला सूत्र कहता है: ‘’काम-आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।‘’
इसी में सारा फर्क है, सारा भेद है। तुम्हारे काम-कृत्य, संभोग महज राहत का, अपने को तनाव-मुक्त करने का उपाय है। इसलिए जब तुम संभोग में उतरते हो तो तुम्हें बहुत जल्दी रहती है। तुम किसी तरह छुटकारा चाहते हो। छुटकारा यह कि जो ऊर्जा का अतिरेक तुम्हें पीडित किए है वि निकल जाए और तुम चैन अनुभव करो। लेकिन यह चैन एक तरह की दुर्बलता है। ऊर्जा की अधिकता तनाव पैदा करती है। उतैजना पैदा करती है। और तुम्हें लगता है कि उसे फेंकना जरूरी है। जब वह ऊर्जा बह जाती है तो तुम कमजोरी अनुभव करते हो। और तुम उसी कमजोरी को विश्राम मान लेते हो। क्योंकि ऊर्जा की बाढ़ समाप्त हो गई उतैजना जाती रही, इसलिए तुम्हें विश्राम मालूम पड़ता है।
लेकिन यह विश्राम नकारात्मक विश्राम है। अगर सिर्फ ऊर्जा को बाहर फेंककर तुम विश्राम प्राप्त करते हो तो यह विश्राम बहुत महंगा है। और तो भी यह सिर्फ शारीरिक विश्राम होगा। वह गहरा नहीं होगा। वह आध्यात्मिक नहीं होगा।
यह पहला सूत्र कहता है कि जल्द बाजी मत करो और अंत के लिए उतावले मत बनो, आरंभ में बने रहो। काम-कृत्य के दो भाग है: आरंभ और अंत। तुम आरंभ के साथ रहो। आरंभ का भाग ज्यादा विश्राम पूर्ण है। ज्यादा उष्ण है। लेकिन अंत पर पहुंचने की जल्दी मत करो। अंत को बिलकुल भूल जाओ।
तीन संभावनाएं है। दो प्रेमी प्रेम में तीन आकार, ज्यामितिक आकार निर्मित कर सकते है। शायद तुमने इसके बारे में पढ़ा भी होगा। या कोई पुरानी कीमिया, की तस्वीर भी देखो। जिसमें एक स्त्री और एक पुरूष तीन ज्यामितिक आकारों में नग्न खड़े है। एक आकार चतुर्भुज है, दूसरा त्रिभुज है, और तीसरा वर्तुल है। यक अल्केमी और तंत्र की भाषा में काम क्रोध का बहुत पुराना विश्लेषण है।
आमतौर से जब तुम संभोग में होते हो तो वहां दो नहीं, चार व्यक्ति होते है। वही है चतुर्भुज। उसमे चार कोने है, क्योंकि तुम दो हिस्सों में बंटे हो। तुम्हारा एक हिस्सा विचार करने वाला है और दूसरा हिस्सा भावुक हिस्सा है। वैसे ही तुम्हारा साथी भी दो हिस्सों में बंटा है। तुम चार व्यक्ति हो दो नहीं। चार व्यक्ति प्रेम कर रहे है। यह एक भीड़ है, और इसमें वस्तुत: प्रगाढ़ मिलन की संभावना नहीं है। इस मिलन के चार कोने है और मिलन झूठा है। वह मिलन जैसा मालूम होता है। लेकिन मिलन है नहीं। इसमें प्रगाढ़ मिलन की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि तुम्हारा गहन भाग दबा पडा है। केवल दो सिर, दो विचार की प्रक्रियाएं मिल रही है। भाव की प्रक्रियाएं अनुपस्थित है। वे दबी छीपी है।
दूसरी कोटी काम मिलन त्रिभुज जैसा होगा। तुम दो हो, आधार के कोने और किसी क्षण अचानक तुम दोनों एक हो जाते हो—त्रिभुज के तीसरे कोने की तरह। किसी आकस्मिक क्षण में तुम्हारी दुई मिट जाती है। और तुम एक हो जाते है। यह मिलन चतुर्भुजी मिलन से बेहतर है। क्योंकि कम से कम एक क्षण के लिए ही सही , एकता सध जाती है। वह एकता तुम्हें स्वास्थ्य देती है। शक्ति देती है। तुम फिर युवा और जीवंत अनुभव करते हो।
लेकिन तीसरा मिलन सर्वश्रेष्ठ है। और यह तांत्रिक मिलन है। इसमें तुम एक वर्तुल हो जाते हो, इसमें कोने नहीं रहते। और यह मिलन क्षण भर के लिए नहीं है, वस्तुत: यह मिलन समयातित है। उसमें समय नहीं रहता। और यह मिलन तभी संभव है जब तुम स्खलन नहीं खोजते हो। अगर स्खलन खोजते हो तो फिर यह त्रिभुजीय मिलन हो जाएगा। क्योंकि स्खलन होते ही संपर्क का बिंदु मिलन का बिंदू खो जाता है।
आरंभ के साथ रहो, अंत की फिक्र मत करो। इस आरंभ में कैसे रहा जाए? इस संबंध में बहुत सी बातें ख्याल में लेने जैसी है। पहली बात कि काम कृत्य को कहीं जाने का, पहुंचने का माध्यम मत बनाओ। संभोग को साधन की तरह मत लो, वह आपने आप में साध्य है। उसका कहीं लक्ष्य नहीं है, वह साधन नहीं है। और दूसरी बात कि भविष्य की चिंता मत लो, वर्तमान में रहो। अगर तुम संभोग के आरंभिक भाग में वर्तमान में नहीं रह सकते, तब तुम कभी वर्तमान में नहीं रह सकते। क्योंकि काम कृत्य की प्रकृति ही ऐसी है। कि तुम वर्तमान में फेंक दिए जाते हो।
तो वर्तमान में रहो। दो शरीरों के मिलन का सुखा लो, दो आत्माओं के मिलने का आनंद लो। और एक दूसरे में खो जाओ। एक हो जाओ। भूल जाओ कि तुम्हें कहीं जाना है। वर्तमान क्षण में जीओं, जहां से कहीं जाना नहीं है। और एक दूसरे से मिलकर एक हो जाओ। उष्णता और प्रेम वह स्थिति बनाते है जिसमें दो व्यक्ति एक दूसरे में पिघलकर खो जाते है। यही कारण है कि यदि प्रेम न हो तो संभोग जल्दबाजी का काम हो जाता है। तब तुम दूसरे का उपयोग कर रहे हो। दूसरे में डूब नहीं रहे हो। प्रेम के साथ तुम दूसरे में डूब सकते हो।
आरंभ का यह एक दूसरे में डूब जाना अनेक अंतदृष्टियां प्रदान करता है। अगर तुम संभोग को समाप्त करने की जल्दी नहीं करते हो तो काम-कृत्य धीरे-धीरे कामुक कम और आध्यात्मिक ज्यादा हो जाता है। जननेंद्रियों भी एक दूसरे में विलीन हो जाती है। तब दो शरीर ऊर्जाओं के बीच एक गहन मौन मिलन घटित होता है। और तब तुम घंटों साथ रह सकते हो। यह सहवास समय के साथ-साथ गहराता जाता है। लेकिन सोच-विचार मत करो, वर्तमान क्षण में प्रगाढ़ रूप से विलीन होकर रहो। वही समाधि बन जाती है। और अगर तुम इसे जान सके इसे अनुभव कर सके, इसे उपलब्ध कर सके तो तुम्हारा कामुक चित अकामुक हो जाएगा। एक गहन ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है। काम से ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है।
यह वक्तव्य विरोधाभासी मालूम होता है। काम से ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि हम सदा से सोचते आए है कि अगर किसी को ब्रह्मचारी रहना है। तो उसे विपरीत यौन के सदस्य को नहीं देखना चाहिए। उससे नहीं मिलना चाहिए। उससे सर्वथा बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। लेकिन उस हालत में एक गलत किस्म का ब्रह्मचर्य घटित होता है। जब चित विपरीत यौन के संबंध में सोचने में संबंध में सोचने में संलग्न हो जाता है। जितना ही तुम दूसरे से बचोगे उतना ही ज्यादा उसके संबंध में सोचने को विवश हो जाओगे। क्योंकि काम मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है, गहरी आवश्यकता है।
तंत्र कहता है कि बचने की, भागने की चेष्टा मत करो, बचना संभव नहीं है। अच्छा है कि प्रकृति को ही उसके अतिक्रमण का साधन बना लो। लड़ों मत प्रकृति के अतिक्रमण के लिए प्रकृति को स्वीकार करो।
अगर तुम्हारी प्रेमिका या तुम्हारी प्रेमी के साथ इस मिलन को अंत की फिक्र किए बिना लंबाया जा सके तो तुम आरंभ में ही बने रहे सकते हो। उतैजना ऊर्जा है और शिखर पर जाकर तुम उसे खो सकते हो। ऊर्जा के खोन से गिरावट आती है। कमजोरी पैदा होती है। तुम उसे विश्राम समझ सकते हो। लेकिन वह उर्जा का अभाव है।
तंत्र तुम्हें उच्चतर विश्राम का आयाम प्रदान करता है। प्रेमी और प्रेमिका एक दूसरे में विलीन होकर एक दूसरे को शक्ति प्रदान करते है। तब वे एक वर्तुल बन जाते है। और उनकी ऊर्जा वर्तुल में घूमने लगती है। वह दोनों एक दूसरे को जीवन ऊर्जा दे रहे है। नव जीवन दे रहे है। इसमे ऊर्जा का ह्रास नहीं होता है। वरन उसकी वृद्धि होती है। क्योंकि विपरीत यौन के साथ संपर्क के द्वारा तुम्हारा प्रत्येक कोश ऊर्जा से भर जाता है। उसे चुनौती मिलती हे।
यदि स्खलन न हो, यदि ऊर्जा को फेंका न जाए तो संभोग ध्यान बन जाता है। और तुम पूर्ण हो जाते हो। इसके द्वारा तुम्हारा विभाजित व्यक्तित्व अविभाजित हो जाता है। अखंड हो जाता है। चित की सब रूग्णता इस विभाजन से पैदा होती है। और जब तुम जुड़ते हो, अखंड होते हो तो तुम फिर बच्चे हो जाते हो। निर्दोष हो जाते हो।
और एक बार अगर तुम इस निर्दोषता का उपलब्ध हो गए तो फिर तुम अपने समाज में उसकी जरूरत के अनुसार जैसा चाहो वैसा व्यवहार कर सकते हो। लेकिन तब तुम्हारा यह व्यवहार महज अभिनय होगा, तुम उससे ग्रस्त नहीं होगे। तब यह एक जरूरत है जिसे तुम पूरा कर रहे हो। तब तुम उसमे नहीं हो। तुम मात्र एक अभिनय कर रहे हो। तुम्हें झूठा चेहरा लगाना होगा। क्योंकि तुम एक झूठे संसार में रहते हो। अन्यथा संसार तुम्हें कुचल देगा, मार डालेगा।
हमने अनेक सच्चे चेहरों को मारा है। हमने जीसस को सूली पर चढ़ा दिया, क्योंकि वे सच्चे मनुष्य की तरह व्यवहार करने लगे थे। झूठा समाज इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता है। हमने सुकरात को जहर दे दिया। क्योंकि वह भी सच्चे मनुष्य की तरह पेश आने लगे थे। समाज जैसा चाहे वैसा करो, अपने लिए और दूसरों के लिए व्यर्थ की झंझट मत पैदा करो। लेकिन जब तुमने अपने सच्चे स्वरूप को जान लिया, उसकी अखंडता को पहचान लिया तो यह झूठा समाज तुम्हें फिर रूग्ण नहीं कर सकता, विक्षिप्त नहीं कर सकता।
‘’काम-आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।‘’
अगर स्खलन होता है तो ऊर्जा नष्ट होती है। और तब अग्नि नहीं बचती। तुम कुछ प्राप्त किए बिना ऊर्जा खो देते हो।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—3
प्रवचन-33