सांसरिक कामों में लगे हुए, अवधान को दो श्वासों के बीच टिकाओ।
इस अभ्यास से थोड़े ही दिन में नया जन्म होगा।
‘’सांसरिक कामों में लगे हुए, अवधान को दो श्वासों के बीच टिकाओ…।‘’
श्वासों को भूल जाओं और उनके बीच में अवधान को लगाओ। एक श्वास भी तर आती है। इसके पहले कि वह लौट जाए, उसे बाहर छोड़ा जाए, वहां एक अंतराल होता है।
‘’सांसारिक कामों में लगे हुए।‘’ यह छठी विधि निरंतर करने की है। इसलिए कहा गया है, ‘’सांसारिक कामों में लगे हुए….’’ जो भी तुम कर रहे हो, उसमे अवधान को दो श्वासों के अंतराल में थिर रखो। लेकिन काम-काज में लगे हुए ही इसे साधना है।
ठीक ऐसी ही एक दूसरी विधि की चर्चा हम कर चुके है। अब फर्क इतना है कि इसे सांसारिक कामों में लगे हुए ही करना है। उससे अलग होकर इसे मत करो। यह साधना ही तब करो जब तुम कुछ और काम कर रहे हो।
तुम भोजन कर रहे हो, भोजन करते जाओ और अंतराल पर अवधान रखो। तुम चल रहे हो, चलते जाओ और अवधान को अंतराल पर टिकाओ। तुम सोने जा रहे हो, लेटो और नींद को आने दो। लेकिन तुम अंतराल के प्रति सजग रहो।
पर काम-काज में क्यों? क्योंकि काम-काज मन को डांवाडोल करता है। काम-काज में तुम्हारे अवधान को बार-बार भुलाना पड़ता है। तो डांवाडोल न हों; अंतराल में थिर रहें। काम-काज भी न रूके, चलता रहे। तब तुम्हारे अस्तित्व के दो तल हो जाएंगे। करना ओर होना। अस्तित्व के दो तल ओ गए; एक करने का जगत और दूसरा होने का जगत। एक परिधि है और दूसरा केंद्र। परिधि पर काम करते रहो, रूको नहीं; लेकिन केंद्र पर भी सावधानी से काम करते रहो। क्या होगा?
तुम्हारा काम-काज तब अभिनय हो जाएगा। मानों तुम कोई पार्ट अदा कर रहे हो। उदाहरण के लिए, तुम किसी नाटक म पार्ट कर रहे हो। तुम राम बने हो या क्राइस्ट बने हो। यद्यपि तुम राम या क्राइस्ट का अभिनय करते हो, तो भी तुम स्वयं बने रहते हो। केंद्र पर तुम जानते हो कि तुम कौन हो और परिधि पर तुम राम या क्राइस्ट का या किसी का पार्ट अदा करते हो। तुम जानते हो कि तुम राम नहीं हो, राम का अभिनय भर कर रहे हो। तुम कौन हो तुमको मालूम है। तुम्हारा अवधान तुममें केंद्रिय है। और तुम्हारा काम परिधि पर जारी है।
यदि इस विधि का अभ्यास हो तो पूरा जीवन एक लंबा नाटक बन जाएगा। तुम एक अभिनेता होगें। अभिनय भी करोगे और सदा अंतराल में केंद्रित रहोगे। जब तुम अंतराल को भूल जाओगे, तब तुम अभिनेता नहीं रहोगे, तब तुम कर्ता हो जाओगे। तब वह नाटक नहीं रहेगा। उसे तुम भूल से जीवन समझ लोगे।
यही हम सबने किया है। हर आदमी सोचता है कि वह जीवन जी रहा है। यह जीवन नहीं है। यह तो एक रोल है, एक पार्ट है, जो समाज ने, परिस्थितियों ने, संस्कृति ने, देश की परंपरा ने तुमको थमा दिया है। और तुम अभिनय कर रहे हो। और तुम इस अभिनय के साथ तादात्म्य भी कर बैठे हो। उसी तादात्म्य को तोड़ने के लिए यह विधि है।
कृष्ण के अनेक नाम है, कृष्ण सबसे कुशल अभिनेताओं में से एक है। वे सदा अपने में थिर है और खेल कर रहे है। लीला कर रहे है, बिलकुल गैर-गंभीर है। गंभीरता तादात्म्य से पैदा होती है।
यदि नाटक में तुम सच ही राम हो जाओ तो अवश्य समस्याएं खड़ी होगी। जब-जब सीता की चोरी होगी, तो तुमको दिल का दौरा पड़ सकता है। और पूरा नाटक बंद हो जाना भी निश्चित है। लेकिन अगर तुम बस अभिनय कर रहे हो तो सीता की चोरी से तुमको कुछ भी नहीं होता है। तुम अपने घर लौटोगे। और चैन से सो जाओगे। सपने में भी ख्याल न आएगा। की सीता की चोरी हुई।
जब सचमुच सीता चोरी गई थी तब राम स्वयं रो रहे थे। चीख रहे थे और वृक्षों से पूछ रहे थे कि सीता कहां है? कौन उसे ले गया? लेकिन यह समझने जैसी बात है। अगर राम सच में रो रहे है और पेड़ों से पूछ रहे है, तब तो वे तादाम्तयता कर बैठे , तब वे राम न रहे, ईश्वर न रहे, अवतार न रहे। यह स्मरण रखना चाहिए। कि राम के लिए उनका वास्तविक जीवन भी अभिनय ही था। जैसे दूसरे अभिनेताओं को तुमने राम का अभिनय करते देखा है, वैसे ही राम भी अभिनय कर रहे थे—नि:संदेह एक बड़े रंग मंच पर।
इस संबंध में भारत के पास एक खुबसूरत कथा है। मेरी दृष्टि में यह कथा अद्भुत है। संसार के किसी भी भाग में ऐसी कथा नहीं मिलेगी। कहते है कि वाल्मीकि ने राम के जन्म से पहले ही रामायण लिख दी। राम को केवल उसका अनुगमन करना था। इसलिए वास्तव में राम का पहला कृत्य भी अभिनय ही था। उनके जन्म के पहले ही कथा लिख दी गई थी, इसलिए उन्हें केवल उसका अनुगमन करना पडा। वे और क्या कर सकते थे। वाल्मीकि जैसा व्यक्ति जब कथा लिखता है, तब राम को अनुगमन करना होगा। इसलिए एक तरह से सब कुछ नियम था। सीता की चोरी होनी थी। और युद्ध का लड़ा जाना था।
यदि यह तुम समझ सको तो भाग्य के सिद्धांत को भी समझ सकते हो। इसका बड़ा गहरा अर्थ है। और अर्थ यह है कि यदि तुम समझ जाते हो कि तुम्हारे लिए यह सब कुछ नियम है तो जीवन नाटक हो जाता है। अब यदि तुमको राम का अभिनय करना है। तो तुम कैसे बदल सकते हो। सब कुछ नियत है, यहां तक कि तुम्हारा संवाद भी, डायलाग भी। अगर तुम सीता से कुछ कहते हो तो वह किसी नीयत वचन का दोहराना भर है।
यदि जीवन नियत है, तो तुम उसे बदल नहीं सकते। उदाहरण के लिए, एक विशेष दिन को तुम्हारी मृत्यु होने वाली है। यह नियत है। और तुम जब मरोगे तब रो रहे होगें; यह भी निश्चित है। और फलां-फलां लोग तुम्हारे पास होंगे। यह भी तय है। और यदि सब कुछ नीयत है, तय है, तब सब कुछ नाटक हो जाता है। यदि सब कुछ निश्चित है तो उसका अर्थ हुआ कि तुम केवल उसे अंजाम देने वाले हो। तुमको उसे जीना नहीं है। उसका अभिनय करना है।
यह विधि, छठी विधि , तुमको एक साइकोड्रामा, एक खेल बना देती है। तुम दो श्वासों के अंतराल में थिर हो और जीवन परिधि पर चल रहा है। यदि तुम्हारा अवधान केंद्र पर है, तो तुम्हारा अवधान परिधि पर नहीं है। परिधि पर जो है वह उपावधान है, वह कहीं तुम्हारे अवधान के पास घटित होता है। तुम उसे अनुभव कर सकते हो, उसे जान सकते हो, पर वह महत्वपूर्ण नहीं है। यह ऐसा है जैसे तुमको नहीं घटित हो रहा है।
मैं इसे दोहराता हूं, यदि तुम इस छठी विधि की साधना करो तो तुम्हारा समूचा जीवन ऐसा हो जाएगा जैसे वह तुमको न घटित होकर किसी दूसरे व्यक्ति को घटित हो रहा है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र
(तंत्र-सूत्र—भाग-1)
प्रवचन-5