संभोग : अहं-शून्यता की झलक—2
एक पौधा पूरी चेष्टा कर रहा है—नये बीज उत्पन्न करने की, एक पौधा के सारे प्राण,सारा रस , नये बीज इकट्ठे करने, जन्म नें की चेष्टा कर रहा है। एक पक्षी क्या कर रहा है। एक पशु क्या कर रहा है।
अगर हम सारी प्रकृति में खोजने जायें तो हम पायेंगे, सारी प्रकृति में एक ही, एक ही क्रिया जोर से प्राणों को घेर कर चल रही है। और वह क्रिया है सतत-सृजन की क्रिया। वह क्रिया है ‘’क्रिएशन’’ की क्रिया। वह क्रिया है जीवन को पुनरुज्जीवित, नये-नये रूपों में जीवन देने की क्रिया। फूल बीज को संभाल रहे है, फल बीज को संभाल रहे है। बीज क्या करेगा? बीज फिर पौधा बनेगा। फिर फल बनेगा।
अगर हम सारे जीवन को देखें, तो जीवन जन्म ने की एक अनंत क्रिया का नाम है। जीवन एक ऊर्जा है, जो स्वयं को पैदा करने के लिए सतत संलग्न है और सतत चेष्टा शील है।
आदमी के भीतर भी वहीं है। आदमी के भीतर उस सतत सृजन की चेष्टा का नाम हमने ‘सेक्स’ दे रखा है, काम दे रखा है। इस नाम के कारण उस ऊर्जा को एक गाली मिल गयी है। एक अपमान । इस नाम के कारण एक निंदा का भाव पैदा हो गया है। मनुष्य के भीतर भी जीवन को जन्म देने की सतत चेष्टा चल रही है। हम उसे सेक्स कहते है, हम उसे काम की शक्ति कहते है।
लेकिन काम की शक्ति क्या है?
समुद्र की लहरें आकर टकरा रही है समुद्र के तट से हजारों वर्षों से। लहरें चली आती है, टकराती है, लौट जाती है। फिर आती है, टकराती है लौट जाती है। जीवन भी हजारों वर्षों से अनंत-अनंत लहरों में टकरा रहा है। जरूर जीवन कहीं उठना चाहता होगा। यह समुद्र की लहरें, जीवन की ये लहरें कहीं ऊपर पहुंचना चाहती है; लेकिन किनारों से टकराती है और नष्ट हो जाती है। फिर नयी लहरें आती है, टकराती है और नष्ट हो जाती है। यह जीवन का सागर इतने अरबों बरसों से टकरा रहा है, संघर्ष ले रहा है। रोज उठता है, गिर जाता है, क्या होगा प्रयोजन इसके पीछे? जरूर इसके पीछे कोई बृहत्तर ऊँचाइयों को छूने का आयोजन चल रहा होगा। जरूर इसके पीछे कुछ और गहराइयों को जानने का प्रयोजन चल रहा है। जरूर जीवन की सतत प्रक्रिया के पीछे कुछ और महान तर जीवन पैदा करने का प्रयास चल रहा है।
मनुष्य को जमीन पर आये बहुत दिन नहीं हुए है, कुछ लाख वर्ष हुए। उसके पहले मनुष्य नहीं था। लेकिन पशु थे। पशु को आये हुए भी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ। एक जमाना था कि पशु भी नहीं था। लेकिन पौधे थे। पौधों को भी आये बहुत समय नहीं हुआ। एक समय था जब पौधे भी नहीं थे। पहाड़ थे। नदिया थी, सागर थे। पत्थर थे। पत्थर, पहाड़ और नदियों की जो दुनिया थी वह किस बात के लिए पीड़ित थी?
वह पौधों को पैदा करना चाहती थी। पौधे धीरे-धीरे पैदा हुए। जीवन ने एक नया रूप लिया। पृथ्वी हरियाली से भर गयी। फूल खिल गये।
लेकिन पौधे भी अपने से तृप्त नहीं थे। वे सतत जीवन को जन्म देते है। उसकी भी कोई चेष्टा चल रही थी। वे पशुओं को पक्षियों को जन्म देना चाहते है। पशु, पक्षी पैदा हुए।
हजारों लाखों बरसों तक पशु, पक्षियों से भरा था यह जगत, लेकिन मनुष्य को कोई पता नहीं था। पशुओं और पक्षियों के प्राणों के भीतर निरंतर मनुष्य भी निवास कर रहा था। पैदा होने की चेष्टा कर रहा था। फिर मनुष्य पैदा हुआ।
अब मनुष्य किस लिए?
मनुष्य निरंतर नये जीवन को पैदा करने के लिए आतुर है। हम उसे सेक्स कहते है, हम उसे काम की वासना कहते है। लेकिन उस वासना का मूल अर्थ क्या है? मूल अर्थ इतना है कि मनुष्य अपने पर समाप्त नहीं होना चाहता, आगे भी जीवन को पैदा करना चाहता है। लेकिन क्यों? क्या मनुष्य के प्राणों में, मनुष्य के ऊपर किसी ‘सुपरमैन’ को, किसी महा मानव को पैदा करने की कोई चेष्टा चल रही है?
निश्चित ही चल रही है। निश्चित ही मनुष्य के प्राण इस चेष्टा में संलग्न है कि मनुष्य से श्रेष्ठतर जीवन जन्म पा सके। मनुष्य से श्रेष्ठतर प्राणी आविर्भूत हो सके। नीत्से से लेकर अरविंद तक, पतंजलि से लेकिर बर ट्रेन्ड रसल तक। सारे मनुष्य के प्राणों में एक कल्पना, एक सपने की तरह बैठी रही कि मनुष्य से बड़ा प्राणी पैदा कैसे हो सके। लेकिन मनुष्य से बड़ा प्राणी पैदा कैसे होगा?
हमने तो हजारों वर्षों से इस पैदा होने की कामना को ही निंदित कर रखा है। हमने तो सेक्स को सिवाय गाली के आज तक दूसरा कोई सम्मान नहीं दिया। हम तो बात करने मैं भयभीत होते है। हमने तो सेक्स को इस भांति छिपा कर रख दिया है, जैसे वह है ही नहीं। जैसे उसका जीवन में कोई स्थान नहीं है। जब कि सच्चाई यह है कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य के जीवन में ओर कुछ भी नहीं है। लेकिन उसको छिपाया है दबाया है, क्यों?
दबाने और छिपाने से मनुष्य सेक्स से मुक्त नहीं हो गया, बल्कि और भी बुरी तरह से सेक्स से ग्रसित हो गया। दमन उलटे परिणाम लाता है।
शायद आप में से किसी ने एक फ्रैंच वैज्ञानिक कुये के एक नियम के संबंध में सुना होगा। वह नियम है ’’लॉ ऑफ रिवर्स एफेक्ट’’। कुये ने एक नियम ईजाद किया है, ‘विपरीत परिणाम का’। हम जो करना चाहते है, हम इस ढंग से कर सकते है। कि जो हम परिणाम चाहते है, उसके उल्टा परिणाम हो जाये।
एक आदमी साइकिल चलाना सीखता है। बड़ा रास्ता है। चौड़ा रास्ता है। एक छोटा सा पत्थर रास्ते के किनारे पडा हुआ है। वह साइकिल चलाने वाला घबराता है। की मैं कहीं उस पत्थर से न टकरा जाऊँ। अब इतना चौड़ा रास्ता पडा है। वह साइकिल चलने वाला अगर आँख बंध कर के भी चलाना चाहे तो भी उस पत्थर से टकराने की संभावना न के बराबर है। इसका सौ में से एक ही मौका है वह पत्थर से टकराये। इतने चौड़े रास्ते पर कहीं से भी निकल सकता है लेकिन वह देखकर घबराता है। कि कहीं पत्थर से टकरा न जाऊँ। और जैसे ही वह घबराता है, मैं पत्थर से न टकरा जाऊँ। सारा रास्ता विलीन हो जाता है। केवल पत्थर ही दिखाई दिया। अब उसकी साइकिल का चाक पत्थर की और मुड़ने लगा। वह हाथ पैर से घबराता है। उसकी सारी चेतना उस पत्थर की और देखने लगती है। और एक सम्मोहित हिप्रोटाइज आदमी कि तरह वह पत्थर की तरफ खिंच जाता है। और जा कर पत्थर से टकरा जाता है। नया साईकिल सीखने वाला उसी से टकरा जाता है जिससे बचना चाहता है। लैम्पो से टकरा जाता है, खम्बों से टकरा जाता है, पत्थर से टकरा जाता है। इतना बड़ा रास्ता था कि अगर कोई निशानेबाज ही चलाने की कोशिश करता तो उस पत्थर से टकरा सकता था। लेकिन यह सिक्खड़ आदमी कैसे उस पत्थर से टकरा गया।
कुये कहता है कि हमारी चेतना का एक नियम है: लॉ ऑफ रिवर्स एफेक्ट, हम जिस चीज से बचना चाहते है, चेतना उसी पर केंद्रित हो जाती है। और परिणाम में हम उसी से टकरा जाते है। पाँच हजार साल से आदमी सेक्स से बचना चाह रहा है। और परिणाम इतना हुआ की गली कूचे हर जगह जहां भी आदमी जाता है वहीं सेक्स से टकरा जाता है। लॉ ऑफ रिवर्स एफेक्ट मनुष्य की आत्मा को पकड़े हुए है।
क्या कभी आपने वह सोचा है कि आप चित को जहां से बचाना चाहते है, चित वहीं आकर्षित हो जाता है। वहीं निमंत्रित हो जात है। जिन लोगो ने मनुष्य को सेक्स के विरोध में समझाया, उन लोगों ने ही मनुष्य को कामुक बनाने का जिम्मा भी अपने ऊपर ले लिया है।
मनुष्य की अति कामुकता गलत शिक्षाओं का परिणाम है।
और आज भी हम भयभीत होते है कि सेक्स की बात न की जाये। क्यों भयभीत होते है? भयभीत इसलिए होते है कि हमें डर है कि सेक्स के संबंध में बात करने से लोग और कामुक हो जायेंगे।
मैं आपको कहना चाहता हूं कि यह बिलकुल ही गलत भ्रम है। यह शत-प्रतिशत गलत है। पृथ्वी उसी दिन सेक्स से मुक्त होगी, जब हम सेक्स के संबंध में सामान्य, स्वास्थ बातचीत करने में समर्थ हो जायेंगे।
जब हम सेक्स को पूरी तरह से समझ सकेंगे, तो ही हम सेक्स का अतिक्रमण कर सकेंगे।
जगत में ब्रह्मचर्य का जन्म हो सकता है। मनुष्य सेक्स के ऊपर उठ सकता है। लेकिन सेक्स को समझकर, सेक्स को पूरी तरह पहचान कर, उस की ऊर्जा के पूरे अर्थ, मार्ग, व्यवस्था को जानकर, उसके मुक्त हो सकता है।
आंखे बंद कर लेने से कोई कभी मुक्त नहीं हो सकता। आंखें बंद कर लेने वाले सोचते हों कि आंखे बंद कर लेने से शत्रु समाप्त हो गया है। मरुस्थल में शुतुरमुर्ग भी ऐसा ही सोचता है। दुश्मन हमने करते है तो शुतुरमुर्ग रेत में सर छिपा कर खड़ा हो जाता है। और सोचता है कि जब दुश्मन मुझे दिखाई नहीं देता ताक मैं दुशमन को कैसे दिखाई दे नहीं सकता। लेकिन यह वर्क—शुतुरमुर्ग को हम क्षमा भी कर सकते है। आदमी को क्षमा नहीं किया जा सकता है।
सेक्स के संबंध में आदमी ने शुतुरमुर्ग का व्यवहार किया है। आज तक। वह सोचता है, आँख बंद कर लो सेक्स के प्रति तो सेक्स मिट गया। अगर आँख बंद कर लेने से चीजें मिटती तो बहुत आसान थी जिंदगी। बहुत आसान होती दुनिया। आँख बंद करने से कुछ मिटता नहीं है। बल्कि जिस चीज के संबंध में हम आँख बंद करते है। हम प्रमाण देते है कि हम उस से भयभीत है। हम डर गये है। वह हमसे ज्यादा मजबूत है। उससे हम जीत नहीं सकते है, इसलिए आँख बंद करते है। आँख बंद करना कमजोरी का लक्षण है।
और सेक्स के बाबत सारी मनुष्य जाति आँख बंद करके बैठ गयी है। न केवल आँख बंद करके बैठ गयी है, बल्कि उसने सब तरह की लड़ाई भी सेक्स से ली है। और उसके परिणाम, उसके दुष्परिणाम सारे जगत में ज्ञात है।
अगर सौ आदमी पागल होते है, तो उनमें से 98 आदमी सेक्स को दबाने की वजह से पागल होते है। अगर हजारों स्त्रियों हिस्टीरिया से परेशान है तो उसमें से सौ में से 99 स्त्रियों के पीछे हिस्टीरिया के मिरगी के बेहोशी के, सेक्स की मौजूदगी है। सेक्स का दमन मौजूद है।
अगर आदमी इतना बेचैन, अशांत इतना दुःखी और पीड़ित है तो इस पीडित होने के पीछे उसने जीवन की एक बड़ी शक्ति को बिना समझे उसकी तरफ पीठ खड़ी कर ली है। उसका कारण है। और परिणाम उलटे आते है।
अगर हम मनुष्य का साहित्य उठाकर कर देखें, अगर किसी देवलोक से कभी कोई देवता आये या चंद्रलोक से या मंगलग्रह से कभी कोई यात्री आये और हमारी किताबें पढ़े, हमारा साहित्य देखे, हमारी कविता पढ़, हमारे चित्र देखे तो बहुत हैरान हो जायेगा। वह हैरान हो जायेगा यह जानकर कि आदमी का सारा साहित्य सेक्स पर केंद्रित है? आदमी की हर कविताएं सेक्सुअल क्यों है? आदमियों की सारी कहानियां, सारे उपन्यास सेक्सुअल क्यों है। आदमी की हर किताब के उपर नंगी औरत की तस्वीर क्यों है? आदमी की हर फिल्म नंगे आदमी की फिल्म क्यों है। वह बहुत हैरान होगा। अगर कोई मंगल से आकर हमें इस हालत में देखेगा तो बहुत हैरान होगा। वह सोचगा, आदमी सेक्स के सिवाय क्या कुछ भी नहीं सोचता? और आदमी से अगर पूछेगा, बातचीत करेगा तो बहुत हैरान हो जायेगा।
आदमी बातचीत करेगा आत्मा की, परमात्मा की, स्वर्ग की, मोक्ष की, सेक्स की कभी कोई बात नहीं करेगा। और उसका सारा व्यक्तित्व चारों तरफ से सेक्स से भरा हुआ है। वह मंगलग्रह का वासी तो बहुत हैरान होगा। वह कहेगा, बात चीत कभी नहीं कि जाती जिस चीज की , उसको चारों तरफ से तृप्त करने की हजार-हजार पागल कोशिशें क्यों की जा रही है?
आदमी को हमने ‘’परवर्ट’’ किया है, विकृत किया है और अच्छे नामों के आधार पर विकृत किया है। ब्रह्मचर्य की बात हम करते है। लेकिन कभी इस बात की चेष्टा नहीं करते कि पहले मनुष्य की काम की ऊर्जा को समझा जाये, फिर उसे रूपान्तरित करने के प्रयोग भी किये जा सकते है। बिना उस ऊर्जा को समझे दमन की संयम की सारी शिक्षा, मनुष्य को पागल, विक्षिप्त और रूग्ण करेगी। इस संबंध में हमें कोई भी ध्यान नहीं है। यह मनुष्य इतना रूग्ण, इतना दीन-हीन कभी भी न था, इतना ‘पायजनस’ भी न था। इतना दुःखी भी न था।
मैं एक अस्पताल के पास से निकलता था। मैंने एक तख्ते पर अस्पताल के एक लिखी हुई सूचना पढ़ी। लिखा था तख्ती पर—‘’एक आदमी को बिच्छू ने काटा है, उसका इलाज किया गया है। वह एक दिन में ठीक होकर घर वापस चला गया। एक दूसरे आदमी को सांप ने काटा था। उसका तीन दिन में इलाज किया गया। और वह स्वास्थ हो कर घर वापिस चला गया। उस पर तीसरी सुचना थी कि एक और आदमी को पागल कुत्ते ने काट लिया था। उस का दस दिन में इलाज हो रहा है। वह काफी ठीक हो गया है और शीध्र ही उसके पूरी तरह ठीक हो जाने की उम्मीद है। और उस पर चौथी सूचना लिखी थी, कि एक आदमी को एक आदमी ने काट लिया था। उसे कई सप्ताह हो गये। वह बेहोश है, और उसके ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं है।
मैं बहुत हैरान हुआ। आदमी का काटा हुआ इतना जहरीला हो सकता है।
लेकिन अगर हम आदमी की तरफ देखोगें तो दिखाई पड़ेगा—आदमी के भीतर बहुत जहर इकट्ठा हो गया है। और उस जहर के इकट्ठे हो जाने का पहला सुत्र यह है कि हमने आदमी के निसर्ग को, उसकी प्रकृति को स्वीकार नहीं किया है। उसकी प्रकृति को दबाने और जबरदस्ती तोड़ने की चेष्टा की है। मनुष्य के भीतर जो शक्ति है। उस शक्ति को रूपांतरित करने का, ऊंचा ले जाने का, आकाशगामी बनाने का हमने कोई प्रयास नहीं किया। उस शक्ति के ऊपर हम जबरदस्ती कब्जा करके बैठ गये है। वह शक्ति नीचे से ज्वालामुखी की तरह उबल रही है। और धक्के दे रही है। वह आदमी को किसी भी क्षण उलटा देने की चेष्टा कर रही है। और इसलिए जरा सा मौका मिल जाता है तो आपको पता है सबसे पहली बात क्या होती है।
अगर एक हवाई जहाज गिर पड़े तो आपको सबसे पहले उस हवाई जहाज में अगर पायलट हो ओर आप उसके पास जाएं—उसकी लाश के पास तो आपको पहला प्रश्न क्या उठेगा, मन में। क्या आपको ख्याल आयेगा—यह हिन्दू है या मुसलमान? नहीं। क्या आपको ख्याल आयेगा कि यह भारतीय है या कि चीनी? नहीं। आपको पहला ख्याल आयेगा—वह आदमी है या औरत? पहला प्रश्न आपके मन में उठेगा, वह स्त्री है या पुरूष? क्या आपको ख्याल है इस बात का कि वह प्रश्न क्यों सबसे पहले ख्याल में आता है? भीतर दबा हुआ सेक्स है। उस सेक्स के दमन की वजह से बाहर स्त्रीयां और पुरूष अतिशय उभर कर दिखायी पड़ती है।
( क्रमश: अगले अंक में ………………देखें)
ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
गोवा लिया टैंक, बम्बई,
28—सितम्बर—1968,