‘ग्रीष्म ऋतु में जब तुम समस्त आकाश को अंतहीन निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।‘’
मन विभ्रम है; मन उलझन है। उसमें स्पष्टता नहीं है। निर्मलता नहीं है। और मन सदा बादलों से घिरा रहता है। वह कभी निरभ्र, शुन्य आकाश नहीं होता। मन निर्मल हो ही नहीं सकता। तुम अपने मन को शांत-निर्मल नहीं बना सकते हो। ऐसा होना मन के स्वभाव में ही नहीं है। मन अस्पष्ट रहेगा, धुंधला-धुंधला ही रहेगा। अगर तुम मन को पीछे छोड़ सके, अगर तुम मन का अतिक्रमण कर सके, उसके पार जा सके, तो एक स्पष्टता तुम्हें उपलब्ध होगी। तुम द्वंद्व रहित हो सकते हो। मन नहीं। द्वंद्व रहित मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं। न कभी अतीत में थे और न कभी भविष्य में होगी। मन का अर्थ ही द्वंद्व है उलझाव है।
मन की संरचना को समझने की कोशिश करो और तब यह विधि तुम्हें स्पष्ट हो जाएगी। मन क्या है? मन विचारों की एक प्रक्रिया है, विचारों का एक सतत प्रवाह है—चाहे वे विचार संगत हों या असंगत हो। चाहे वे प्रासंगिक हो या अप्रासंगिक हो। मन सब जगहों से संग्रहित किए गए बहुआयामी प्रभावों का एक लंबा जलूस है। तुम्हारा सारा जीवन एक संग्रह है—धूल का संग्रह। और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है।
एक बच्चा जन्म लेता है। बच्चे की दृष्टि निर्मल है; क्योंकि उसके पास मन नहीं है। लेकिन जैसे ही मन प्रवेश करता है, उसके साथ ही द्वंद्व और उलझन भी प्रवेश कर जाती है। बच्चा निर्मल है। निर्मलता ही है। लेकिन उसे ज्ञान, सूचना, संस्कृति, धर्म और संस्कारों का संग्रह करना ही पड़ेगा। वे जरूरी है। उपयोगी है, उसे अनेक जगहों से, अनेक स्रोतों से इकट्ठा करेगा। और तब उसका मन एक बाजार बन जाएगा—एक मेला, एक भिड़। और क्योंकि उसके स्त्रोत अनेक है, उलझन और भ्रांति और विभ्रम का होना है। और तुम कितना भी इकट्ठा करो, कुछ भी निश्चित नहीं हो पाता है। क्योंकि ज्ञान सदा बदलता रहता है। और बढ़ता रहता है।
मुझे स्मरण आता है कि किसी ने मुझे एक चुटकला सुनाया था। वह एक बड़ा शोधकर्ता था और यह चुटकला उसके एक प्रोफेसर के बाबत था जिन्होंने उसे मेडिकल कालेज में पाँच वर्षों तक पढ़ाया था। वह प्रोफेसर अपने विषय का भारी विद्वान था। और उसने जो अंतिम काम किया वह यह था कि उसने अपने सारे विद्यार्थियों को जमा किया और कहा: ‘मुझे तुम्हें एक और चीज सिखानी है। मैंने तुम्हें जो कुछ पढ़ाया है उकसा पचास प्रतिशत ही सही है। और शेष पचास प्रतिशत बिलकुल गलत है। लेकिन कठिनाई यह कि मैं नहीं जानता कि कौन सा पचास प्रतिशत सही है और कौन सा पचास प्रतिशत गलत है।’
ज्ञान की सारी इमारत ऐसे ही खड़ी है। कुछ भी निश्चित नही है। कोई नहीं जानता है; हर कोई अंधेरे में टटोल रहा है। ऐसे ही टटोल-टटोल कर हम शास्त्र निर्मित करते है; विचार पद्धतियां बनाते है। और ऐसे ही हजारों-हजारों शास्त्र बन गए है। हिंदू कुछ कहते है; ईसाई कुछ और कहते है। मुसलमान कुछ और कहते है। और सब एक दूसरे का खंडन करते है। उनमें कोई सहमति नहीं है। और कोई भी निश्चित नहीं है। असंदिग्ध नहीं है। और ये सारे स्त्रोत ही तुम्हारे मन के स्त्रोत है। तुम इनसे ही अपना संग्रह निर्मित करते हो। तुम्हारा मन एक कबाड़ खाना बन जाता है। विभ्रम अनिवार्य है; उलझन अनिवार्य है।
केवल वही आदमी निश्चित हो सकता है। जो बहुत जानता है। तुम जितना अधिक जानोंगे, उतने ही भ्रमित होगे। उलझन ग्रस्त होगे। आदिवासी लोग ज्यादा निश्चिंत थे और उनकी आंखें ज्यादा निर्मल मालूम पड़ती है। यह दृष्टि की निर्मलता नहीं थे। यह सिर्फ परस्पर विरोधी तथ्यों के प्रति उनका अज्ञान था। अगर आधुनिक चित ज्यादा भ्रमित है तो उसका कारण है कि आधुनिक चित बहुत ज्यादा जानता है। अगर तुम ज्यादा जानोंगे तो तुम ज्यादा भ्रमित होगे। क्योंकि अब तुम बहुत कुछ जानते हो। और तुम जितना ज्यादा जानोंगे उतने ही ज्यादा अनिश्चित होगे। केवल मूढ़ ही असंदिग्ध होंगे। केवल मूढ़ ही मतांध होंगे; केवल मूढ़ ही कभी झिझक में नहीं पड़ते। तुम जितना ही जानोंगे उतनी ही तुम्हारे पांव के नीचे से जमीन खिसक जाएगी। तुम उतनी ही अधिक उधेड़बुन में पड़ोगे।
मैं यह कहना चाहता हूं कि मन जितना ही बड़ा होगा तुम उतना ही जानोंगे कि भ्रांति मन का स्वभाव है। और जब मैं कहता हूं कि केवल मूढ़ ही निश्चित हो सकते है। तो उसका अर्थ यह नहीं है कि बुद्ध मूढ़ है। क्योंकि वे संदिग्ध नहीं है। इस भेद को स्मरण रखो; बुद्ध ने निश्चित है न अनिश्चित; बुद्ध की दृष्टि स्पष्ट है। मनके साथ अनिश्चय है; मूढ़ मन के साथ निश्चित है; और अ-मन के साथ निश्चय-अनिश्चिय दोनों विदा हो जाते है।
बुद्ध परम होश है, शुद्ध बोध है—खुले आकाश जैसे है। वे निश्चित नहीं है; निश्चित होने को क्या है? वे अनिश्चित भी नहीं है; अनिश्चित होने का क्या है? केवल वही अनिश्चित हो सकता है जो निश्चित की खोज में है। मन सदा अनिश्चित रहता है। और निश्चय की खोज करता है। मन सदा कन्फ्यूज रहता है और क्लैरिटी की तलाश करता है। बुद्ध ने मन को ही गिरा दिया है। और मन के साथ सारे विभ्रम को, सारे निश्चय-अनिश्चय को,सब कुछ को गिरा दिया है।
इसे इस तरह देखा। तुम्हारी चेतना आकाश जैसी है और तुम्हारा मन बदलों जैसा है। आकाश बादलों से अछूता रहता है। बादल आते है जाते है, लेकिन आकाश पर उनका कोई चिन्ह नहीं छूटता है। बादलों की कोई स्मृति कुछ भी नहीं पीछे रहता है। बादला आते-जाते है, आकाश अनुद्विग्न शांत रहता है।
तुम्हारे साथ भी यहीं बात है, तुम्हारी चेतना अनुद्विग्न, अक्षुब्ध शांत रहती है। विचार आते है और जाते है, मन उठते है और खो जाते है। ऐसा मत सोचो कि तुम्हारे पास एक ही मन है, तुम्हारे पास अनेक मन है। मनों की एक भीड़ है। और तुम्हारे मन बदलते रहते है।
तुम कम्युनिस्ट हो; तो तुम्हारे पास एक तरह का मन होगा। फिर तुम कम्यूनिज् छोड़कर कम्यूनिज़म विरोधी बन सकते हो। तब तुम्हारे पास भिन्न मन होगा। भिन्न ही नहीं होगा, सर्वथा विपरीत मन होगा। तुम वस्त्रों की भांति अपने मन बदलते रह सकते हो। और तुम बदलते रहते हो; तुम्हें इसका पता हो या न हो। ये बादल आते है जाते है।
निर्मलता तो तब प्राप्त होती है जब तुम अपनी दृष्टि को बादलों से हटाते हो। जब तुम आकाश के प्रति बोधपूर्ण होते हो। अगर तुम्हारी दृष्टि आकाश पर नहीं है तो उसका अर्थ है कि वह बादलों पर लगी है। उसे बादलों से हटाकर आकाश पर केंद्रित करो।
यह विधि कहती है: ‘ग्रीष्म ऋतु में जब तुम समस्त आकाश को अंतहीन निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।’
आकाश पर ध्यान करो। ग्रीष्म ऋतु का निरभ्र आकाश, दूर-दूर तक रिक्त और निर्मल, निपट खाली अस्पर्शित और कुंवारा। उस पन मनन करो। ध्यान करो। उस निर्मलता में प्रवेश करो। वह निर्मलता ही हो जाओ—आकाश जैसी निर्मलता।
अगर तुम निर्मल, निरभ्र आकाश पर ध्यान करोगे तो तुम अचानक महसूस करोगे कि तुम्हारा मन विलीन हो रहा है। विदा हो रहा है। ऐसे अंतराल होंगे। जिनमें अचानक तुम्हें बोध होगा कि निर्मल आकाश तुम्हारे भीतर प्रवेश कर गया है। ऐसे अंतराल होंगे। जिनमें कुछ देर के लिए विचार खो जायेंगे। मानों चलती सड़क अचानक सूनी हो गई है। और वहां कोई नहीं चल रहा है।
आरंभ में यह अनुभव कुछ क्षणों के लिए होगा; लेकिन वे क्षण भी बहुत रूपांतरण कारी होगे। फिर धीरे-धीरे मन की गति धीमी होने लगेगी और अंतराल बड़े होने लगेंगे। अनेक क्षणों तक कोई विचार, कोई बादल नहीं होगा। और जब कोई विचार, कोई बादल नहीं होगा तो बाहरी आकाश और भीतरी आकाश एक हो जाएंगे। क्योंकि विचार ही बाधा है, विचार ही दीवार निर्मित करते है; विचारों के कारण ही बाहर भीतर का भेद खड़ा होता है जब विचार नहीं होते तो बाहरी और भीतरी दोनों अपनी सीमाएं खो देते है। और एक हो जाते है। वास्तव में सीमाएं वहां कभी नहीं थी। सिर्फ विचार के कारण, विचार के अवरोध के कारण सीमाएं मालूम पड़ती थी।
आकाश पर ध्यान करना बहुत सुंदर है। बस लेट जाओ, ताकि पृथ्वी को भूल सको। किसी एकांत सागर तट पर, या कहीं भी जमीन पर पीठ के बल लेट जाओ और आकाश को देखो। लेकिन इसके लिए निर्मल आकाश सहयोगी होगा—निर्मल और निरभ्र आकाश। और आकाश को देखते हुए,उसे अपलक देखते हुए उसकी निर्मलता को, उसके निरभ्र फैलाव को अनुभव करो। और फिर उस निर्मलता में प्रवेश करो, उसके साथ एक हो जाओ। अनुभव करो कि जैसे तुम आकाश ही हो गए हो।
आरंभ में अगर तुम सिर्फ कुछ और नहीं करो खुले आकाश पर ही ध्यान करो। तो अंतराल आने शुरू हो जाएंगे। क्योंकि तुम जो कुछ देखते हो वह तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाता है। तुम जो कुछ देखते हो वह तुम्हें भीतर से उद्वेलित कर देता है। तुम जो कुछ देखते हो वह तुममें बिंबित-प्रतिबिंबित हो जाता है।
तुम एक मकान देखते हो। तुम उसे मात्र देखते ही तुम्हारे भीतर कुछ होने भी लगता है। तुम एक पुरूष को या एक स्त्री को देखते हो, एक कार को देखते हो, या कुछ भी देखते हो। वह अब बहार हीन ही; तुम्हारे भीतर भी कुछ होने लगता है। कोई प्रतिबिंब बनने लगता है। और तुम प्रतिक्रिया करने लगते हो तुम जो कुछ देखते हो वह तुम्हें ढालता है, गढ़ता है; वह तुम्हें बदलता है। निर्मित करता है। बाह्म सतत भीतर से जूड़ा है।
तो खुले आकाश को देखना बढ़िया है। उसका असीम विस्तार बहुत सुंदर है। उस असीम के संपर्क में तुम्हारी सीमाएं भी विलीन होने लगती है; क्योंकि वह असीम आकाश तुम्हारे भी प्रतिबिंबित होने लगता है।
और तुम अगर आंखों को झपके बिना अपलक ताक सको तो बहुत अच्छा है। अपलक ताकना बहुत अच्छा है। क्योंकि अगर तुम पलक झपकते हो विचार प्रक्रिया चालू रहेगी। तो बिना पलक झपकाए अपलक देखो। शून्य में देखो; उस शून्य में डूब जाओ। भाव करो कि तुम उससे एक हो गए हो। और फिर आकाश तुममें उतर आएगा।
पहले तुम आकाश में प्रवेश करते हो फिर आकाश तुम में प्रवेश करता है। तब मिलन घटित होता है। आंतरिक आकाश बाह्म आकाश से मिलता है। और उस मिलन में उपलब्धि है। उस मिलन में मन नहीं होता। क्योंकि वह मिलन ही तब होता है जब मन नहीं होता। उस मिलन में तुम पहली दफा मन नहीं होते हो। और इसके साथ सारी भ्रांति विदा हो जाती है। मन के बिना भ्रांति नहीं हो सकती है। सारा दूःख समाप्ति हो जाता है। क्योंकि दूःख भी मन के बिना नहीं हो सकता है।
तुमने क्या कभी इस बात पर ध्यान दिया है। दुःख मन के बिना नहीं हो सकता हे। तुम मन के बिना दुःखी नहीं हो सकते हो। उसका स्त्रोत ही नहीं रहा। कौन तुम्हें दुःख देगा। कौन तुम्हें दुःखी बनाएगा? और उलटी बात भी सही है। तुम मन के बिना दुःखी नहीं हो सकते हो। तुम मन के रहते आनंदित नहीं रह सकते हो। मन कभी आनंद का स्त्रोत नहीं हो सकता है।
यदि भीतर और बाहरी आकाश क्षण भर के लिए भी मिलते है और मन विलीन हो जाता है। तो तुम एक नए जीवन से भर जाओगे। उस जीवन की गुणवता ही और है। यहीं शाश्वत जीवन है—मृत्यु से अस्पर्शित शाश्वत जीवन।
उस मिलन में तुम यहां और अभी होगे। वर्तमान में होगे। क्योंकि अतीत विचार का हिस्सा है और भविष्य भी विचार का हिस्सा हे। अतीत और भविष्य मन के हिस्से है; वर्तमान अस्तित्व है; वह तुम्हारे मन का हिस्सा नहीं है। जो क्षण बीत गया वह मन का है, जो क्षण आने वाला है वह मन का है। लेकिन वर्तमान क्षण कभी तुम्हारे मन का हिस्सा नहीं हो सकते है। बल्कि तुम ही इस क्षण के हिस्से हो। तुम यहीं हो, ठीक अभी और यहीं हो। लेकिन तुम्हारा मन कहीं और होता है। सदा कहीं और होता है।
तो अपने को भार-मुक्त करो। मैं एक सूफी संत की कहानी पढ़ रहा था। वह एक सुनसान रास्ते से यात्रा कर रहा था। रास्ता निर्जन हो चला था, तभी उसे एक किसान अपनी बैलगाड़ी के पास दिखाई पडा। बैलगाड़ी कीचड़ में फंस गई थी। रास्ता उबड़-खाबड़ था। किसान अपनी गाड़ी में सेब भर कर ला रहा था; लेकिन रास्ते में कहीं गाड़ी का पिछला तख्ता खुल गया था और सेब गिरते गए थे। लेकिन उसे इसकी खबर नहीं थी। किसान को इसका पता नहीं था। जब गाड़ी कीचड़ मे फंसी तो पहले तो उसने उसे निकालने की भरसक चेष्टा कि, लेकिन उसके सब प्रयत्न व्यर्थ गए। तब उसने सोचा कि मैं गाड़ी को खाली कर लूं तो निकालना आसान हो जाएगा।
उसने जब लौटकर देखा तो मुश्किल से दर्जन भर सेब बचे थे। सब बोझ पहले ही उतर चूका था। तुम उसकी पीड़ा समझ सकते हो। उस सूफी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि थके-हारे किसान ने एक आह भरी: ‘नरक में गाड़ी फंसी और उतारने को कुछ भी नहीं है।’यही एक आशा बची थी कि गाड़ी खाली हो तो कीचड़ से निकल आएगी। पर अब खाली करने को भी कुछ नहीं है।
सौभाग्य से तुम इस तरह नहीं फंसे हो। तुम खाली कर सकते हो। तुम्हारी गाड़ी बहुत बोझिल है। तुम मन को खाली कर सकते हो। और जैसे ही मन गया कि तुम उड़ सकते हो। तुम्हें पंख लग जाते है।
यह विधि—आकाश की निर्मलता में झांकने और उसके साथ एक होने की विधि—उन विधियों में सक एक है जिनका बहुत उपयोग किया गया है। अनेक परंपराओं ने इसका उपयोग किया है। और खास कर आधुनिक चित के लिए यह विधि बहुत उपयोगी है। क्योंकि पृथ्वी पर कुछ भी नहीं बचा है जिस पर ध्यान किया जा सके। सिर्फ आकाश बचा है। तुम यदि अपने चारों ओर देखोगें तो पाओगे कि प्रत्येक चीज मनुष्य निर्मित है। प्रत्येक चीज सीमित हो गई है; प्रत्येक चीज सीमा में सिकुउ गई है। सौभाग्य से आकाश अब भी बचा है। जो ध्यान करने के लिए उपलब्ध है।
तो इस विधि करो; यह उपयोगी होगी। लेकिन तीन बातें याद रखने जैसी है। पहली बात की पलकें मत झपकना, अपलक देखो। अगर तुम्हारी आंखें दुखन लगे और आंसू बहने लगें तो भी चिंता मत करना। वे आंसू भी तुम्हारे निर्भार करने में सहयोगी होंगे। वे आंसू तुम्हारी आंखों को ज्यादा निर्दोष और ताजा बना जाएंगे। वे उन्हें नहला देंगे। तुम अपलक देखते जाओ।
दूसरी बात आकाश के बारे में सोच-विचार मत करो। इस बात को ख्याल में रख लो। तुम आकाश के संबंध में सोच विचार करने लग सकते हो। तुम्हें आकाश के संबंध में अनेक कविताएं, सुंदर-सुंदर कविताएं याद आ सकती है। लेकिन तब तुम चूक जाओगे। तुम्हें आकाश के बारे में सोच-विचार नहीं करना है। तुम्हें तो उसमें डूबना है। तुम्हें उसके साथ एक होना है। अगर तुम उसके संबंध में सोच-विचार करने लगे तो फिर अवरोध निर्मित हो जाएगा। तब तुम आकाश को चूक जाओगे। और अपने ही मन में बंद हो जाओगे।
आकाश के संबंध में सोच-विचार मर करो; आकाश की हो जाओ। बस उसमे झांको और उसमें प्रवेश करो और उसे भी अपने में प्रवेश करने दो। अगर तुम आकाश में डूबोगे तो आकाश भी तुममें डूबने लगेगा।
यह आकाश में प्रवेश कैसे होगा? यह कैसे संभव होगा कि तुम आकाश में गति करो? आकाश में गहरे और गहरे अपलक देखते जाओ। मानो तुम उसकी सीमा खोजने की कोशिश कर रहे हो। उसकी गहराई में झाँकते जाओ। जहां तक संभव हो। यह गहराई ही अवरोध को तोड़ देगी। और इस विधि का अभ्यास कम से कम चालीस मिनट तक करना चाहिए। उससे कम में काम नहीं चलेगा। उससे कम समय करना बहुत उपयोगी नहीं होगा।
जब तुम्हें वास्तव में लगे कि तुम आकाश के साथ एक हो गए हो तो तुम आंखें बंद कर सकते हो। जब आकाश तुममें प्रवेश कर जाए तो तुम आंखें बद कर सकते हो। तब तुम उसे अपने भीतर देखने में भी सामर्थ्य हो सकते हो। तब बहार देखना जरूरी नहीं है। तो चालीस मिनट के बाद जब तुम्हें लगे कि एकता सध गई। संवाद सध गया, तुम उसके हिस्से हो गये। और अब मन नहीं है, तो तुम आंखें बंद कर सकते हो और भीतर आकाश को अनुभव कर सकते हो।
आकाश निर्मल है, शुद्ध है, अस्तित्व की शुद्धतम चीज है। कुछ भी उसे अशुद्ध नहीं करता। संसार आते है, और चले जाते है। पृथ्वीयां बनती है,और खो जाती है। लेकिन आकाश निर्मल का निर्मल बना रहता है। तो शुद्धता है; तुम्हें उसे प्रक्षेपित नहीं करना है। तुम्हें सिर्फ उसे अनुभव करना है,उसके प्रति संवेदनशील होना है। ताकि उसका अनुभव हो सके। निर्मलता तो मौजूद ही है। तुम आकाश को राह दो। तुम उसे जबरदस्ती नहीं ला सकते हो। तुम्हें उसे सिर्फ प्रेमपूर्वक राह देनी हे।
सभी ध्यान सिर्फ प्रेम पूर्वक राह देने की बात है। कभी आक्रमण की भाषा में मत सोचो; कभी जबरदस्ती मत करो। तुम जबरदस्ती कुछ भी नहीं कर सकते हो। सच तो यह है कि तुम्हारी जबरदस्ती करने की चेष्टा से ही तुम्हारे सभी दुःख निर्मित हुए है। जबरदस्ती कुछ भी नहीं हो सकता है। लेकिन तुम चीजों को घटित होने दे सकते हो। स्त्रैण बनो; चीजों को घटित होने दो। निष्क्रिय बनो। आकाश पूर्णत: निष्क्रिय है, कुछ भी तो नहीं करता है। बस है। तुम भी निष्क्रिय होकर आकाश को देखते रहो। खुल ग्रहण शील, स्त्रैण अपनी और से किसी तरह की भी जल्दबाजी किए बिना। और तब आकाश तुममें उतरेगा।
‘ग्रीष्म ऋतु में जब तुम समस्त आकाश को अंतहीन निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।’
लेकिन अगर ग्रीष्म ऋतु न हो तो तुम क्या करोगे? अगर आकाश में बादल हों,आकाश साफ न हो। तो अपनी आंखे बंद कर लो और आंतरिक आकाश को देखो। आंखे बंद कर लो अगर कुछ विचार दिखाई पड़े तो उन्हें वैसे ही देखा जैसे कि आकाश में तैरते बादल हो। पृष्ठभूमि के प्रति, आकाश के प्रति सजग हो जाओ। और बादलों के प्रति उदासीन रहो।
हम विचारों से इतने जुड़ रहते है कि बीच के अंतरालों के प्रति कभी ध्यान नहीं दे पाते है। एक विचार गुजरता है और इसके पहले कि दूसरा विचार प्रवेश करे, वहां एक अंतराल होता है। उस अंतराल में ही आकाश की झलक है। जब विचार नहीं होता है तो क्या होता है? एक शून्यता होती है। एक खालीपन होता है। अगर आकाश बादलों से आच्छादित है—ग्रीष्मऋतु नहीं है और आकाश साफ नहीं है—तो अपनी आंखें बंद कर लो और पृष्ठभूमि पर मन को एकाग्र करो; उस आंतरिक आकाश पर ध्यान करो जिस पर विचार आते-जाते है। विचारों पर बहुत ध्यान मत दो; उस आकाश पर ध्यान दो जि पर विचार की भाग-दौड़ होती है।
उदाहरण के लिए हम लोग एक कमरे में बैठे है। मैं इस कमरे को दो ढंगों से देख कसता हूं। एक कि मैं तुम्हें देखू और उस स्थान के प्रति उदासीन रहूँ जिसमें तुम बैठे हो। उस कमरे के प्रति तटस्थ रहूँ जिसमें तुम बैठे हो। मैं तुम्हें देखता हूं, मेरा ध्यान तुम पर है। उस खाली स्थान पर नहीं जिसमें तुम बैठे हो। अथवा मैं अपने दृष्टि कोण बदल लेता हूं और कमरे को, उसके खाली स्थान को देखता हूं और तुम्हारे प्रति उदासीन हो जाता हूं। तुम यही हो, लेकिन मेरा ध्यान, मेरा फोकस कमरे पर चला गया है। तब सारा परिप्रेक्ष्य बदल जाता है।
यही आंतरिक जगत में करो; आकाश पर ध्यान दो। विचार वहां चल रहे है, उसके प्रति उदासीन हो जाओ। उन पर कोई ध्यान मत दो वह है, चल रहे है, देख लो कि ठीक है, विचार चल रहे है। सड़क पर लोग चल रहे है; देख लो और उदासीन रहो। यह मत देखो कि कौन जा रहा है। इतना भर जानों कि कुछ गुजर रहा है। और उस स्थान के प्रति सजग होओ जिसमें गति हो रही है। तब ग्रीष्म ऋतु का आकाश भीतर घटित होगा।
ग्रीष्म ऋतु की प्रतीक्षा की जरूरत नहीं है। अन्यथा हमारा मन ऐसा है कि वह कोई भी बहाना पकड़ ले सकता है। वह कहेगा कि अभी ग्रीष्म ऋतु नहीं है। और यदि ग्रीष्म ऋतु भी हो तो वह कहेगा की आकाश निर्मल नहीं है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-चार
प्रवचन-49