अनुभव करो: मेरा विचार,मैं-पन, आंतरिक इंद्रियाँ—मुझ
यह बहुत ही सरल विधि है और अति सुंदर भी।
पहली बात यह है कि विचार नहीं करना है, अनुभव करना है। विचार करना और अनुभव करना दो भिन्न-भिन्न आयाम है। और हम बुद्धि से इतनी ग्रस्त हो गए है कि जब हम यह भी कहते है कि हम अनुभव करते है तो भी हम अनुभव नही करते,सोच-विचार ही करते है। तुम्हारा भाव-पक्ष, तुम्हारा ह्रदय-पक्ष, बिलकुल बंद हो गया है। मुर्दा हो गया है। जब तुम कहते हो कि, ‘मैं तुम्हें प्रेम करता हूं।’ तो भी वह भाव नहीं होता, विचार ही होता है।
और भाव और विचार में फर्क क्या है? अगर तुम भाव करोगे तो तुम अपने को ह्रदय के पास केंद्रित अनुभव करोगे। अगर मैं कहता हूं कि तुम्हें मैं प्रेम करता हूं तो मेरा यह प्रेम का भाव मेरे ह्रदय से प्रवाहित होगा। उसका स्त्रोत कहीं ह्रदय के आसपास होगा। और अगर वह विचार मात्र होगा तो वह सिर से आता होगा। जब तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो तो यह महसूस करने की कोशिश करो कि यह प्रेम सिर से आ रहा है या ह्रदय से।
जब भी तुम किसी प्रगाढ़ भाव में होते हो तो तुम सिर के बिना होते हो। उस क्षण कोई सिर नहीं होता है; हो भी नहीं सकता। तब ह्रदय तुम्हारा समस्त अस्तित्व होता है—मानों सिर है ही नहीं। भाव की अवस्था में ह्रदय तुम्हारे होने का केंद्र होता है।
जब तुम सोच-विचार कर रहे होते हो तब सिर तुम्हारे होने का केंद्र होता है। और क्योंकि विचार करना जीने के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। इसलिए हमने और सब कुछ बंद कर दिया। हमारे जीवन के अन्य सभी आयाम बंद हो गये है। हम सिर ही सिर रह गये है। और हमारे शरीर सिर के आधार भर है। हम सोच विचार ही करते रहते है। हम अपने भावों के बारे में भी विचार ही करते रहते है।
तो भाव में उतरने की कोशिश करो। तुम्हें थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी; क्योंकि भाव की क्षमता करो। भाव का गुण कुंठित पडा है। उस संभावना का द्वार पुन: खोलने के लिए तुम्हें कुछ करना होगा।
तुम एक फूल को देखते हो, और देखते ही कहते हो कि यह सुंदर है। थोड़ा रुको, जरा प्रतीक्षा करो। जल्दी निर्णय मत करो। प्रतीक्षा करो। और फिर देखो कि कहीं तुमने सिर से ही तो यह नहीं कह दिया कि यह सुंदर है। क्या है तुमने यह अनुभव किया है? क्या सिर्फ यह आदतवश तो नहीं? क्योंकि तुम जानते हो कि गुलाब सुंदर होता है। गुलाब को सुंदर समझा जाता है। लोग कहते है कि यह सुंदर है और तुमने भी अनेक बार कहा है कि सुंदर है।
जैसे ही तुम गुलाब को देखते हो, मन आगे आ जाता है। मन कहता है कि यह सुंदर है। बात खत्म हुई। अब गुलाब से कोई संपर्क नहीं रहा। उसकी जरूरत न रही; तुमने कह दिया। अब तुम अन्यत्र जा सकते हो। गुलाब से कोई मिलन न हुआ; मन ने तुम्हें गुलाब की एक झलक भी नहीं मिलने दी। मन बीच में आ गया और ह्रदय गुलाब के संपर्क में न आ सका।
केवल ह्रदय कह सकता है कि यह सुंदर है या नहीं। क्योंकि सौंदर्य एक भाव है, कोई विचार नहीं है। तुम बुद्धि से नहीं कह सकते कि यह सुंदर है। कैसे कह सकते हो? सौंदर्य कोई गणित नहीं है; वह गणनातित है। और सौंदर्य वस्तुत: केवल गुलाब में नहीं है। क्योंकि संभव है कि किसी अन्य के लिए वह जरा भी सुंदर न हो। और कोई अन्य उसे देखे बिना ही उसके पास से गुजर जाए। और यह भी संभव है कि किसी अनय के लिए गुलाब कुरूप हो। तो सौंदर्य केवल गुलाब में नहीं है। सौंदर्य तो ह्रदय ओर गुलाब के मिलन में है। जब ह्रदय गुलाब से मिलता है तो सौदर्य का फूल खिलता है। जब ह्रदय किसी चीज के प्रगाढ़ संपर्क से आता है तो बड़ी अद्भुत घटना घटती है।
जब तुम किसी व्यक्ति के प्रगाढ़ संपर्क में आते हो तो वह व्यक्ति सुंदर हो जाता है। और यह मिलन जितना ज्यादा गहरा होता है उतना ही ज्यादा सौंदर्य प्रकट होता है। तो सौंदर्य वह भाव है जो ह्रदय को घटित होता है। मस्तिष्क को नहीं। सौंदर्य कोई हिसाब-किताब नहीं है और न सौंदर्य को परखने की कोई कसौटी है। वह एक भाव है। यदि मैं कहूं कि गुलाब सुंदर नहीं है। तो तुम विवाद नहीं कर सकते हो, कि क्यों? विवाद करने की जरूरत भी नहीं है। तुम कहोगे: ‘यह तुम्हारा भाव है। और गुलाब सुंदर है—यह मेरा भाव है।’ वहां विवाद का कोई प्रश्न ही नहीं है। मस्तिष्क विवाद कर सकता है, ह्रदय विवाद नहीं कर सकता। बात वहीं खत्म हो गई: पूर्ण विराम आ गया। अगर मैं कहता हूं कि यह मेरा भाव है, तो विवाद की जरूरत ही नहीं है।
सिर के तल पर विवाद जारी रह सकता है। और फिर हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते है। ह्रदय के तल पर निष्कर्ष पहले ही आ चुका है। ह्रदय से निष्कर्ष तक पहुंचने की कोई प्रक्रिया नहीं है। कोई विधि नहीं है। उसका निष्कर्ष तत्काल होता है। तुरंत होता है। सिर से निष्कर्ष पर पहुचने की एक प्रक्रिया है, एक व्यवस्था है: तुम तर्क करते हो, तुम विवाद करते हो, तुम विश्लेषण करते हो, और तब निष्कर्ष पर पहुंचते हो कि ऐसा है या नहीं। ह्रदय के लिए यह तात्कालीन घटना है; निष्कर्ष पहले ही आ जाता है।
सिर के तल पर विवाद जारी रहा सकता है और फिर हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते है। ह्रदय के तल पर निष्कर्ष पहले ही आ चुका है। ह्रदय से निष्कर्ष पर पहुंचने की कोई प्रक्रिया नही है। कोई विधि नहीं है। उसका निष्कर्ष तत्काल होता है। तत्क्षण होता है। तुरंत होता है। सिर के निष्कर्ष पर पहुंचने की एक प्रक्रिया है। एक व्यवस्था है; तुम तर्क करते हो, तुम विवाद करते हो, तुम विश्लेषण करते हो, और तब निष्कर्ष पर पहुंचते हो कि ऐसा है या नहीं है। ह्रदय के लिए यह तात्कालिक घटना है; निष्कर्ष पहले ही आ जाता है।
इस पर गौर करो। सिर के तल पर निष्कर्ष अंत में आता है; ह्रदय के तल पर निष्कर्ष पहले ही आता है। ह्रदय से तुम निष्कर्ष पहले ले लेते हो और तब तुम प्रक्रिया खोजते हो। यह प्रक्रिया खोजना सिर का काम है।
तो ऐसी विधियों के प्रयोग में पहली कठिनाई यह है कि तुम्हें यही पता नहीं है कि भाव क्या है। पहले भाव को विकसित करने की कोशिश करो। जब तुम किसी चीज को छुओ तो आंखें बंद कर लो—विचार मत करो। अनुभव करो। उदाहरण के लिए,मैं तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेता हूं, और कहता हूं कि आंखें बंद करो और महसूस करो कि क्या हो रहा है। तो तुम तुरंत कहोगे कि आपका हाथ मेरे हाथ में है।
लेकिन यह भाव नहीं हे। यह विचार है। मैं फिर कहता हूं: ‘विचार नहीं, अनुभव करो।’ तब तुम कहते हो: ‘आप प्रेम प्रकट कर रहे है।’ वह भी विचार है। अगर मैं फिर जोर दूँ और आपसे कहूं की अनुभव करो। सिर को बीच में मत लाओ। बताओ की ठीक-ठीक क्या अनुभव हो रहा है। तो ही तुम कुछ अनुभव कर पाओगे। और कहोगे: ‘उष्मा अनुभव कर रहा हूं।’
क्योंकि प्रेम भी एक निष्पत्ति है। ‘आपका हाथ मेरे हाथ में है।’ यह सिर से निकला हुआ विचार है। सच्ची बात यह है कि मेरे हाथ से तुम्हारे हाथ में या तुम्हारे हाथ से मेरे हाथ में एक उष्मा प्रवाहित हो रही है। हमारी जीवन-ऊर्जाओं का मिलन हो रहा है। और मिलन का बिंदु उष्मा से भरा है। यह भाव है। अनुभव है, संवेदना है। यह यथार्थ है।
लेकिन हम निरंतर सिर में रहते है। वह हमारी आदत हो गई है। हमें उसका ही प्रशिक्षण मिला है। तो तुम्हें अपने बंद ह्रदय को फिर से खोलना होगा।
भावों के साथ रहने की चेष्टा करो। दिन में कभी-कभी—जब तुम कोई धंधा नहीं कर रहे हो। क्योंकि धंधे में व्यस्त रहकर शुरू-शुरू में भावों के साथ जीना कठिन होगा। वहां सिर बहुत कुशल सिद्ध हुआ है और वहां भावों का भरोसा नहीं किया जा सकता है। लेकिन जब तुम अपने घर पर बच्चों के साथ खेल रहे हो तो वहां सिर की जरूरत नहीं है—यह धंधा नहीं है। लेकिन तुम तो वहां भी अपने सिर को अलग नहीं करते हो।
तो अपने बच्चों के साथ खेलते हुए,या अपनी पत्नी के साथ बैठे हुए,या कुछ भी न करते हुए, कुर्सी पर विश्राम करते हुए—भाव में जीओं, अनुभव करो। कुर्सी की बुनावट को अनुभव करो, तुम्हारा हाथ कुर्सी को स्पर्श कर रहा है। तुम्हें कैसा अनुभव हो रहा है। हवा चल रही है। हवा अंदर आ रही है, वह तुम्हें स्पर्श कर रही है, तुम्हें कैसा महसूस हो रहा है। रसोईघर से गंध आ रही है; वह कैसी लग रही है। उसे महसूस करो;उस पर विचार मत करो। सोच-विचार मत करने लगो कि रसोईघर में कुछ पक रहा हे। तब तुम उसके बारे में सपना देखने लगोगे। नहीं, तो भी तथ्य है उसे महसूस करो। और तथ्य के साथ रहो; विचार में मत भटकों।
तुम चारों और से घटनाओं से घिरे हो; तुम्हारी तरफ चारों और से बहुत कुछ आ रहा है। तुमसे आकर मिल रहा है। सभी और से अस्तित्व तुमसे मिलने के लिए आ रहा है। तुम्हारी सभी इंद्रियों से होकर तुममें प्रवेश कर रहा है। लेकिन तुम हो कि अपने सिर में बंद हो। तुम्हारी इंद्रियाँ मुर्दा हो गई है। वे कुछ भी महसूस नहीं करती है।
तो इसके पहले कि तुम यह विधि प्रयोग करो, थोड़ा संवेदना का विकास जरूरी है। क्योंकि यह आंतरिक प्रयोग है। जब तुम बाह्य को ही नहीं अनुभव कर सकते तो तुम्हारे लिए आंतरिक को अनुभव करना बहुत कठिन है। क्योंकि आंतरिक सूक्ष्म है; अगर तुम स्थूल को नहीं अनुभव कर सकते तो सूक्ष्म को कैसे कर सकते हो। अगर तुम ध्वनियों को नहीं सून सकते हो तो आंतरिक मौन को, निशब्द को, अनाहत नाद को सुनना कठिन होगा। बहुत कठिन होगा। वह बहुत ही सूक्ष्म है।
तुम बग़ीचे में बैठे हो और सड़क पर ट्रैफिक है, शोरगुल है और तरह-तरह की आवाजें आ रही है। तुम अपनी आंखें बंद कर लो और वहां होने वाली सबसे सूक्ष्म आवाज को पकड़ने की कोशिश करो। कोई कौआ कांव-कांव कर रहा है; कौए की इस कांव-कांव पर अपने को एकाग्र करो। सड़क पर यातायात का भारी शोर है। इसमें कौए की आवाज इतनी धीमी हे, इतनी सूक्ष्म है कि जब तक तुम अपने बोध को उस पर एकाग्र नहीं करोगे तुम्हें उसका पता नहीं चलेगा। लेकिन अगर तुम एकाग्रता से सुनोंगे तो सड़क का सारा शोरगुल दूर हट जाएगा। और कौए की आवाज केंद्र बन जाएगी। और तुम उसे सुनोंगे, उसके सूक्ष्म भेदों को भी सुनोंगे। वह बहुत सूक्ष्म है। लेकिन तुम उसे सुन पाओगे।
तो अपनी संवेदनशीलता को बढ़ाओं। तब कुछ स्पर्श करो। जब कुछ सुनो, जब भोजन करो,जब स्नान करो तो अपनी इंद्रियों को खुला रहने दो। और विचार मत करो। अनुभव करो। तुम स्नान कर रहे हो; अपने ऊपर गिरते हुए पानी की ठंडक को महसूस करो। उस पर विचार मत करो। यह मत कहो कि पानी ठंडा है। बहुत अच्छा है। कुछ मत कहो, काई शब्द मत दो। क्योंकि जैसे ही तुम शब्द देते हो, तुम अनुभव से चूक जाते हो। जैसे ही शब्द आते है, मन सक्रिय हो जाता है। कोई शब्द मत दो। शीतलता को अनुभव करो,मगर यह मत कहो कि पानी ठंडा है। कुछ कहने की जरूरत नहीं है।
लेकिन हमारा मन विक्षिप्त है; हम कुछ न कुछ कहे ही चले जाते है।
मुझे स्मरण है, मैं एक विश्वविद्यालय में था। मेरे साथ वहां एक महिला प्रोफेसर भी थी जो लगातार कुछ न कुछ बोलती ही रहती थी। उसके लिए असंभव था की वह कभी भी चुप रहे। एक दिन मैं कालेज के बरामदे में खड़ा था और सूर्यास्त हो रहा था। अत्यंत सुंदर सूर्यास्त था। और वह स्त्री ठीक मेरे बगल में खड़ी थी। मैंने कहा: ‘देखो।’ वह कुछ बोल रही थी, तो मैंने उससे कहा: ‘देखो कैसा सुंदर सूर्यास्त है।’ बह बहुत अनिच्छा से देखने को राज़ी हुई। फिर उसने कहा: ‘क्या आप नहीं सोचते की बायी और यदि कुछ और जामुनी रंग रहता तो ठीक था।’ यह कोई चित्र नहीं था असली सूर्यास्त था।
हम लगातार बोलते रहते थे। और हमें यह भी बोध नहीं रहता कि हम क्या बोल रहे है। मन की इस सतत बातचीत को बंद करो तो ही तुम अपने भावों को प्रगाढ़ कर सकते हो। और अगर भाव प्रगाढ़ हो तो यह विधि तुम्हारे लिये चमत्कार कर सकती है।
‘अनुभव करो: मेरा विचार……।’
आंखों को बंद कर लो और विचार को अनुभव करो। विचारों की सतत धारा चल रही है; विचारों का एक प्रवाह, एक धारा बही जा रही है। इन विचारों को अनुभव करो। और उनकी उपस्थिति को अनुभव करो। तुम जितना ही उन्हें अनुभव करोगे, वे उतने ही अधिक प्रकट होंगे। पर्त दर पर्त, न सिर्फ वे विचार प्रकट होंगे जो सतह पर है; उनके पीछे और भी विचारों की पर्तें है; और उनके पीछे भी और पर्तें है—पर्तों पर पर्तें।
और विधि कहती है, ‘अनुभव करो, मेरा विचार।’
और हम कहे चले जाते है: ‘ये मेरे विचार है।’ लेकिन अनुभव करो: क्या वे सचमुच तुम्हारे विचार है। क्या तुम कह सकते हो कि वे मेरे है? तुम जितना ही अनुभव करोगे। उतना ही तुम्हारे लिए वह कहना कठिन होगा कि वे मेरे है। वे सब उधार है; वे सब बाहर से आए है। वे तुम्हारे पास आए है। लेकिन वे तुम्हारे नहीं है। कोई विचार तुम्हारा नहीं है। वह धूल है जो तुम पर आ जमी है। चाहे तुम्हें यह पता हो या न हो। कि स्त्रोत से यह विचार आया है। तो भी विचार तुम्हारा नहीं है। और अगर तुम पूरी चेष्टा करोगे तो तुम जान लोगे कि यह विचार कहीं से आया है।
सिर्फ आंतरिक मौन तुम्हारा है। किसी ने तुम्हें यह नहीं दिया है। तुम इसके साथ ही पैदा हुए थे। और इसके साथ ही तुम मरोगे। विचार तुम्हें दिए गये है। तुम उनसे संस्कारित हो। अगर तुम हिंदू हो तो तुम्हारे विचार एक तरह के है। अगर तुम मुसलमान हो तो तुम्हारे विचार और तरह के है। और अगर तुम कम्युनिस्ट हो तो तुम्हारे विचार कुछ और ही है। वे तुम्हें दिये गये है। या संभवत: तुमने उन्हें स्वेच्छा से ग्रहण किया हुआ है। लेकिन कोई विचार तुम्हारा नहीं है।
अगर तुम विचारों की उपस्थिति, उनकी भीड़ की उपस्थिति महसूस कर सको तो तुम यह भी महसूस करोगे कि वे विचार मेरे नहीं है। यह भीड़ बाहर से तुम्हारे पास आई है। यह तुम्हारे चारों तरफ इकट्ठी हो गई है। लेकिन यह तुम्हारी नहीं है। और अगर तुम्हें यह अनुभव हो कि कोई विचार मेरा नहीं है। तो ही तुम मन को अपने से अलग कर सकते हो। अगर वे विचार तुम्हारे है तो तुम उनका बचाव करोगे। यह भाव कि यह विचार मेरा है। यही तो आसक्ति है। लगाव है। तब मैं उसे अपने भीतर जड़ें देता हूं, तब मैं जीवन बन जाता हूं और विचार मुझमें जड़ें जमा सकता है। और जब मैं देखता हूं कि कोई विचार मेरा नहीं है तो वह निर्मूल हो जाता है। उखड़़ जाता है,तब मेरा उससे कोई लगाव नहीं रहता है। ‘मेरे’ का भाव ही लगाव पैदा करता है।
तुम अपने विचारों के लिए लड़ सकते हो। तुम अपने विचारों के लिए शहीद हो सकते हो। तुम अपने विचारों के लिए हत्या कर सकते हो। खून कर सकते हो। और विचार तुम्हारे नहीं है। चैतन्य तुम्हारा है: लेकिन विचार तुम्हारे नहीं है। और क्योंकि इस बोध से मदद मिलती है?
अगर तुम देख सको कि विचार मेरे नहीं है तो कुछ भी तुम्हारा नहीं रह जाता है। क्योंकि विचार ही हर चीज की जड़ में है। मेरा घर, मेरी संपति, मेरा परिवार—ये चीजें तो बाहरी है। लेकिन गहरे में विचार मेरे है। अगर विचार मेरे है तो ही ये चीजें, इनका विस्तार, इनका फैलाव मेरा हो सकता है। अगर विचार मेरे नहीं है तो कुछ भी महत्व का न रहा। क्योंकि यह भी एक विचार ही है। कि तुम मेरी पत्नी हो। कि तुम मेरे पति हो। यह भी एक विचार ही है। और अगर बुनियादी तौर से विचार ही मेरा नहीं है तो पत्नी मेरी कैसे हो सकती है। या पति मेरा कैसे हो सकता है। विचार के मिटते ही सारा संसार मिट जाता है। तब तुम संसार में रह कर भी संसार में नहीं रहते हो।
तुम हिमालय चले जा सकते हो, तुम संसार छोड़ सकते हो, लेकिन अगर तुम सोचते हो कि विचार मेरे है तो तुम कहीं नहीं गए। तुम वहीं हो। हिमालय में बैठे हुए तुम संसार में उतने ही होगे जितने यहां रह कर हो। क्योंकि विचार संसार है। तुम हिमालय में भी अपने विचार साथ लिए जाते है। तुम घर छोड़ देते हो, लेकिन असली घर अंदर है। असली घर विचार की ईटों से बना है। बाहर का घर असली घर नहीं है।
यह अजीब बात है, लेकिन यह रोज ही घटती है। मैं एक व्यक्ति को देखता हूं कि उसने संसार छोड़ दिया और फिर भी वह हिंदू ही है। वह संन्यासी हो जाता है। और फिर भी हिन्दू जैन बना रहा था। इसका क्या मतलब है। यह संसार का त्याग कर देता है। लेकिन विचारों का त्याग नहीं करता। वह अभी भी जैन है। वह अभी भी हिंदू है। उसका विचारों का संसार अभी भी कायम है। और विचारों का संसार ही असली संसार है।
अगर तुम देख सको कि कोई विचार मेरा नहीं है……ओर तुम देख सकोगे। क्योंकि तुम द्रष्टा होगे, और विचार विषय बन जाएंगे। जब तुम शांत होकर विचारों का निरीक्षण करोगे तो विचार विषय होंगे और तुम देखने वाले होगे। तुम द्रष्टा होंगे। तुम साक्षी होगे और विचार तुम्हारे सामने तैरते रहेंगे।
और अगर तुम गहरे देख सके, गहरे अनुभव कर सके। तो तुम देखोगें कि विचारों की कोई जड़ें नहीं है। तुम देखोगें कि विचार आकाश में बादलों की भांति तैर रहे है और तुम्हारे भीतर उसकी कोई जड़ें नहीं है। वे आते है और चले जाते है। तुम नाहक उनके शिकार हो गये हो। नाहक तुम्हारा उनके साथ तादात्म्य हो गया है। विचार का जो भी बादल तुम्हारे घर से गुजरता है, तुम कहते हो कि यह मेरा बादल है।
विचार बादलों जैसे है। तुम्हारी चेतना के आकाश से वे गुजरते रहते है और तुम उनसे लगाव निर्मित करते रहते हो। तुम कहते हो कि यह बादल मेरा है। और सिर्फ एक आवारा बादल है, जो गुजर रहा है। और यह गुजर जाएगा।
अपने बचपन में लोटों। उस समय भी तुम्हारे कुछ विचार थे। और उनसे तुम्हारा लगाव था। और तुम कहते थे कि वे मेरे विचार है। और फिर बचपन विदा हो गया। और बचपन के साथ वे विचार, वे बादल भी विदा हो गये। अब वे तुम्हें याद भी नहीं है। फिर तुम जवान हुए। और तब दूसरे बादल आए, जो जवानी से आकर्षित होकर आते है। और तुमने उनसे भी अपना लगाव बनाया। और अब तुम बूढ़े हो। जवानी के विचार अब नहीं है; वे अब तुम्हें याद तक नहीं है। और कभी वे इतने महत्वपूर्ण थे कि तुम उनके लिए जान तक दे सकते थे। वे अब याद तक नहीं है। अब तुम अपनी उस मूढ़ता पर हंस सकते हो। तुम उसके लिए मर सकते थे। कि तुम उसके लिए शहीद हो सकते थे। अब तुम उनके लिए दो कौड़ी भी खर्च करने को राज़ी नहीं हो। वे अब तुम्हारे न रहे। वे बादल चले गए। लेकिन उनकी जगह दूसरे बादल आ गए है और तुम उन्हें पकड़कर बैठ गए हो।
बादल बदलते रहते है, लेकिन तुम्हारा लगाव, तुम्हारी पकड़ नहीं बदलती। यही समस्या है। और ऐसा नहीं है कि तुम्हारे बचपन के जाने पर ही बादल बदलते है। वे प्रतिपल बदल रहे है। एक मिनट पहले तुम एक तरह के बादलों से घिरे थे, अब तुम और तरह के बादलों से घिरे हो। जब तुम यहां आये थे, एक तरह के बादल तुम पर मंडरा रहे थे। जब तुम यहां से जाओगे, दुसरी तरह के बादल मंडराएंगे। और तुम प्रत्येक बादल के साथ चिपक जाते हो। उससे लगाव बना लेते हो। अगर अंत में तुम्हारे हाथ कुछ भी नहीं आता है तो यह स्वाभाविक है,क्योंकि बादलों से क्या मिल सकता है? और विचार बादल ही है।
यह विधि जड़ से ही शुरू करती है। और विचार ही सबकी जड़ है। अगर ‘मेरे’ के भाव को उसकी जड़ में ही काट सको तो वह फिर प्रकट नहीं होगा—वह फिर कहीं नहीं दिखाई पड़ेगा। और अगर तुम उसे जड़ से नहीं काटते हो तो फिर और कहीं काटने से कुछ नहीं होगा—चाहे तुम जितना काटो वह व्यर्थ होगा; वह फिर-फिर प्रकट होता रहेगा।
मैं उसे काट सकता हूं; मैं कह सकता हूं कि कोई मेरी पत्नी नहीं है। हम लोग अजनबी है और विवाह तो केवल एक सामाजिक औपचारिकता है। मैं अपने को अलग कर लेता हूं; मैं कहता हूं कि कोई मेरी पत्नी नहीं है। लेकिन यह बात बहुत सतही है। फिर मैं कहता हूं: मेरा धर्म। फिर मैं कहता हूं: मेरा संप्रदाय। मैं कहता हूं: यह मेरा धर्मग्रंथ, यह बाईबिल है, यह कुरान है, यह मेरा शास्त्र है। इस तरह ‘मेरे’ का भाव किसी दूसरे क्षेत्र में जारी रहता है। और तुम वही के वही रहते हो।
‘मेरा विचार’ और तब ‘मैं-पन’। पले विचारों की श्रंखला को देखो। विचारों की प्रक्रिया को देखो,विचारों के प्रवाह को देखो। और खोजों कि कौन से विचार तुम्हारे है, या कि वे भटकते बादल भर है। और जब तुम्हें प्रतीत हो कि काई विचार तुम्हारे नहीं है। विचारों से ‘मेरे’ को जोड़ना ही भ्रम है। तो तुम आगे बढ़ सकते हो। तब तुम और गहरे उतर सकते हो। तब मैं-पन के प्रति होश साधो। यह ‘’मैं’’ कहा है?
रमण अपने शिष्यों को एक विधि देते थे। उनके शिष्य पूछते थे: ‘मैं कौन हूं?’ तिब्बत में भी वे एक ऐसी ही विधि का उपयोग करते है जो रमण की विधि से भी बेहतर है। वे यह नहीं पूछते थे कि मैं कौन हुं। वे पूछते थे कि ‘मैं कहां हूं?’ क्योंकि ये ‘कौन’ समस्या पैदा कर सकता है। जब तुम पूछते हो कि ‘मैं कौन हूं?’ तो तुम यह तो मान हीलेते हो कि मैं हूं, इतना ही जानना है कि मैं कौन हूं। अब प्रश्न इतना ही है कि मैं कौन हूं। केवल प्रतिभिक्षा होनी है, सिर्फ चेहरा पहचानना है; लेकिन वह है—अपरिचित ही सही, पर वह है।
तिब्बती विधि रमण की विधि से बेहतर है। तिब्बती विधि कहती है कि मौन हो जाओ और खोजों कि मैं कहां हूं। अपने भीतर प्रवेश करो। एक-एक कोन कातर में जाओ और पूछो: ‘मैं कहां हूं?’ तुम्हें ‘मैं’ कहीं नहीं मिलेगा। तुम उसे कहीं नहीं पाओगे। तुम उसे जितना ही खोजोगे उतना ही वह वहां नहीं होगा।
और यह पूछते-पूछते कि ‘मैं कौन हूं?’ या की मैं ‘कहां हूं?’ एक क्षण आता है जब तुम उस बिंदु पर होते हो जहां तुम तो होते हो, लेकिन कोई ‘मैं’ नहीं होता। जहां तुम बिना किसी केंद्र के होते हो। लेकिन यह तभी घटित होगा जब तुम्हारी अनुभूति हो कि विचार तुम्हारे नहीं है। यह ज्यादा गहन क्षेत्र है–यह ‘मैं’-पन’।
हम इसे कभी अनुभव नहीं करते है। हम सतत ‘मैं-मैं’ करते रहते है। ‘मैं’ शब्द का निरंतर उपयोग होता रहता है। जो शब्द सर्वाधिक उपयोग में किया जात है वह ‘मैं’ है। लेकिन तुम्हें उसका अनुभव नहीं होता। ‘मैं’ से तुम्हारा क्या मतलब है? जब तुम कहते हो मैं तो उससे क्या मतलब है। मैं इशारा कर सकता हूं और कह सकता हूं कि मेरा मतलब यह है। मैं अपने शरीर की तरफ इशारा कर सकता हूं। और कह सकता हूं कि मेरा मतलब यह है1 लेकिन तब यह पूछा जा सकता है कि तुम्हारा मतलब हाथ से है। कि तुम्हारा मतलब पैर से है। कि तुम्हारा मतलब पेट से है। तब मुझे इनकार करना पड़ेगा; मुझे नहीं कहना पड़ेगा। और इस तरह मुझे पूरे शरीर को ही इंकार करना होगा। तो फिर तुम्हारा क्या मतलब है जब तुम ‘मैं’ कहते हो। क्या तुम्हारा मतलब सिर से है? कहीं गहरे में जब भी तुम ‘मैं’ कहते हो,एक बहुत धुंधला-सा, अस्पष्ट सा भाव होता है। और यह अस्पष्ट भाव तुम्हारे विचारों का है।
भाव में स्थित होकर, विचारों से पृथक होकर इस ‘मैं-पन’ का साक्षात करो, इसे सीधे-सीधे देखो। और जैसे-जैसे तुम उसका साक्षात करते हो तुम पाते हो कि वह नहीं है। वह सिर्फ एक उपयोगी शब्द था। भाषागत प्रतीक था। आवश्यक था; लेकिन वह सत्य नहीं था। बुद्ध भी उसका उपयोग करते है। बुद्धत्व को उपलब्ध होने के बाद भी वे उसका उपयोग करते है। यह सिर्फ एक कामचलाऊ उपाय है। लेकिन जब बुद्ध ‘मैं’ कहते है तो उसका मतलब अहंकार नहीं होता,क्योंकि वहां कोई भी नहीं है।
जब तुम इस ‘मैं-पन’ का साक्षात करोगे तो यह विलीन हो जाएगा। इस क्षण में तुम्हें भय पकड़ सकता है। तुम आतंकित हो सकते हो। और यह अनेक लोगों के साथ होता है कि जब वे इस विधि में गहरे उतरते है तो वे इतने भयभीत हो जाते है कि भाग खड़े होते है।
तो यह स्मरण रहे: जब तुम अपने मैं पन का साक्षात करोगे, उसको अनुभव करोगे। तो तुम ठीक उसी स्थिति में होगे जिस स्थिति में मृत्यु के समय होगा। ठीक उसी स्थिति में क्योंकि ‘मैं’ विलीन हो रहा है। और तुम्हें लगेगा कि मेरी मृत्यु घटित हो रही है। तुम्हें डूबने जैसा भाव होगा कि मैं डूबता जा रहा हूं। और यदि तुम भयभीत हो गये। तो तुम बाहर आ जाओगे। और फिर विचारों को पकड़ लोगे; क्योंकि वे विचार सहयोगी होंगे। वे बादल वहां होंगे; तुम उनसे फिर चिपक जा सकते हो, और तुम्हारा भय जाता रहेगा।
पर स्मरण रहे, यह भय बहुत शुभ है। यह एक आशापूर्ण लक्षण है। यह भय बताता है कि तुम गहरे जा रहे हो। और मृत्यु गहनत्म बिंदू है। यदि तुम मृत्यु में उतर सके तो तुम अमृत हो जाओगे। क्योंकि जो मृत्यु में प्रवेश कर जाता है, उसकी मृत्यु असंभव है। क्योंकि जो मृत्यु में उतर जाता है, उसकी मृत्यु नहीं हो सकती। तब मृत्यु भी बाहर-बाहर है। परिधि पर है। मृत्यु कभी केंद्र पर नहीं है। वह सदा परिधि पर है। जब मैं पन विदा होता है तो तुम ठीक मृत्यु जैसे ही हो जाते हो। पुराना गया और नये का आगमन हुआ।
यह चैतन्य, जो मैं-पन के जाने पर आता है, सर्वथा नया है। अछूता है, युवा है, कुंआरा है। पुराना बिलकुल नहीं बचा और पुराने ने इसे स्पर्श भी नहीं किया है। वह मैं-पन विलीन हो जाता है और तुम अपने अछूते कुंआरापन में, अपनी संपूर्ण ताजगी में प्रकट होते हो। तुमने अस्तित्व का गहरे से गहरातल छू लिया है।
तो इस तरह सोचो: विचार, उसके नीचे मैं-पन, उसके नीचे तीसरी चीज:
‘अनुभव करो: मेरा विचार, मैं-पन, आंतरिक इंद्रियाँ—मुझ।’
जब विचार विलीन हो चुके है या उन पर तुम्हारी पकड़ छूट गई है—वे चल भी रहे हों तो उनसे तुम्हें लेना-देना नहीं है। तुम पृथक, अनासक्त और विमुक्त हो—और मैं-पन भी विदा हो गया है, तब तुम आंतरिक इंद्रियों को देखते हो।
ये आंतरिक इंद्रियाँ—यह सबसे गहरी बात है। हम अपने बाह्म इंद्रियों को जानते है। हाथ से मैं तुम्हें छूता हूं। आँख से देखता हूं। ये बाह्म इंद्रियां है। आंतरिक इंद्रियां वे है, जिनमें मैं अपने होने को देखता हूं। महसूस करता हूं, अनुभव करता हूं। बाह्म इंद्रियां दूसरों के लिए है। मैं बाह्म इंद्रियों के द्वारा तुम्हारे संबंध में जानता हूं।
लेकिन मैं अपने बारे में कैसे जानता हूं? ये हूं, यह भी मैं कैसे जानता हूं? मुझे मेरे होने की अनुभूति, होने की प्रतीति, होने का अहसास कौन देता है?
इसके लिए आंतरिक इंद्रियां है। जब विचार ठहर जाते है और जब मैं-पन नहीं बचता है तो उस शुद्धता में, उस स्पष्टता में तुम आंतरिक इंद्रियों को देख सकते हो।
चैतन्य, प्रतिभा, मेधा—ये आंतरिक इंद्रियां है। उनके द्वारा हमें अपने होने का, अपने अस्तित्व का बोध होता है। यही कारण है कि अगर तुम अपनी आंखें बंद कर लो तो तुम अपने शरीर को बिलकुल भूल सकते हो। लेकिन तुम्हारा यह भाव कि मैं हूं बना ही रहेगा।
और उससे ही यह बात भी समझ में आती है—और यह बात बिलकुल सच है—कि जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो हमारे लिए तो वह मर जाता है, लेकिन उसे थोड़ा समय लग जाता है इस तथ्य को पहचानने में कि मैं मर गया हूं। क्यों कि होने का आंतरिक भाव वही का वही बना रहता है।
तिब्बत में तो मरने के विशेष प्रयोग है और वे कहते है कि मरने की तैयारी बहुत जरूरी है। उनका एक प्रयोग इस प्रकार है: ‘जब भी कोई व्यक्ति मरने लगता है तो गुरु या पुरोहित, या कोई भी जो बारदो प्रयोग जानता है, उससे कहता है कि ‘स्मरण रखो, ‘’होश रखो’’ बोध बनाए रखो कि मैं शरीर छोड़ रहा हूं।‘’ क्योंकि जब तुम शरीर छोड़ देते हो तो यह समझने में थोड़ा समय लगाता है कि मैं मर गया। क्योंकि आंतरिक भाव वही का वही बना रहता है। उसमें कोई बदलाहट नहीं होती।
शरीर तो केवल दूसरों को छूने और अनुभव करने के लिए है। इसके द्वारा तुमने कभी अपने को नहीं स्पर्श किया है। न अपने को जाना है। तुम अपने को किन्हीं अनय इंद्रियों के द्वारा जाते हो। जो आंतरिक है। लेकिन हमारी मुश्किल यह है कि हमें अपने उन इंद्रियों का पता नहीं है। और हम अपने को दूसरों के द्वारा जानते है। हमारी ही नजर में हमारी जो तस्वीर है। वह दूसरों द्वारा निर्मित है। मेरे बारे में दूसरे जो कहते है, वहीं मेरी मेरे संबंध में जानकारी है। अगर वे कहते है कि तुम सुंदर हो, या अगर वे कहते है कि तुम कुरूप हो, तो मैं उस पर भरोसा कर लेता हूं। मेरे बारे में दूसरों के माध्यम से, दूसरों से प्रतिफलित होकर जो कुछ मुझे बताती है। वही मेरे संबंध में धारणा बन जाती है।
अगर तुम अपनी आंतरिक इंद्रियों को पहचान लो तो तुम समाज से बिलकुल मुक्त हो गए। यह मतलब है जब पुराने शास्त्रों में कहा जाता है कि संन्यासी समाज का हिस्सा नहीं है। क्योंकि वह अब स्वयं को आंतरिक इंद्रियों के द्वारा जानता है। अब उसका अपने संबंध में ज्ञान दूसरों के मत पर आधारित नहीं है, अब यह ज्ञान किसी के माध्यम से देखा गया प्रतिफलन नहीं है। अब उसे स्वयं को जानने के लिए किसी दर्पण की जरूरत नहीं है। उसने आंतरिक दर्पण को पा लिया है। और वह स्वयं को आंतरिक दर्पण जानता है।
और आंतरिक सत्य को तभी जाना जा सकता है जब तुमने आंतरिक इंद्रियों को पा लिया हो। और तब तुम उन आंतरिक इंद्रियों के द्वारा देख सकेत हो। और तब—‘मुझे’। इसे शब्दों में कहना गलत होगा। इस लिए ‘मुझे’ का प्रयोग किया गया है। कोई शब्द गलत होगा ‘मुझे’ भी गलत है। लेकिन मैं विलीन हो गया। स्मरण रहे, इस ‘मुझ’ को ‘मैं’ से कुछ लेना-देना नहीं है। जब ‘मुझ’ प्रकट होता है। तब पहली दफा मेरा असली होना प्रकट होता है। वह असली होना ‘मुझ’ है।
बाहरी संसार न रहा, विचार न रहे,अहंकार का भाव न रहा और मैंने अपनी आंतरिक इंद्रियों को, चैतन्य को, मेधा को, या उसे जो कुछ भी कहो, जान लिया है। तब इस आंतरिक इंद्रियों के प्रकाश में ‘मुझे’ का आवरण होता है। यह ‘मुझ’ तुम्हारा नहीं है; यह तुम्हारा अंतरतम है। यह ‘मुझ’ जागतिक है, विराट है। इस ‘मुझ’ की कोई सीमा नहीं है। इसमें सब कुछ निहित है, समाया है। यह लहर नहीं है; यह सागर ही है।
‘अनुभव करो: मेरा विचार, मैं-पन, आंतरिक इंद्रियां।‘
और तब एक अंतराल है और अचानक ‘मुझ’ प्रकट होता है। जब यह ‘मुझ’ प्रकट होता है तो व्यक्ति जानता है कि मैं ब्रह्म हूं, अहं ब्रह्मास्मि। अहंकार का दावा नहीं है। अहंकार तो जा चूका। इस विधि के द्वारा तुम अपना रूपांतरण कर सकते हो। लेकिन पहले भाव में स्थिर होओ।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-चार
प्रवचन-55