‘’जब किसी इंद्रिय-विषय के द्वारा स्पष्ट बोध हो, उसी बोध में स्थित होओ।‘’
तुम अपनी आँख के द्वारा देखते हो। ध्यान रहे, तुम अपनी आँख के द्वारा देखते हो। आंखे नहीं देख सकती। उनके द्वारा तुम देखते हो। द्रष्टा पीछे छिपा है। भीतर छिपा है; आंखें बस द्वार है। झरोखे है। लेकिन हम सदा सोचते है कि हम आँख से देखते है। हम सोचते है कि हम कान से सुनते है। कभी किसी ने कान से नहीं सुना है। तुम कान के द्वारा सुनते हो। कान से नहीं। सुननेवाला पीछे है। कान तो रिसीवर है।
मैं तुम्हें छूता हूं, मैं बहुत प्रेमपूर्वक तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेता हूं। यह हाथ नहीं है। जो तुम्हें छूता है। यह मैं हूं, जो हाथ के द्वारा तुम्हें छू रहा है। हाथ यंत्र है। और स्पर्श से बचना भी दो भांति का है। एक, जब मैं सच ही तुम्हें स्पर्श करता हूं। और दूसरा, जब मैं स्पर्श से बचना चाहता हूं। मैं तुम्हें छूकर भी स्पर्श से बच सकता हूं। मैं अपने हाथ में न रहूँ। मैं हाथ से अपने को अलग कर सकता हूं।
इसे प्रयोग करके देखो, तुम्हें एक भिन्न अनुभव होगा। एक दूरी का अनुभव होगा1 किसी पर अपना हाथ रखो और अपने को अलग रखो; यहां सिर्फ मुर्दा हाथ होगा। तुम नहीं। और अगर दूसरा व्यक्ति संवेदनशील है तो उसे मुर्दा हाथ का एहसास हो जायेगा। वह अपने का अपमानित महसूस करेगा, आपके इस व्यवहार से। क्योंकि तुम उसे धोखा दे रहे हो। तुम छूने का दिखाव कर रहे हो।
स्त्रियां इस मामले में बहुत संवेदनशील है; तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते हो। स्पर्श के प्रति, शारीरिक स्पर्श के प्रति वे ज्यादा सजग है; वे जान जाती है। हो सकता है पति मीठी-मीठी बातें कर रहा हो। वह फूल ले आया हो। और कह रहा हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। लेकिन उसका स्पर्श कह देगा कि वह वहां नहीं है। और स्त्रियों को सहज बोध हो जाता है। कि कब तुम उनके साथ हो और कब नहीं। अगर तुम अपने मालिक नहीं हो तो तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते हो। अगर तुम्हें अपने ऊपर मलकियत नहीं है तो तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। और जो अपना मालिक है वह पति होना नहीं चाहेगा। वह कठिनाई है। तुम जो भी कहोगे तुम्हारा स्पर्श उसे झुठला देगा।
यह सूत्र कहता है कि इंद्रियाँ द्वार भर है—एक माध्यम, एक यंत्र, एक रिसीविंग स्टेशन और तुम उनके पीछे हो।
‘’जब किसी इंद्रिय-विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध हो, उसी बोध में स्थित होओ।‘’
संगीत सुनते हुए अपने को कान में मत खो दो। मत भूला दो; उस चैतन्य को स्मरण करो। जो पीछे छिपा है। होश रखो। किसी को देखते हुए इस विधि को प्रयोग करो। तुम यह प्रयोग मुझे देखते हुए अभी और यही कर सकते हो। क्या हो रहा है?
तुम मुझे आँख से देख सकते हो। और जब मैं कहता हूं आँख से तो उसका मतलब है कि तुम्हें इसका बोध नहीं है कि तुम आँख के पीछे छिपे हो। तुम मुझे आँख के द्वारा देख सकते हो। आँख एक यंत्र है। तुम आँख के पीछे खड़े हो। आँख के द्वारा देख रहे हो। जैसे किसी खिड़की या ऐनक के द्वारा देखता है।
तुमने बैंक में किसी क्लर्क को अपने ऐनक के ऊपर से देखते हुए देखा होगा। ऐनक उसकी नाक पर उतर आयी है। और वह देख रहा है। उसी ढंग से मुझे देखो, मेरी तरफ देखो, ऐसे देखो जैसे आँख से ऊपर से देखते हो। मानो तुम्हारी आंखें सरककर नीचे नाक पर आ गई हों और तुम उनके पीछे से मुझे देख रहे हो। अचानक तुम्हें गुणवत्ता में फर्क मालूम पड़ेगा तुम्हारा परिप्रेक्ष्य बदलता है। आंखे महज द्वार बन जाती है। और यह ध्यान बन जाता है।
सुनते समय कानों के द्वारा मात्र सुनो और अपने आंतरिक केंद्र के प्रति जागे रहो। स्पर्श करते हुए हाथ के द्वारा मात्र छुओ और आंतरिक केंद्र को स्मरण रखो जो पीछे छिपा है। किसी भी इंद्रिय से तुम्हें आंतरिक केंद्र की अनुभूति हो सकती है। और प्रत्येक इंद्रिय आंतरिक केंद्र तक जाती है। उसे सूचना देती है।
यहीं कारण है कि जब तुम मुझे देख और सुन रहे हो—जब तुम आँख के द्वारा देख रहे हो और कान के द्वारा सुन रहे हो—तो तुम जानते हो कि तुम उसी व्यक्ति को देख रहे हो। जिसे सुन भी रहे हो। अगर मेरे शरीर में कोई गंध है। तो तुम्हारी नाक उसे भी ग्रहण करेगी। उस हालत में तीन-तीन इंद्रियाँ एक ही केंद्र को सूचना दे रही है। इसी से तुम संयोजक कर पाते हो। अन्यथा संयोजन कठिन होता।
अगर तुम्हारी आंखे ही देखती है और कान ही सुनते है तो यह जानना कठिन होता है कि तुम उसी व्यक्ति को सुन रहे हो जिसे देख रहे हो। या दो भिन्न व्यक्तियों को देख और सुन रहे हो; क्योंकि दोनों इंद्रियाँ भिन्न है। और वे आपस में नहीं मिलती है। तुम्हारी आंखों को तुम्हारे कान का पता नहीं है। और तुम्हारे कान को तुम्हारी आंखों का कुछ पता नहीं है। वे एक दूसरे को नहीं जानते है। वे आपस में कभी मिले नहीं है। उनका एक दूसरे से परिचय भी नहीं है। तो फिर सारा समन्वय, सारा संयोजन कैसे घटित होता है?
कान सुनते है, आंखें देखती है, हाथ छूते है, नाक सूँघती है। और अचानक तुम्हारे भीतर कहीं कोई जान जाता है कि यह वही आदमी है जिसे में सुन रहा हूं। देख रहा हूं। सभी इंद्रियाँ इस ज्ञाता को ही सूचना देती है। और इस ज्ञाता में, इस केंद्र में सब कुछ सम्मिलित होकर, संयोजित होकर एक हो जाता है। यह चमत्कार है।
मैं एक हूं; तुम्हारे बहार से मैं एक हूं। मेरी शरीर, मेरे शरीर की उपस्थिति, उसकी गंध मेरा बोलना,सब एक है। लेकिन तुम्हारी इंद्रियाँ मुझे विभाजित कर देंगी। तुम्हारे कान मेरे बोलने की खबर देंगे। तुम्हारी नाक मेरी गंध की खबर देगी। और तुम्हारी आंखें मेरी उपस्थिति की खबर देंगी। वे इंद्रियाँ मुझे टुकड़ों में बांट देंगी। लेकिन फिर तुम्हारे भीतर कहीं पर मैं एक हो जाऊँगा। जहां तुम्हारे भीतर में एक होता है, वह तुम्हारे होने का केंद्र है। वह तुम्हारा बोध है। चैतन्य है। तुम उसे बिलकुल भूल गए हो। यह विस्मरण ही अज्ञान है। और बोध का चैतन्य आत्मा ज्ञान को द्वार खोलता है। तुम और किसी उपाय से अपने को नहीं जान सकते हो।
‘’जब किसी इंद्रिय-विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध हो। उसी होश में स्थित होओ।‘’
उसी बोध में रहो; उसी बोध में स्थित रहो। होश पूर्ण होओ।
आरंभ में यह कठिन है। हम बार-बार सो जाते है। और आँख के द्वारा देखना कठिन मालूम पड़ता है। आँख से देखना आसान है। आरंभ में थोड़ा तनाव अनुभव होगा और तुम आँख के द्वारा देखने की चेष्टा करोगे। और न केवल तुम तनाव अनुभव करोगे। वह व्यक्ति भी तनाव अनुभव करेगा जिसे तुम देखोगें।
अगर तुम किसी आँख के द्वारा देखोगें तो उसे लगेगा कि तुम अनुचित रूप से दखल दे रहे हो। कि तुम उसके साथ अभद्र व्यवहार कर रहे हो। तुम अगर आँख के द्वारा देखोगें तो दूसरे को अचानक अनुभव होगा कि तुम उसके साथ उचित व्यवहार नहीं कर रहे हो। क्योंकि तुम्हारी दृष्टि बेधक बन जाएगी। तुम्हारी दृष्टि गहराई में उतर जाएगी। अगर यह दृष्टि तुम्हारी गहराई से आती है। वह उसकी गहराई में प्रवेश कर जाएगी।
यही कारण है कि समाज ने एक बिल्ट-इन सुरक्षा की व्यवस्था कर रखी है। समाज कहता है कि जब तक तुम किसी के प्रेम में नहीं हो, उसे बहुत घूरकर मत देखो। अगर तुम प्रेम में हो तो देख सकते हो। तब तुम उसके अंतर्तम तक प्रवेश कर सकते हो। क्योंकि वह तुमसे भयभीत नहीं है। तब दूसरा तुम्हारे प्रति नग्न हो सकता है। समग्रता: नग्न हो सकता है। वह तुम्हारे प्रति खुला हो सकता है। लेकिन साधारणत: अगर तुम प्रेम में नहीं हो। तो किसी को घूरने की, बेधक दृष्टि देखने की मनाही है।
भारत में हम ऐसे आदमी को, जो दूसरे को घूरता है, लुच्चा कहते है। लुच्चा का अर्थ है, देखने वाला। लुच्चा शब्द लोचन से आता है। लुच्चा का अर्थ हुआ कि जो आँख ही बन गया है। इसलिए इस विधि का प्रयोग किसी अपरिचित पर मत करना। वह तुम्हें लुच्चा समझेगा। पहले इस विधि का प्रयोग ऐसे विषयों के साथ करो। जैसे फूल है, पेड़ है, रात के तारे है। वे इसे अनुचित दखल नहीं मानेंगे। वे एतराज नहीं उठाएंगे। बल्कि वे इसे पंसद करेंगे। उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। वे इसका स्वागत करेंगे।
तो पहले उनके साथ प्रयोग करो और फिर अपनी पत्नी, अपने बच्चे, अपने प्रियजनों के साथ। कभी अपने बच्चे को गोद में उठा लो और उसको आँख के द्वारा देखो। बच्चा इसे समझेगा, सराहेंगे। वह अन्य किसी से भी ज्यादा समझेगा। क्योंकि अभी समाज ने उसे पंगु नहीं बनाया है। विकृत नहीं किया है। वह अभी सहज है। तुम अगर उसे आँख के द्वारा देखोगें तो उसे प्रगाढ़ प्रेम की अनुभूति होगी। उसे तुम्हारी उपस्थिति का एहसास होगा।
अपने प्रेमी या प्रेमिका को ऐसे देखो। और फिर जैसे-जैसे तुम्हें इस बात की पकड़ आएगी। जैसे-जैसे तुम इसमें कुशल होगे वैसे-वैसे तुम धीरे-धीरे दूसरों को भी देखने में समर्थ हो जाओगे। क्योंकि तब किसी को पता नहीं चलेगा कि तुमने इस गहराई से उसे देखा । और जब अपनी इंद्रियों के पीछे सतत सजग होकर खड़े होगे की कला तुम्हारे हाथ आ जायेगी। तो इंद्रियाँ तुम्हें धोखा न दे पाएंगी। अन्यथा इंद्रियाँ धोखा देती है। ऐसे संसार में, जो सिर्फ भासता है। इंद्रियों ने तुम्हें उसे सच मानने का धोखा दिया है।
अगर तुम इंद्रियों के द्वारा देख सके। और सजग रह सके तो धीरे-धीरे संसार माया मालूम पड़ने लगेगा। स्वप्नवत मालूम पड़ने लगेगा। और तब तुम उसके तत्व में उसके मूल तत्व में प्रवेश कर सकोगे। यह मूल तत्व ही ब्रह्म है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन
प्रवचन-39