‘हे प्रिये, इस क्षण में मन, ज्ञान, प्राण, रूप, सब को समाविष्ट होने दो।’
यह विधि थोड़ी कठिन है। लेकिन अगर तुम इसे प्रयोग कर सको तो यह विधि बहुत अद्भुत और सुंदर है। ध्यान में बैठो तो कोई विभाजन मत करो;ध्यान में बैठे हुए सब को—तुम्हारे शरीर, तुम्हारे मन, तुम्हारे प्राण, तुम्हारे विचार, तुम्हारे ज्ञान—सब को समाविष्ट कर लो। सब को समेट लो, सब को सम्मिलित कर लो। कोई विभाजन मत करो, उन्हें खंडों में मत बांटो।
साधारणत: हम खड़ों में बांटते रहते है। तोड़ते रहते है। हम कहते है: ‘यह शरीर मैं नहीं हूं।’ ऐसी विधियां भी है जो इसका प्रयोग करती है। लेकिन यह विधि सर्वथा भिन्न है, बल्कि ठीक विपरीत है। तो कोई विभाजन मत करो। मत कहो कि मैं शरीर नहीं हूं। मत कहो कि मैं श्वास नहीं हूं। मत कहो कि मैं मन नहीं हूं। कहो कि मैं सब हूं और सब हो जाओ। अपने भीतर कोई विभाजन, कोई बँटाव मत निर्मित करो। यह एक भाव दशा है। आंखें बंद कर लो और तुम्हारे भीतर जो भी है। सब को सम्मिलित कर लो। अपने को कहीं एक जगह केंद्रित मत करो—अकेंद्रित रहो।
श्वास आती है और जाती है। विचार आता है और चला जाता है। शरीर का रूप बदलता रहता है। इस पर तुमने कभी ध्यान नहीं दिया है। अगर तुम आंखें बंद करके बैठो तो तुम्हें कभी लगेगा कि मेरा शरीर बहुत बड़ा है और कभी लगेगा कि मेरा शरीर बिलकुल छोटा है। कभी शरीर बहुत भारी मालूम पड़ता है। और कभी इतना हलका कि तुम्हें लगेगा कि मैं उड़ सकता हूं। इस रूप के घटने-बढ़ने को तुम अनुभव कर सकते हो। आंखों को बंद कर लो और बैठ जाओ। और तुम अनुभव करोगे कि कभी शरीर बहुत बड़ा है। इतना बड़ा कि सारा कमरा भर जाए और कभी इतना छोटा लगेगा जैसे कि अणु हो। यह रूप क्यो बदलता है?
जैसे-जैसे तुम्हारा ध्यान बदलता है। वैसे-वैसे तुम्हारे शरीर का रूप भी रूप बदलता है। अगर तुम्हारा ध्यान सर्वग्राही है तो रूप बहुत बड़ा हो जायेगा। और अगर तुम तोड़ते हो करते हो, विभाजन करते हो, कहते हो कि मैं यह नहीं हूं, तो तुम बहुत छोटा, बहुत सूक्ष्म और आणविक हो जाता है।
यह सूत्र कहता है: ‘हे प्रिय, इस क्षण में मन, ज्ञान, रूप, सब को समाविष्ट होने दो।’
अपने अस्तित्व में सब को सम्मिलित करो, किसी को भी अलग मत करो, बाहर मत करो। मत कहो कि मैं यह नहीं हूं, कहो कि मैं यह हूं और सब को सम्मिलित कर लो। अगर तुम इतना ही कर सको तो तुम्हें बिलकुल नए अनुभव, अद्भुत अनुभव घटित होंगे। तुम्हें अनुभव होगा कि कोई केंद्र नहीं है। मेरा कोई केंद्र नहीं है।
और केंद्र के जाते ही अहंभाव नहीं रहता। अहंभाव नहीं रहता। केंद्र के जाते ही केवल चैतन्य रहता है—आकाश जैसा चैतन्य जो सब को घेरे हुए है। और जब यह प्रतीति बढ़ती है तो तुममें न सिर्फ तुम्हारी श्वास समाहित होगी, न केवल तुम्हारा रूप समाहित होगा, बल्कि अंतत: तुम में सारा ब्रह्मांड समाहित हो जाएगा।
स्वामी रामतीर्थ ने अपनी साधना में इस विधि का प्रयोग किया था। और एक क्षण आया जब उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि सारा जगत मुझमें है और ग्रह-नक्षत्र मेरे भीतर घूम रहे है। कोई उनसे बात कर रहा था और उसने कहा कि यहां हिमालय में सब कुछ कितना सुंदर है। रामतीर्थ हिमालय में थे। और उस व्यक्ति ने उनसे कहा: यह हिमालय कितना सुंदर है। और कहते है रामतीर्थ ने उससे कहा: ‘हिमालय? हिमालय मेरे भीतर है।’
उस आदमी ने सोचा कि रामतीर्थ पागल है। हिमालय कैसे उनके भीतर हो सकता है? लेकिन यदि तुम इस विधि का प्रयोग करो तो तुम यह अनुभव कर सकते हो। कि हिमालय तुममें है। मैं तुम्हें थोड़ा स्पष्ट करूं कि यह कैसे संभव है।
सच तो यह है कि जब तुम मुझे देखते हो तो उसे नहीं देखते जो कुर्सी पर बैठा हुआ है, तुम दरअसल मेरी तस्वीर को देखते हो जो तुम्हारे भीतर है। जो तुम्हारे मन में बनती है। तुम इस कुर्सी में बैठे हुए मुझको कैसे जान सकते हो? तुम्हारी आंखें केवल मेरी तस्वीर ले सकती है। तस्वीर भी नहीं, सिर्फ प्रकाश की किरणें तुम्हारी आंखों में प्रवेश कर सकती है। फिर तुम्हारी आंखें खुद मन के पास नहीं पहुँचती है; सिर्फ आंखों से होकर गुजरने वाली किरणें भीतर जाती है। फिर तुम्हारा स्नायु-तंत्र जो उन किरणों को ले जाता है। उन्हें किरणों की भांति नहीं ले जा सकता । वह उन किरणों को रासायनिक पदार्थों में रूपांतरित कर देता है। तो केवल रासायनिक पदार्थ यात्रा करते है। वहां इन रासायनिक पदार्थों को पढ़ा जाता है। उन्हें डिकोड़ किया जाता है। उन्हें उनके मूल चित्र में फिर बदला जाता है। और तब तुम अपने मन में मुझे देखते हो।
तुम कभी अपने मन के बाहर नहीं गए हो। सम्पूर्ण जगत को, जिसे तुम जानते हो। तुम अपने मन में देखते हो। मन में ही उघाड़ते हो। मन में ही जानते हो। सारे हिमालय, समस्त सूर्य और चाँद-तारे तुम्हारे मन के भीतर अत्यंत सूक्ष्म अस्तित्व मे मौजूद है। अगर तुम अपनी आंखें बंद करो और अनुभव करो कि सब कुछ सम्मिलित है तो तुम जानोंगे कि सारा जगत तुम्हारे भीतर घूम रहा है।
और जब तुम यह अनुभव करते हो कि सारा जगत मेरे भीतर घूम रहा है। तो तुम्हारे सभी व्यक्तित्व दुःख विसर्जित हो गए। विदा हो गए। अब तुम व्यक्ति न रहे, अव्यक्ति हो गए। परम हो गए। अब तुम समस्त अस्तित्व हो गए।
यह विधि तुम्हारी चेतना को विस्तृत करती है। उसे फैलाव देती है।
अब पश्चिम में चेतना को विस्तृत करने के लिए अनेक नशीली चीजों का प्रयोग हो रहा है। एल एस डी है, मारीजुआना है, दूसरी मादक द्रव्य है। भारत में भी पुराने दिनों में उनका प्रयोग होता था। क्योंकि ये मादक द्रव्य चेतना के विस्तार का एक झूठा भाव पैदा कर देते है। और जो लोग भी मादक द्रव्य लेते है, उनके लिए ये विधियां बहुत सुंदर है, बहुत काम की है। क्योंकि वे लोग चेतना के विस्तार के लिए लालायित है।
जब तुम एल एस डी लेते हो तो तुम अपने में ही सीमित नही रहते, तब तुम सब को अपने में समेट लेते हो। इसके प्रयोग के अनेक उदाहरण है। एक लड़की सात मंजिल के मकान से कूद पड़ी, क्योंकि उसे लगा कि मैं नहीं मर सकती हूं। कि मृत्यु असंभव है। उसे लगा कि मैं उड़ सकती हूं, और उसे लगा कि इसमें कोई बाधा नहीं है। कोई भय नहीं है। वह लड़की सात मंजिल मकान से कूद पड़ी और मर गई। उसकी देह टूट फूट कर बिखर गई लेकिन उसके मन में—नशे के प्रभाव में—कोई सीमा का भाव नहीं था। मृत्यु का ख्याल नहीं था।
चेतना का विस्तार एक सनक का रूप ले चुकी है। क्योंकि जब तुम्हारी चेतना फैलती है तो तुम अपने को बहुत ऊँचाई पर अनुभव करते हो,सारा संसार धीरे-धीरे तुममें समा जाता है। तुम विराट हो जाते हो। अति विराट हो जाते हो। और तुम्हारे व्यक्तित्व दुःख विदा हो जाते है। लेकिन एल एस डी या अन्य ऐसी चीजों से पैदा होने वाला यह भाव भ्रामक है, झूठा है।
तंत्र की इस विधि से यह भाव वास्तविक हो जाता है। यथार्थत: सारा संसार तुम्हारे भीतर आ जाता है।
इसके दो कारण है। एक हमारी व्यक्तिगत चेतना दरअसल व्यक्तित्व नहीं है। बहुत गहराई में यह सामूहिक ऊपर हम द्वीपों जैसे अलग-अलग दिखते है। लेकिन गहरे में सभी द्वीप पृथ्वी से जुड़े है। हम द्वीपों जैसे दिखते है—मैं चेतन हूं तुम चेतन हो—लेकिन तुम्हारी चेतना और मेरी चेतना किसी गहराई में एक ही है। वे धरती से मूल आधार से संबद्ध है।
यही कारण है कि ऐसी बहुत सी बातें घटती है जो बेबूझ लगती है। अगर तुम अकेले ध्यान करते हो तो ध्यान में प्रवेश बहुत कठिन होता है। लेकिन अगर तुम समूह में ध्यान करते हो तो प्रवेश बहुत ही आसान हो जाता है। कारण यह है कि समूचा समूह एक इकाई की तरह काम करता है। ध्यान-शिविरों में मैंने देखा है, अनुभव किया है कि दो या तीन दिन के बाद तुम्हारी वैयक्तिकता जाती है। तुम एक वृहत चेतना के हिस्से बन जाते हो। और तब बहुत सूक्ष्म तरंगें अनुभव होने लगती है, बहुत सूक्ष्म तरंगें गति करने लगती है। और एक समूह चेतना विकसित होती है।
तो जब तुम नाचते हो तो असल में तुम नहीं नाच रहे होते हो, वरन समूह-चेतना नाच रही होती है। और तुम उसके अंग भर होते हो। नृत्य तुम्हारे ही नहीं है, तुम्हारे बाहर भी है। तुम्हारे चारों तरफ एक तरंग है। समूह में तुम नहीं होते हो, समूह ही होता है। द्वीप होने की सतही घटना भूल जाती है। और एक होने की गहरी घटना घटती है। समूह में तुम भगवता के निकटतर होते हो। अकेले में तुम उसके बहुत दूर होते हो। क्योंकि अकेले में तुम फिर अपने अहंकार पर सतही भेद पर सतही अलगाव पर केंद्रित हो जाते हो।
यह विधि सहयोगी है, क्योंकि सचाई यही है कि तुम ब्रह्मांड के साथ एक हो। प्रश्न इतना ही है कि कैसे इसे आविष्कृत किया जाए, कैसे इसमें उतरा जाए और इसे उपलब्ध हुआ जाए।
किसी मैत्री पूर्ण समूह के साथ होना तुम्हें सदा ऊर्जा से भरता है। किसी ऐसे व्यक्ति के साथ होने में, जो शत्रुतापूर्ण है, तुम्हें सदा अनुभव होता है कि मेरी ऊर्जा चूसी जा रही है। क्यों? अगर तुम मित्रों के साथ हो, परिवार के साथ हो और आनंदित हो और सुख ले रहे हो, तो तुम ऊर्जस्वी अनुभव करते हो। शक्तिशाली अनुभव करते हो। किसी मित्र के मिलने पर तुम ज्यादा जीवंत मालूम पड़ते हो—उससे ज्यादा जितना मिलने के पहले जीवंत थे। और किसी दुश्मन के पास से गुजरने पर तुम्हें लगता है कि तुम्हारी थोड़ी ऊर्जा कम हो गई, तुम थके-थके लगते हो। क्या होता है?
जब तुम किसी मैत्रीपूर्ण,सहानुभूतिपूर्ण समूह से मिलते हो तो तुम अपनी वैयक्तिकता को भूल जाते हो। तुम उस मूल आधार पर उतर आते हो जहां पर मिल सकते हो। जब किसी शत्रुतापूर्ण व्यक्ति से मिलते हो तो तुम ज्यादा वैयक्तिक, ज्यादा अहंकारी हो जाते हो। तुम अपने अहंकार से चिपक जाते हो। और इसी अहंकार से चिपकने के कारण तुम थके-थके लगते हो। सब ऊर्जा मूल स्त्रोत से आती है। सब ऊर्जा सामूहिक जीवन के भाव से आती है। यह ध्यान करते समय प्रारंभ में तुम्हें सामूहिक जीवन के भाव का अनुभव होगा, और अंत में जागतिक चेतना का अनुभव होगा। जब सब भेद गिर जाते है, सारी सीमाएं विलीन हो जाती है। और अस्तित्व एक इकाई हो जाता है। पूर्ण होता है, तब सब सम्मिलित हो जाता है। समाहित हो जाता है। यह सब को समाविष्ट करने का प्रयत्न अपने निजी अस्तित्व से शुरू होता है। सब कुछ को समाविष्ट करो।
हे प्रिय, इस क्षण में मन, ज्ञान,प्राण, रूप, को समाविष्ट होने दो।‘
याद रखने की बुनियादी बात है समावेश—सब को अपने में समाविष्ट करो। किसी को अलग मत करो, बाहर मत रखो। इस सूत्र की कुंजी है: सब का समावेश। सब को समाविष्ट करो, सब को अपने भीतर समेट लो। समाविष्ट करो और बढते जाओ। समाविष्ट करो और विस्तृत होओ। पहले अपने शरीर से यह प्रयोग शुरू करो और फिर बाहरी संसार के साथ भी यही प्रयोग करो।
किसी वृक्ष के नीचे बैठकर वृक्ष को देखो। और फिर आंखें बंद कर लो और अनुभव करो कि वृक्ष मेरी भीतर है। आकाश को देखो; और फिर आंखें बंद करके महसूस करो कि आकाश मेरे भीतर है। उगते हुए सूरज को देखो;फिर आंखें बंद करके भाव करो कि सूरज मेरे भीतर उग रहा है। और-और फैलते जाओ। विराट होते जाओ।
एक अद्भुत अनुभव तुम्हें होगा। जब तुम अनुभव करते हो कि वृक्ष मेरे भीतर है तो तुम तत्क्षण ज्यादा युवा हो जाते हो। और यह कल्पना नहीं है। क्योंकि वृक्ष और तुम दोनों पृथ्वी के अंग हो। पृथ्वी से आए हो। तुम दोनों की जड़ें एक ही धरती में गड़ी है। और अंतत: तुम्हारी जड़ें एक ही अस्तित्व में समाई है। तो जब तुम भाव करते हो कि वृक्ष मेरे भीतर होगा। वृक्ष की जीवंतता उसकी हरियाली उसकी ताजगी, उससे गुजरती हुई हवा, सब तुम्हारे भीतर तुम्हारे ह्रदय में अनुभव होगा।
तो अस्तित्व को और-और अपने भीतर समाविष्ट करो,कुछ भी बाहर मत छोड़ो।
अनेक ढंगों से अनेक जगह गुरु इसकी शिक्षा देते रहे है। जीसस कहते है: ‘अपने शत्रु को वैसे ही प्रेम करो जैसे अपने को करते हो।’ यह समावेश का प्रयोग है।
फ्रायड कहा करता था: ‘मैं क्यों अपने शत्रु को अपने समान प्रेम करूं? वह मेरा शत्रु है; फिर क्यों मैं उसे स्वयं की भांति प्रेम करूं? और मैं उसे प्रेम कैसे कर सकता हूं?
उसका प्रश्न संगत मालूम पड़ता है। लेकिन फ्रायड को पता नहीं है कि क्यों जीसस कहते थे कि अपने शत्रु को वैसे ही प्रेम करो जैसे अपने को करते हो। यह किसी सामाजिक राजनीति की बात नहीं है। यह कोई समाज-सुधार की, एक बेहतर समाज बनाने की बात नहीं है। यह तो सिर्फ तुम्हारे जीवन और तुम्हारे चैतन्य को विस्तार देने की बात है।
अगर तुम शत्रु को अपने में समाविष्ट कर सको तो वह तुम्हें चोट नहीं पहुंचा सकता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह तुम्हारी हत्या नहीं कर सकता। वह तुम्हारी हत्या कर सकता है। लेकिन वह तुम्हें चोट नहीं पहुंचा सकता। चोट तो तब लगती है जब तुम उसे अपने से बारह रखते हो। जब तुम उसे अपने से बाहर रखते हो तो तुम अहंकारी हो जाते हो। पृथक और अकेले हो जाते हो, तुम अस्तित्व से विच्छिन्न हो जाते हो। कट जाते हो। अगर तुम को अपने भीतर समाविष्ट कर सको तो सब समाविष्ट हो जाता है। जब शत्रु समाविष्ट हो सकता है तो फिर वृक्ष और आकाश क्यों समाविष्ट नहीं हो सकते।
शत्रु पर जोर इसलिए है कि अगर तुम शत्रु को सम्मिलित कर सकते हो तो तुम सब को सम्मिलित कर सकते हो। तब किसी को बाहर छोड़ने की जरूरत नहीं रही। और अगर तुम अनुभव कर सको कि तुम्हारा शत्रु भी तुममें समाविष्ट है तो तुम्हारा शत्रु भी तुम्हें शक्ति देगा। ऊर्जा देगा,वह अब तुम्हारे लिए हानिकारक नहीं हो सकता। वह तुम्हारी हत्या कर सकता है; लेकिन तुम्हारी हत्या करते हुए भी वह तुम्हें हानि नहीं पहुंचा सकता। हानि तो तुम्हारे मन से आती है। जब तुम किसी को पृथक मानते हो, अपने से बाहर मानते हो।
लेकिन हमारे साथ तो बात पूरी तरह विपरीत है, बिलकुल उलटी है। हम तो मित्रों को भी अपने में सम्मिलित नहीं करते। शत्रु तो बाहर होते ही है; मित्र भी बाहर ही होते है। तुम अपने प्रेमी-प्रेमिकाओं को भी बाहर ही रखते हो। अपने प्रेमी के साथ होकर भी तुम उसमें डूबते नहीं, एक नहीं होते; तुम पृथक बने रहते हो। तुम अपने को नियंत्रण में रखते हो। तुम अपनी अलग पहचान गंवाना नहीं चाहते हो।
और यही कारण है कि प्रेम असंभव हो गया है। जब तक तुम अपनी अलग पहचान नहीं छोड़ते हो, अहंकार को विदा नहीं देते हो। तब तक तुम प्रेम कैसे कर सकते हो? तुम-तुम बने रहते हो, तुम्हारा प्रेमी भी अपने को बचाए रहता है। तुम दोनों में कोई भी एक दूसरे में डूबने को समाविष्ट होने को राजी नहीं है। तुम दोनो एक दूसरे को बाहर रखते हो। तुम दोनों अपने-अपने घेरे में बंद रहते हो। परिणाम यह होता है कि कोई मिलन नहीं होता है, कोई संवाद नहीं होता है। और जब प्रेमी भी समाविष्ट नहीं हो सकते है तो यह सुनिश्चित है कि तुम्हारा जीवन दरिद्रतम जीवन है। तब तुम अकेले हो, दीन-हीन हो। भिखारी हो। और जब सारा अस्तित्व तुममें समाविष्ट होता है। तो तुम सम्राट हो।
इसे स्मरण रखो। समाविष्ट करने को अपनी जीवन-शैली बना लो। उसे ध्यान ही नहीं,जीवन शैली, जीने का ढंग बना लो। अधिक से अधिक को सम्मिलित करने की चेष्टा करो। तुम जितना ज्यादा सम्मिलित करोगे तुम्हारा उतना ही ज्यादा विस्तार होगा। तब तुम्हारी सीमाएं अस्तित्व के और-छोर को छूने लगेंगी। और एक दिन केवल तुम होगे। समस्त अस्तित्व तुममें समाविष्ट होगा। यही सभी धार्मिक अनुभवों का सार सूत्र है।
‘’हे प्रिय, इस क्षण में मन, ज्ञान,प्राण, रूप, सब को समाविष्ट होने दो।’
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-चार
प्रवचन–61