अनासक्ति—संबंधी दूसरी विधि:
‘ना-कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’
मैं यहीं कह रहा था। अगर तुम्हारे अवधान का कोई विषय नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है, तो तुम कहीं नहीं हो, या तुम सब कहीं हो। और तब तुम स्वतंत्र हो तुम स्वतंत्रता ही हो गए हो।
यह दूसरा सूत्र कहता है: ‘ना कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’
अगर तुम सोच विचार नहीं कर रहे हो तो तुम असीम हो। विचार तुम्हें सीमा देता है। और सीमाएं अनेक तरह की है। तुम हिंदू हो, यह एक सीमा है। हिंदू होना किसी विचार से, किसी व्यवस्था से, किसी ढंग ढांचे से बंधा होना है। तुम ईसाई हो, यह भी एक सीमा है। धार्मिक आदमी कभी भी हिंदू या ईसाई नहीं हो सकता। और अगर कोई आदमी हिंदू या ईसाई है तो वह धार्मिक नहीं है। असंभव है। क्योंकि ये सब बिचार है। धार्मिक आदमी का अर्थ है कि वह विचार से नहीं बंधा है। वह किसी विचार से सीमित नहीं है। वह किसी व्यवस्था से, किसी ढंग-ढांचे से नहीं बंधा है। वह मन की सीमा में नहीं जीता है—वह असीम में जीता है।
जब तुम्हारा कोई विचार है तो वह विचार तुम्हारा अवरोध बन जाता है। वह विचार सुंदर हो सकता है। लेकिन फिर भी वह बंधन है। सुंदर कारागृह भी कारागृह ही है। विचार स्वर्णिम हो सकता है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता; स्वर्णिम विचार भी तो उतना ही बाँधता है,जितना कोई और विचार बाँधता है। और जब तुम्हारा कोई विचार है, और तुम उससे आसक्त हो तो तुम सदा किसी के विरोध में हो। क्यों कि सीमा हो ही नहीं सकती, यदि तुम किसी के विरोध में नहीं हो। विचार सदा पूर्वाग्रह ग्रस्त होता है। विचार सदा पक्ष या विपक्ष में होता है।
मैंने एक बहुत धार्मिक ईसाई के संबंध में सूना है, जो कि एक गरीब किसान था। वह मित्र समाज का सदस्य था। वह क्वेकर था। क्वेकर लोग अहिंसक होते है। वे प्रेम और मैत्री में विश्वास करते है। वह क्वेकर अपनी खच्चर गाड़ी पर बैठकर शहर से गांव वापस आ रहा था। एक जगह खच्चर अचानक बिना किसी कारण के रूक गया और आगे बढ़ने से इनकार करने लगा। उसने खच्चर को ईसाई ढंग से, मैत्रीपूर्ण ढंग से, अहिंसक ढंग से फुसलाने की कोशिश की। वह क्वेकर था, वह खच्चर को मार नहीं सकता था। उसे कठोर वचन नहीं कह सकता था। उसे डांट-फटकार या गाली भी नहीं दे सकता था। लेकिन वह गुस्से से भरा था।
लेकिन खच्चर को मारा कैसे जाएं। वह उसे मारना चाहता था। तो उसने खच्चर से कहा: ‘ठीक से आचरण करो। मैं क्वेकर हूं, इस लिए मैं तुम्हें मार नहीं सकता हूं,लेकिन स्मरण रहे ऐ खच्चर, कि मैं तुम्हें किसी ऐसे आदमी के हाथ बेच तो सकता हूं जो ईसाई न हो।’
ईसाई की अपनी दूनिया है और गैर-ईसाई उसके बाहर है। कोई ईसाई यह सोच भी नहीं सकता कि कोई गैर-ईसाई ईश्वर के राज्य में प्रवेश पा सकता है। वैसे ही कोई हिंदू या जैन यह नहीं सोच सकता कि उनके अलावा कोई दूसरा आनंद के जगत में प्रवेश पा सकता है।
विचार सीमा बनता है। अवरोध खड़े करता है; और जो लोग पक्ष में नहीं है उन्हें विरोधी मान लिया जाता है। जो मेरे साथ सहमत नहीं है वे मेरे विरोध में है। फिर तुम सब कहीं कैसे हो सकते हो। तुम ईसाई के साथ हो सकते हो; तुम गैर ईसाई के साथ नहीं हो सकते। तुम हिंदू के साथ हो सकते हो; लेकिन तुम गैर हिंदू के साथ, मुसलमान के साथ नहीं हो सकते। विचार को किसी न किसी के विरोध में होना पड़ता है। चाहे वह किसी व्यक्ति के विरोध में हो या किसी वस्तु के। वह समग्र नहीं हो सकता है। स्मरण रहे, विचार कभी समग्र नहीं हो सकता; केवल निर्विचार ही समग्र हो सकता है।
दूसरी बात कि विचार मन से आता है। वह सदा मन की उप-उत्पती है। विचार तुम्हारा रुझान है, तुम्हारा अनुमान है। पूर्वाग्रह है। विचार तुम्हारी प्रतिक्रिया है। तुम्हारा सिद्धांत है। तुम्हारी धारणा है, तुम्हारी मान्यता है। लेकिन विचार अस्तित्व नहीं है। वह अस्तित्व के संबंध में है। वह स्वयं अस्तित्व नहीं है।
एक फूल है। तुम उस फूल के संबंध में कुछ कह सकते हो। वह कहना एक प्रतिक्रिया है। तुम कह सकते हो कि फूल सुंदर है, कि असुंदर है। तुम कह सकते हो कि फूल पवित्र है। लेकिन तुम फूल के संबंध में जो भी कहते हो वह फूल नहीं है। फूल का होना तुम्हारे विचारों के बिना है। और तुम फूल के संबंध में जो भी सोच विचार करते हो उससे तुम अपने ओर फूल के बीच अवरोध निर्मित कर रहे हो। फूल को होने के लिए तुम्हारे विचारों की जरूरत नहीं है। फूल बस है। अपने विचारों को छोड़ो और तब तुम फूल में डूब सकते हो।
यह सूत्र कहता है: ‘ना-कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’
अगर तुम सोच विचार में उलझे नहीं हो, अगर तुम सिर्फ हो, पूरे सजग और सावचेत हो, विचार के किसी धुएँ के बिना हो, तो तुम असीम हो।
यह शरीर ही एकमात्र शरीर नहीं है; एक गहन तर शरीर भी है। वह मन है। शरीर पदार्थ से बना है। मन भी पदार्थ से बना है; वह और सूक्ष्म से बना है। शरीर बाहरी पर्त है और मन आंतरिक पर्त है। और शरीर से अनासक्त होना बहुत कठिन नहीं है। मन से अनासक्त होना बहुत कठिन है। क्योंकि मन के साथ तुम्हारा तादात्म्य ज्यादा गहरा है। तुम मन से ज्यादा जुड़े हो।
अगर कोई तुमसे कहे कि तुम्हारा शरीर रूग्ण मालूम होता है तो तुम्हें पीड़ा नहीं होती है। तुम शरीर से उतने आसक्त नहीं हो; वह तुमसे जरा दूरी पर मालूम पड़ता है। लेकिन अगर कोई तुमसे कहे कि तुम्हारा मन रूग्ण है। अस्वस्थ मालूम होता है। तो तुम्हें पीड़ा होती है। उसने तुम्हारा अपमान कर दिया। मन से तुम अपने को ज्यादा निकट अनुभव करते हो। अगर कोई आदमी तुम्हारे शरीर के संबंध में कुछ बुरा कहे तो तुम उसे बरदाश्त करना असंभव होगा। क्योंकि उसने गहरे में चोट कर दी।
मन शरीर की भीतरी पर्त है। मन और शरीर दो नहीं है। तुम्हारे शरीर की बाहरी पर्त शरीर है। और भीतरी पर्त मन है। ऐसा समझो कि तुम्हारा एक घर है; तुम उस घर को बाहर से देख सकते हो और तुम उस घर को भीतर से देख सकते हो। बाहर से दीवारों की बाहरी पर्त दिखाई पड़ेगी; भीतर से भीतरी पर्त दिखाई पड़ेगी। मन तुम्हारी आंतरिक पर्त है। वह तुम्हारे ज्यादा निकट है। लेकिन फिर भी वह शरीर ही है।
मृत्यु में तुम्हारा बाहरी शरीर गिर जाता है। लेकिन उसका भीतरी सूक्ष्म पर्त को तुम अपने साथ ले जाते हो। तुम उससे इतने आसक्त हो कि मृत्यु भी तुम्हें तुम्हारे मन में पृथक नहीं कर पाती। मन जारी रहता है1 यहीं कारण है कि तुम्हारे पिछले जन्मों को जाना जा सकता है। तुम अभी भी अपने सभी अतीत के मनों को अपने साथ लिए हुए हो। वे सब के सब तुम में मौजूद है। अगर तुम कभी कुत्ते थे तो कुत्ते का मन अब भी तुम्हारे भीतर है। अगर तुम कभी वृक्ष थे तो वृक्ष का मन अब भी तुम्हारे साथ है। अगर तुम कभी स्त्री या पुरूष थे तो वे चित अब भी तुम्हारे भी मौजूद है। सारे के सारे चित तुम्हारे पास है। तुम उनसे इतने बंधे हो कि तुम उनकी पकड़ को नहीं छोड़ सकते।
मृत्यु में बाह्म विलीन हो जाता है। लेकिन आंतरिक कायम रहता है। वह आंतरिक शरीर बहुत ही सूक्ष्म पदार्थ है। वस्तुत: वह ऊर्जा का स्पंदन मात्र है—विचार की तरंगें। तुम उन्हें अपने साथ लिए चलते रहते हो। और तुम उन्हीं विचार तरंगों के अनुरूप फिर नए शरीर में प्रवेश करते हो। तुम अपने विचारों के ढांचे के अनुकूल अपनी कामनाओं के अनुकूल अपने मन के अनुकूल अपने लिए नया शरीर निर्मित कर लेते हो। मन में उसका ब्लू प्रिंट, उसकी रूपरेखा मौजूद है। और उसके अनुरूप बाहरी पर्त फिर बनती है।
तो पहला सूत्र शरीर को अलग करने के लिए है। दूसरा सूत्र मन को अलग करने का है, आंतरिक शरीर। मृत्यु भी तुम्हें तुम्हारे मन से अलग नहीं कर पाती; यह काम केवल ध्यान कर सकता है। यहीं कारण है कि ध्यान मृत्यु से भी बड़ी मृत्यु है; वह मृत्यु से भी गहरी शल्य-चिकित्सा है। इसलिए ध्यान से इतना भय होता है। लोग ध्यान के बारे में सतत बात करेंगे लेकिन वे ध्यान कभी करेंगे नहीं। वे बात करेंगे, वे उसके संबंध में लिखेंगे, वे उस पर उपदेश भी देंगे;लेकिन वे कभी ध्यान करेंगे नहीं। ध्यान से एक गहरा भय है। और वह भय मृत्यु का भय है।
जो लोग ध्यान करते है वे किसी न किसी दिन उस बिंदू पर पहुंच जाते है जहां वे घबड़ा जाते है। जहां से वे पीछे लौट जाते है। वे मेरे पास आते है, और कहते है: ‘अब हम आगे प्रवेश नहीं कर सकते; यह असंभव है।’ एक क्षण आता है जब व्यक्ति को लगता है कि मैं मर रहा हूं। और वह क्षण किसी भी मृत्यु से बड़ी मृत्यु का क्षण है। क्योंकि जो सबसे अंतरस्थ है वहीं अलग हो रहा है। वहीं मिट रहा है। व्यक्ति को लगता है कि मैं मर रहा हूं। उसे लगता है कि में अब अनस्तित्व में सरक रहा हूं। एक गहन अतल का द्वार खुल जाता है। एक अनंत शून्य सामने आ जाता है। वह घबरा जाता है। और पीछे लौट कर शरीर को पकड़ लेता है। ताकि मिट न जाए; क्योंकि पाँव के नीचे से जमीन खिसक रही है। और सामने एक अतल खाई खुल रही है—शून्य की खाई।
इसलिए लोग यदि चेष्टा भी करते है तो सदा ऊपर-ऊपर करते है। वे पूरी त्वरा से ध्यान नहीं करते है। कहीं अचेतन में उन्हें बोध है कि अगर हम गहरे उतरेंगे तो नहीं बचेंगे। और यही सही है। यह भय सच है। तुम फिर तुम नहीं रहोगे। एक बार तुमने उस अतल को, शून्य को जान लिया तो तुम फिर वही नहीं रहोगे जो थे। तुम उससे एक नया जीवन लेकिन लौटोगे, तुम नए मनुष्य हो जाओगे।
पुराना मनुष्य तो मिट गया; वह कहां गया, तुम्हें इसका नामों निशान भी नहीं मिलेगा। पुराना मनुष्य मन के साथ तादात्म्य में था; अब तुम मन के साथ तादात्म्य नहीं कर सकते हो। अब तुम मन का उपयोग कर सकते हो। अब तुम शरीर का उपयोग कर सकते हो। लेकिन अब मन और शरीर यंत्र है और तुम उनसे ऊपर हो। तुम उनका जैसा चाहो वैसा उपयोग कर सकते हो। लेकिन तुम उनसे तादात्म्य नहीं करते हो। यह स्वतंत्रता देता है।
लेकिन यह तभी हो सकता है जब तुम ना कुछ का विचार करो। ‘ना कुछ का विचार’—यह बहुत विरोधाभासी है। तुम किसी चीज के बारे में विचार कर सकते हो, लेकिन ना-कुछ के बारे में कैसे विचार कर सकते हो? इस ‘ना कुछ’ का क्या अर्थ है? और तुम उसके संबंध में विचार कैसे कर सकते हो? जब भी तुम किसी के संबंध में विचार करते हो, वह विषय बन जाता है। वह विचार बन जाता है। और विचार पदार्थ है। तुम ना-कुछ का विचार कैसे कर सकते हो। तुम शून्य के संबंध में कैसे सोच सकते हो। तुम नहीं सोच सकते , यह संभव नहीं है। लेकिन इस प्रयत्न में ही, ना-कुछ के विषय में शून्य के संबंध में सोचने के प्रयत्न में ही सोच-विचार खो जाएगा। विलीन हो जाएगा।
तुमने झेन कोआन के संबंध में सुना होगा। झेन गुरु साधक को एक कोआन देता है। और कहता है कि इस पर विचार करो। यह कोआन जान बूझ कार विचार को बंद करने के लिए दी जीती है। उदाहरण के लिए वे साध से कहता है: ‘जाओ और पता लगाओ कि तुम्हारा मौलिक चेहरा क्या है, वह चेहरा जो तुम्हारे जन्म के भी पहले था। अभी जो तुम्हारा चेहरा है उस पर मत विचार करो, उस चेहरे पर विचार करो जो जन्म के पहले था।’
तुम इस संबंध में क्या सोच विचार कर सकते हो। जन्म के पहले तुम्हारा कोई चेहरा नहीं था। चेहरा तो जन्म के साथ आता है। चेहरा तो शरीर का हिस्सा है। तुम्हारा कोई चेहरा नहीं है। चेहरा शरीर का है। आंखें बंद करो और कोई चेहरा नहीं हे। तुम अपने चेहरे के बारे में दर्पण के द्वारा जानते हो। तुमने खुद उसे कभी देखा नहीं है। तुम उसे देख भी नहीं सकते हो। तो कैसे मौलिक चेहरे के संबंध में सोच-विचार कर सकते हो।
लेकिन साधक चेष्टा करता है। और यह चेष्टा करना ही मदद करता है। साधक चेष्टा वर चेष्टा करेगा—और यह असंभव चेष्टा है। यह बार-बार गुरु के पास आएगा और कहेगा। ‘क्या मौलिक चेहरा यह है?’ लेकिन उसके पूछने के पहले ही गुरू कहता है: ‘नहीं,यह गलत है।’ तुम जो कुछ भी लाओगे वह गलत होने ही बाला है।
साधक महीनों तक बार-बार आता जाता रहता है। कुछ खोजता है, कुछ कल्पना करता है। कोई चेहरा देखता है और गुरु से कहता है: ‘यह रहा मौलिक चेहरा।’ और गुरु फिर कहता है: नहीं। हर बार उसे यह नहीं सुनने को मिलता है। और धीरे-धीरे वह बहुत ज्यादा भ्रमित हो जाता है। उलझन ग्रस्त हो जाता है। वह कुछ सोच नहीं पाता है। वह हर तरह से प्रयत्न करता है। और हर बार असफल होता है। यह असफलता ही बुनियादी बात है। किसी दिन वह समस्त असफलता पर पहूंच जाता है। उस समग्र असफलता में सब सोच-विचार ठहर जाता है। और उसे बोध होता है। कि मौलिक चेहरे के संबंध में कोई सोच-विचार नहीं हो सकता है। और इस बोध के साथ ही सोच विचार गिर जाता है।
और जब साधक को इस अंतिम असफलता का बोध होता है। और वह गुरु के पास आता है तो गुरु उससे कहता है: ‘अब कोई जरूरत नहीं है, मैं मौलिक चेहरा देख रहा हूं।’ साधक की आंखें शून्य है। वह गुरु से कुछ कहने नहीं, सिर्फ उनके सान्निध्य में रहने को आया है। उसे कोई उत्तर नहीं मिला; उत्तर था ही नहीं। वह पहली बार उतर के बाना आया है। कोई उत्तर नहीं है। वह मौन होकर आया है।
यहीं अ-मन की अवस्था है। इस अ-मन की अवस्था में ‘सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’ सीमाएं विलीन हो जाती है। और तुम अचानक सर्वत्र हो, सब कहीं हो। तुम अचानक सब कुछ हो। अचानक तुम वृक्ष में हो, पत्थर में हो, आकाश में हो, मित्र में हो, शत्रु में हो—अचानक तुम सक कही हो, सब में हो। सारा अस्तित्व दर्पण के समान हो गया है—और तुम सर्वत्र अपनी ही प्रति छवि देख रहे हो।
यहीं अवस्था आनंद की अवस्था है। अब तुम्हें कुछ भी अशांत नहीं कर सकता; क्योंकि तुम्हारे अतिरिक्त कुछ और नहीं है। अब कुछ भी तुम्हें नहीं मिटा सकता, क्योंकि तुम्हारे सिवाय कोई और नहीं है। अब मृत्यु नहीं है। क्योंकि मृत्यु में भी तुम हो। अब कुछ भी तुम्हारे विरोध में नहीं है।
इस एकाकीपन को महावीर ने कैवल्य कहा है—समग्र एकांत। एकांत क्यों? क्योंकि सब कुछ तुममें समाहित है, सब कुछ तुममें है।
तुम इस अवस्था को दो ढंगों से अभिव्यक्त कर सकते हो। तुम कह सकते हो, क्योंकि मैं हूं, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। मैं परमात्मा हूं। मैं समग्र हूं। सब कुछ मेरे भीतर आ गया है। सारी नदिया मेरे सागर में विलीन हो गई है। अकेला मैं ही हूं; और कुछ भी नहीं हूं। सूफी संत यही कहते है। और मुसलमान कभी नहीं समझ पाते कि क्यों सूफी ऐसी बातें कहते है। एक सूफी कहता है: ‘कोई परमात्मा नहीं है, केवल मैं हूं।’ या वह कहता है: ‘मैं परमात्मा हूं।’ यह विधायक ढंग है कहने का कि अब कोई पृथकता न रही। बुद्ध नकारात्मक ढंग। उपयोग करते है; वे कहते है: मैं न रहा, कुछ भी नहीं रहा।
दोनों बातें सच है, क्योंकि जब सब कुछ मुझमें समाहित है तो अपने ‘’मै’’कहने में कोई तुक नहीं है। ‘’मैं’’ सदा ही ‘’तू’’ के विरोध में है। ‘तू’ के संदर्भ में ‘मैं’ अर्थपूर्ण है। जब तूँ न रहा तो ‘मैं व्यर्थ हो गया। इसीलिए बुद्ध कहते है कि ‘मैं’ नहीं हूं, कुछ नहीं है।’
या तो सब कुछ तुममें समा गया है, या तुम शून्य हो गए हो। और सबमें विलीन हो गए हो। दोनों अभिव्यक्तियां ठीक है।
निशचित ही कोई भी अभिव्यक्ति पूरी तरह सही नहीं हो सकती है। यही कारण है कि विपरीत अभिव्यक्ति भी सदा सही है। प्रत्येक अभिव्यक्ति आंशिक है, अंश है; इसीलिए विरोधी अभिव्यक्ति भी सही है। विरोधी अभिव्यक्ति भी उसका ही अंश है।
इसे स्मरण रखो। तुम जो वक्तव्य देते हो वह सच हो सकता है। और उसका विरोध वक्तव्य भी, बिलकुल विरोधी वक्तव्य भी सच हो सकता है। वस्तुत: यह होना अनिवार्य है। क्योंकि प्रत्येक वक्तव्य अंश मात्र है। और अभिव्यक्ति के दो ढंग है। तुम विधायक ढंग चुन सकते हो या नकारात्मक ढंग चून सकते हो। अगर तुम विधायक ढंग चुनते हो तो नकारात्मक ढंग गलत मालूम पड़ता है। लेकिन वह गलत नहीं है। वह परिपूरक है। वह दरअसल उसके विरोध में नहीं है।
तो तुम चाहे उसे ब्रह्म कहो या निर्वाण कहो, दोनों एक ही अनुभव की तरफ इशारा करते है। और वह अनुभव यह है: ना-कुछ का विचार करने से तुम उसे जान लेते हो।
इस विधि के संबंध में कुछ बुनियादी बातें समझ लेनी चाहिए। एक कि विचार करते हुए तुम अस्तित्व से पृथक हो जाते हो। विचार करना कोई संबंध नहीं है; वह कोई संवाद नहीं है। विचार करना अवरोध है। निर्विचार में तुम अस्तित्व से संबंधित होते हो, जुड़ते हो; निर्विचार में तुम संवाद में होते हो।
जब तुम किसी से बात चीत करते हो तो तुम उससे जुड़े नहीं हो। बातचीत ही बाधा बन जाती है। और तुम जितना ही बोलते हो तुम उससे उतने ही दूर हट जाते हो। अगर तुम किसी के साथ मौन में होते हो तो तुम उससे जुड़ते हो। अगर तुम दोनों का मौन सच ही गहन हो, अगर तुम्हारे मन में कोई विचार न हो, दोनों के मन पूरी तरह मौन हों—तो तुम एक हो।
दो शुन्य दो नहीं हो सकते, दो शून्य एक हो जाते है। अगर तुम दो शुन्यों को जोड़ों तो वे दो नहीं रहते। वे मिलकर एक बड़ा शून्य हो जाते है। और अगर तुम किसी के साथ मौन में होते हो तो तुम उससे जुड़ते हो। अगर तुम दोनों को मौन सच ही गहन हो, अगर तुम्हारे मन में कोई विचार न हो, दोनों के मन पूरी तरह मौन हो—तो तुम एक हो।
यह विधि कहती है कि अस्तित्व के साथ मौन होओ। और तब तुम परमात्मा को जान लोगे। अस्तित्व के साथ संवाद का एक ही साधन है,मौन। यदि तुम अस्तित्व से बातचीत करते हो तो तुम चूकते हो। तब तुम अपने विचारों में ही बंद हो।
इसे प्रयोग की तरह करो। किसी चीज के साथ भी, एक पत्थर के साथ भी इसे प्रयोग करो। पत्थर के साथ मौन होकर रहो; उसे अपने हाथ में ले लो और मौन हो जाओ। और संवाद घटित होगा। मिलन घटित होगा। तुम पत्थर में गहरे प्रवेश कर जाओगे और पत्थर तुममें गहरे प्रवेश कर जाएगा। तुम्हारे रहस्य पत्थर के प्रति खुल जाएंगे। और पत्थर और रहस्य तुम्हारे प्रति प्रकट कर देगा। लेकिन तुम पत्थर के साथ भाषा का उपयोग नही कर सकते हो। पत्थर कोई भाषा नहीं जानता है। और चूंकि तुम भाषा का उपयोग करते हो, तुम उसके साथ संबंधित नहीं हो सकते।
मनुष्य ने मौन बिलकुल खो दिया है। जब तुम कुछ नहीं कर रहे होते हो तो भी तुम मौन नहीं हो। मन कुछ न कुछ करता ही रहता है। और इस निरंतर की भीतरी बातचीत के कारण,इस सतत आंतरिक बकवास के कारण तुम किसी के भी साथ संबंधित नहीं होते हो। तुम अपने प्रियजनों के साथ भी संबंधित नहीं हो सकते, क्योंकि यह बातचीत चलती रहती है।
तुम अपनी पत्नी के साथ बैठे हो सकते हो; लेकिन तुम अपने भीतर बातचीत में लगे हो और तुम्हारी पत्नी अपने भीतर बातचीत में लगी है। तुम दोनों अपने-अपने भीतर बातचीत में लगे हो और तुम्हारी पत्नी अपने भीतर बातचीत में लगी है। तब तुम एक दूसरे को दोष देते हो। कि तुम मुझे ‘प्रेम नही करते हो।’
असल में प्रेम का प्रश्न ही नहीं है। प्रेम संभव ही नहीं है। प्रेम मौन का फूल है। प्रेम का फूल मौन से खिलता है। मौन मिलन में खिलता है। यदि तुम निर्विचार नहीं हो सकते हो तो तुम प्रेम में भी हो सकते हो। और फिर प्रार्थना में होना तो असंभव ही है।
लेकिन हम तो प्रार्थना करते हुए भी बातचीत में लगे हो। हमारे लिए प्रार्थना परमात्मा के साथ बातचीत है। हम बातचीत के इतने अभ्यस्त हो गए है, इतने संस्कारित हो गए है, कि जब हम मंदिर या मस्जिद भी जाते है तो वहां भी अपनी बकवास जारी रखते है। हम परमात्मा के साथ भी बोलते रहते है। बातचीत करते रहते है।
यह बिलकुल मूढ़ता पूर्ण हे। परमात्मा या अस्तित्व तुम्हारी भाषा नहीं समझ सकता है। अस्तित्व एक ही भाषा समझता है—मौन की भाषा और मौन न संस्कृत है, न अरबी, न अंग्रेजी, न हिंदी। मौन जागतिक है। मौन किसी एक का नहीं है।
पृथ्वी पर कम से कम चार हजार भाषाएं है। और प्रत्येक मनुष्य अपनी भाषा के घेरे में बंद है। अगर तुम उसकी भाषा नहीं जानते हो तो तुम उसके साथ संबंधित नहीं हो सकते हो। तब तुम एक दूसरे के लिए अजनबी हो। हम एक दूसरे में प्रवेश नहीं कर सकते है। न ही हम एक दूसरे को समझ सकते है और न ही एक दूसरे को प्रेम कर सकते है।
ऐसा इस लिए है; क्योंकि हमें वह बुनियादी जागतिक भाषा नहीं आती। जो मौन की है। सच तो यह है कि मौन के द्वारा ही कोई किसी से संबंधित हो सकता है। और अगर तुम मौन की भाषा जानते हो तो तुम किसी भी चीज के साथ संबंधित हो सकते हो। जुड़ सकते हो। क्योंकि चट्टानें मौन है। वृक्ष मौन है। आकाश मौन है। मौन अस्तित्वगत है। यह मानवीय गुण ही नहीं है, यह अस्तित्वगत है। सबको पता है कि मौन क्या है, सबका अस्तित्व मौन में ही है।
ध्यान का अर्थ मौन है। कोई विचार नहीं। विचार बिलकुल खो गए है। ध्यान है मात्र होना—खुला,ग्रहणशील, तत्पर, मिलने को उत्सुक, स्वागत में, प्रेमपूर्ण—लेकिन वहां सोच-विचार बिलकुल नहीं है। और तब तुम्हें अनंत प्रेम घटित होगा। और तुम यह कभी नहीं कहोगे कि कोई मुझे प्रेम नहीं करता है। तुम यह कभी नहीं कहोगे, तुम्हें कभी यह भाव भी नहीं उठेगा।
अभी तो तुम कुछ भी करो, तुम यही कहोगे कि कोई मुझे प्रेम नहीं करता है। और तुम्हें यह भाव भी उठेगा कि कोई मुझे प्रेम नहीं देता है। हो सकता है कि तुम यह नहीं कहो; तुम यह दिखावा भी कर सकते हो कि कोई मुझे प्रेम करता है। लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि कोई तुम्हें प्रेम नहीं करता है।
प्रेमी भी एक दूसरे से पूछते रहते है: ‘क्या तुम मुझे प्रेम करते हो?’ अनेक ढंगों से वे निरंतर यही बात पूछते रहते है। सब डरे हुए है। सब अनिश्चित में है, सब असुरक्षित है। बहुत तरीकों से वे यह जानते कि कोशिश करते है। कि दूसरा सच में मुझे प्रेम करता है। और उन्हें कभी भरोसा नहीं हो सकता हे। क्योंकि प्रेमी कह सकता है कि हां, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं; लेकिन इसका भरोसा क्या? तुम्हें पक्का कैसे होगा? तुम कैसे जानोंगे कि प्रेमी तुम्हें धोखा नहीं दे रहा है? वह तुम्हें समझा बुझा सकता है। वह तुम्हें यकीन दिला सकता है। लेकिन इससे सिर्फ बुद्धि संतुष्ट हो सकती है, ह्रदय तृप्त नहीं होगा।
प्रेमी-प्रेमी का सदा दुःखी रहते है। उन्हें कभी इस बात का पक्का भरोसा नहीं होता कि दूसरा मुझे प्रेम करता है। तुम्हें कैसे भरोसा आ सकता है। असल में भाषा के जरिए भरोसा देने का कोई उपाय नहीं है। और तुम भाषा के जरिए पूछ रहे हो। कह रहे हो। और जब प्रेमी मौजूद है तो तुम मन में बातचीत में उलझे हो, प्रश्न पूछ रहे हो। विवाद कर रहे हो। तुम्हें कभी भरोसा नहीं आएगा। और तुम्हें सदा लगेगा कि मुझे प्रेम नहीं मिल रहा है। और यही गहन संताप बन जाता है।
और ऐसा इसलिए नहीं होता है कि कोई तुम्हें प्रेम नहीं करता हे। ऐसा इसलिए होता है कि तुम बंद हो, तुम विचारों में बंद हो। वहां कुछ भी प्रवेश नहीं कर पाता है। विचारों में प्रवेश नही किया जा सकता है। उन्हें गिराना होगा। और अगर तुम उन्हें गिरा देते हो तो सारा अस्तित्व तुममें प्रवेश कर जाता है।
ये सूत्र कहता है: ‘ना-कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’
तुम असीम हो जाओगे। तुम पूर्ण हो जाओगे। तुम जागतिक हो जाओगे। तुम सब कहीं होगे। और तुम आनंद ही हो।
अभी तुम दुःख ही दुःख हो और कुछ नहीं। जो चालाक है वे अपने को धोखे में रखते है कि हम दुःखी नहीं है। या वे इस आशा में रहते है कि कुछ बदलेगा,कुछ घटित होगा। और हमें अपने जीवन के अंत में सब उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन तुम दुःखी हो। तुम दिखावे और धोखे निर्मित कर सकते हो। तुम मुखौटे ओढ़ सकते हो। तुम निरंतर मुस्कराते रह सकते हो। लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि मैं दुःखी हूं, पीड़ित हूं।
यह स्वाभाविक है। विचारों में बंद रहकर तुम दुःख में ही रहोगे। विचारों से मुक्त होकर, विचारों के पार होकर—सजग। सचेतन, बोधपूर्ण, लेकिन विचारों से अछूते—तुम आनंद ही आनंद हो।
आज इतना ही।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-चार
प्रवचन-57