संभोग : परमात्मा की सृजन-ऊर्जा—4
वह दूसरा सूत्र है मनुष्य का यह भाव कि ‘मैं हूं’, ‘’ईगो’’, उसका अहंकार, कि मैं हूं। बुरे लोग तो कहते है कि मैं हूं। अच्छे लोग और जोर से कहते है ‘’मैं हूं’’—और मुझे स्वर्ग जाना है और मोक्ष जाना है और मुझे यह करना है और मुझे वह करना है। कि मैं हूं—वह ‘’मैं’’ खड़ा है वहां भीतर।
और जिस आदमी का ‘’मैं’’ जितना मजबूत होगा, उतनी ही उस आदमी की सामर्थ्य दूसरे से संयुक्त हो जाने की कम होती है। क्योंकि ‘’मैं’’ एक दीवान है, एक घोषणा है कि ‘’मैं हूं’’। मैं की घोषणा कह देती है; तुम-तुम हो, मैं-मैं हूं। दोनों के बीच फासला है। फिर मैं कितना ही प्रेम करूं और आपको अपनी छाती से लगा लूं, लेकिन फिर भी हम दो है। छातियां कितनी ही निकट आ जायें। फिर भी बीच मैं फासला है—मैं से तुम तक का। तुम-तुम हो मैं-मैं ही हूं। इसलिए निकटता अनुभव भी निकट नहीं ला पाते। शरीर पास बैठ जाते है। आदमी दूर बने रहते है। जब तक भीतर ‘’मैं’’ बैठा हुआ है, तब तक ‘’दूसरे’’ का भाव नष्ट नहीं होता।
सार्त्र ने कहीं एक अद्भुत वचन कहा है। कहा है कि ‘’दि अदर इज़ हेल’’ वह जो दूसरा है वह नर्क है। लेकिन सार्त्र ने यह नहीं कहा कि ‘’व्हाई दी अदर इज़ अदर’’ वह दूसरा-दूसरा क्यों है। वह दूसरा-दूसरा इसलिए है के मैं-मैं हूं। और जब मैं ‘’मैं’’ हूं दूनिया में हर चीज दूसरी है, भिन्न है। और जब तक भिन्नता है, तब तक प्रेम का अनुभव नहीं हो सकता।
प्रेम है एकात्म का अनुभव।
प्रेम है इस बात का अनुभव कि गिर गयी दीवाल और दो ऊर्जाऐं मिल गयीं और संयुक्त हो गयी।
जब यही अनुभव एक व्यक्ति और समस्त के बीच फलित होता है। तो उस अनुभव को मैं कहता हूं—परमात्मा। और जब दो व्यक्ति के बीच फलित होता है तो मैं उसे कहता हूं—प्रेम।
अगर मेरे और किसी दूसरे व्यक्ति के बीच यह अनुभव फलित हो जाये कि हमारी दीवालें गिर जायें, हम किसी भीतर के तल पर एक हो जायें; एक संगीत, एक धारा एक प्राण, तो यह अनुभव है प्रेम।
और ऐसा ही अनुभव मेरे और समस्त के बीच घटित हो जाये कि मैं विलीन हो जाऊँ और सब और मैं एक हो जाऊँ तो यह अनुभव है परमात्मा।
इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम है सीढ़ी और परमात्मा है उस यात्रा की अंतिम मंजिल। यह कैसे संभव है कि दूसरा मिट जाए, जब तक मैं न मिटू? जब तक दूसरा कैसे मिट सकता है? वह दूसरा पैदा किया है मेरे ‘’मैं’’ की प्रतिध्वनि ने। जितना जोर से मैं चिल्लाता हूं के मैं, उतने ही जोर से वह दूसरा पैदा हो जाता है। वह दूसरा प्रतिध्वनि है, उस तरफ ‘इको’ हो रह है मेरे ‘’मैं’’ की। और यह अंहकार,यह ‘’ईगो’’ द्वार पर दीवाल बनकर खड़ी है।
और ‘मैं’ है क्या? कभी सोचा आपने यह ‘मैं’ है क्या? आपका हाथ है; ‘’मैं’’, आपका पैर है, आपका मस्तिष्क है, आपका ह्रदय है, क्या है आपका मैं?
अगर आप एक क्षण भी शांत होकर भीतर खोजने जायेंगे कि कहां है ‘’मैं’’ कौन सी चीज है मैं, तो आप एक दम हैरान रह जायेगे कि भीतर कोई ‘’मैं’’ खोज से मिलने का नहीं है। जितना गहरा खोजते जाओगे, उतना ही पाओगे, कि भीतर एक सन्नाटा और शून्य है, वहां कोई मैं नहीं है, वहां कोई ‘’आई’’ वहां कोई ‘’ईगो’’ नहीं है।
एक भिक्षु हुआ नाग सेन उसे एक दिन सम्राट मिलिन्द ने निमंत्रण दिया था कि तुम आओ दरबार में। जो राजदूत गया था निमंत्रण देने, उसने नाग सेन को कहा कि भिक्षु नाग सेन, आपको बुलाया है सम्राट मिलिन्द ने। मैं निमंत्रण देने आया हूं। तो नाग सेन कहने लगा, मैं चलूंगा जरूर; लेकिन एक बात विनय कर दूँ; पहले ही कह दूँ कि भिक्षु नाग सेन जैसा कोई है नहीं। यह केवल एक नाम है, कामचलाऊ नाम। आप कहते है तो मैं चलूंगा जरूर,लेकिन ऐसा कोई आदमी कहीं है नहीं।
राज दूत ने जाकर सम्राट को कहा की बड़ा अजीब आदमी है वह। वह कहने लगा कि मैं चलूंगा जरूर,लेकिन ध्यान रहे कि भिक्षु नाग सेन जैसा कहीं कोई है नहीं, यह केवल एक कामचलाऊ नाम है। सम्राट ने कहा, अजीब सी बात है, जब वह कहता है, मैं चलूंगा। आयेगा वह।
वह आया भी रथ र बैठकर। सम्राट ने द्वार पर स्वागत किया और कहा भिक्षु नाग सेन, हम स्वागत करते है आपका।
वह हंसने लगा। उसने कहा,स्वागत स्वीकार करता हूं। लेकिन स्मरण रहे भिक्षु नाग सेन जैसा कोई आदमी नहीं है।
सम्राट कहने लगा बड़ी अजीब पहली है। आगर आप-आप नहीं है तो कौन है? कौन आया है इस रथ पर बैठ कर, कौन स्वागत स्वीकार रहा है, कौन दे रहा है उत्तर?
नाग सेन मुड़ा और उसने कहा, देखते है, सम्राट मिलिन्द, यह रथ खड़ा है जिस पर मैं बैठ कर आय हूं। सम्राट ने कहां, हाँ यह रथ है। तो भिक्षु ने कहां की घोड़ों को निकला कर अलग कर दिया जाये, घोड़े अलग कर दिये, तब भिक्षु नाग सेन ने सम्राट से पूछा की क्या ये घोड़ रथ है?
सम्राट ने कहां, घोड़े रथ कैसे हो सकते है? घोड़े अलग कर दिये गये, सामने के डंडे जिनसे घोड़े बंधे थे, खिंचवा लिए गये।
उसने पूछा क्या ये रथ है?
सिर्फ दो डंडे रथ कैसे हो सकते है? डंडे अलग कर दिये गये, चाक निकलवा दिये गये, और एक-एक अंग रथ का निकलता चला गया। और एक-एक अंग पर सम्राट को कहना पडा कि नहीं, ये रथ नहीं है। फिर आखिर पीछे शून्य बच गया, वहां कुछ भी नहीं बचा।
भिक्षु नाग सेन पूछने लगा, रथ कहां है अब? रथ कहा है अब, और जितनी चीजें मैंने निकालीं, तुमने कहा ये भी रथ नहीं, ये भी रथ नहीं, ये रथ गया कहां, अब ये रथ कहां है?
तो सम्राट चौक कर खड़ा हो गया—रथ एक जोड़ था। रथ कुछ चीजों का संग्रह-मात्र था। रथ का अपना होना नही है, कोई ‘’ईगो’’ नहीं है। रथ एक जोड़ है।
आप खोजें कहां है आपका ‘’मैं’’ और आप पायेंगे कि अनंत शक्तियों के एक जोड़ है; मैं कहीं भी नहीं है। और एक-एक अंग आप सोचते चले जायें तो एक-एक अंग समाप्त होता चला जाता है, फिर पीछे शून्य रह जाता है। उसी शून्य से प्रेम का जन्म होता है। क्योंकि वह शून्य आप नहीं है वह शून्य परमात्मा है।
एक आदमी ने गांव में एक मछलियों की दूकान खोली थी। बड़ी दुकान थी। उस गांव में पहली दुकान थी। तो उसने एक बहुत खूबसूरत तख्ती बनवायी और उस पर लिखवाया–”फ्रेश फिश सोल्ड हियर”—यहां ताजी मछलियाँ बेची जाती है।
पहले ही दिन दुकान खुला और एक आदमी आया ओर कहने लगा, ”फ्रेश फिश सोल्ड हियर”? ताजी मछलियाँ? कहीं बासी मछलियाँ भी बेची जाती है? ताजा लिखने की क्या जरूरत है?
दुकानदार ने सोचा कि बात तो ठीक है। इससे और व्यर्थ बातों का ख्याल पैदा होता है। उसने ”फ्रेश” अलग कर दिया, ताजा अलग कर दिया। तख्ती रह गयी ”फिश सोल्ड हियर” मछलियाँ बेची जाती है। मछलियाँ यहां बेची जाती है।
दूसरे दिन एक बूढ़ी औरत आयी और उसने कहां कि मछलियाँ यहां बेची जाती है–”फिश सोल्ड हियर” कहीं और भी बेची जाती है।
तो उस आदमी ने कहा की यह ”हियर” बिलकुल फिजूल है, उसने तख्ती पर से एक शब्द और अलग कर दिया। रह गया ”फिश सोल्ड”।
तीसरे दिन एक आदमी आया और कहने लगा ”फिश सोल्ड” मछलियाँ बेची जाती है? मुफ्त में देते हो क्या?
आदमी ने कहा, यह ”सोल्ड” भी खराब है, उसने सोल्ड को भी अलग कर दिया। अब रह गई ”फिश”
अगले दिन एक बूढ़ा आदमी आया और कहने लगा, ”फिश”? अंधे को भी मीलों दूर से पता चल जाता है, कि यहां मछलियाँ मिलती है। ये तख्ती काहे को लटका रखी है ?
‘’फिश’’ भी चली गयी। खाली तख्ती रह गई।
अगले दिन एक आदमी आया, वह कहने लगा, यह तख्ती किस लिए लगी है? दूर से देखने में पता नहीं चलता की यहां दुकान भी है। यह तख्ती दुकान की आड़ करती है। उस दिन वह तख्ती भी चली गई। वहां अब कुछ भी नहीं रहा। इलीमिनेशन होता गया। एक-एक चीज हटती चली गयी। पीछे जो शेष रह गया वह है, शुन्य।
उस शुन्य से प्रेम का जन्म होता है, क्योंकि उस शून्य में दूसरे के शून्य से मिलने की क्षमता है। सिर्फ शून्य ही शून्य से मिल सकता है, और कोई नहीं। दो शून्य मिल सकते है। दो व्यक्ति नहीं। दो इन्डीवीज्युल नहीं मिल सकते; दो वैक्यूम, दो एमप्टीनेसेस मिल सकते है; क्योंकि बाधा अब कोई नहीं है। शून्य की कोई दीवाल नहीं होती और हर चीज की दीवाल होती है।
तो दूसरी बात स्मरणीय है कि व्यक्ति जब मिटता है, नहीं रह जाता,पाता है कि ‘’हूं’’ है ही नहीं। तो है, वह ‘’मैं नहीं है, जो है वह ‘’सब’’ है। तब द्वार गिरता है, दीवाल टूटती है,है,ब वह गंगा बहती है, जो भीतर छिपी है और तैयार है। वह शून्य की प्रतीक्षा कर रही है। कि कोई शून्य हो जाये तो उससे बह उठूं।
हम एक कुआं खोदते है, पानी भीतर है। पानी कहीं से लाना नहीं होता है। लेकिन बीच में मिट्टी-पत्थर पड़े है। उनको निकलना है, करते क्या है हम? करते है हम—एक शून्य बनाते है, एक खाली जगह बनाते है। एक एमप्टीनेस बनाते है। कुआं खोदने का मतलब है: खाली जगह बनाना, ताकि खाली जगह में जो भीतर छीपा हुआ है, पानी, वह प्रकट हो जाये, स्पेस पा जाये। वह भीतर है, उसको जगह चाहिए प्रकट होने को । जगह नहीं मिल रही है। भरा हुआ है कुआं मिट्टी पत्थर हमने अलग कर दिये, वह पानी उबल कर बाहर आ गया।
आदमी के भीतर प्रेम भरा हुआ है, स्पेस चाहिए,जगह चाहिए, जहां वह प्रकट हो जाये।
और हम भरे हुए है अपने को ‘’मैं’’ से। और आदमी चिल्लाये चला जा रहा है ‘’मैं’’। और स्मरण रखें जब आपकी आत्मा चिल्लाती है मैं, तब तक आप मिट्टी-पत्थर से भरे हुए कुएं है। आप के कुएं में प्रेम के झरने कभी नहीं दिखाई देते। नहीं फूटते, नहीं फूट सकते।
मैंने सूना है एक बहुत पुराना वृक्ष था। आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे। उस पर फल आते थे तो दूर-दूर से पक्षी सुगंध लेते आते थे। उस पर फूल लगते थे तो तितलियां उड़ती चली आती थी। उसकी छाया, उसके फैले हाथ, हवाओं में उसका वह खड़ा रूप आकाश में बड़ा सुन्दर लगता था। एक छोटा सा बच्चा उसकी छाया में रोज खेलने आता था। उस बड़े वृक्ष को उस छोटे बच्चे से प्रेम हो गया।
बड़ों को छोटों से प्रेम हो सकता है। अगर बड़ों को पता न हो कि हम बड़े है। वृक्ष को कोई पता नहीं था कि मैं बड़ा हूं, वह पता सिर्फ आदमियों को होता है। इसलिए उसका प्रेम मर गया है, और वृक्ष अभी निर्दोष है निष्कलुष है उन्हें नहीं पता की मैं बड़ा हूं।
अहंकार हमेशा अपने से बड़ों से प्रेम करने की कोशिश करता है। अहंकार हमेशा अपनों से बड़ों से संबंध जोड़ता है। प्रेम के लिए कोई बड़ा छोटा नहीं है। जो आ जाएं, उसी से संबंध जूड़ जाता है।
वह एक छोटा सा बच्चा खेलने आता था, उस वृक्ष के पास। उस वृक्ष का उससे प्रेम हो गया। लेकिन वृक्ष की शाखाएं ऊपर थीं। बच्चा छोटा था तो वृक्ष अपनी शाखाएं उसके लिए नीचे झुकाता, ताकि वह फल तोड़ सके, फूल तोड़ सके।
प्रेम हमेशा झुकने को राज़ी है, अहंकार कभी भी नहीं झुकने को राज़ी होता है।
अहंकार के पास जायेंगे तो अहंकार के हाथ और ऊपर उठ जायेंगे। ताकि आप उन्हें छू न सकें। क्योंकि जिसे छू लिया जाये। वह छोटा आदमी है। जिसे न छुआ जा सके, दूर सिंहासन पर दिल्ली में हो, वह आदमी बड़ा आदमी है।
उस वृक्ष की शाखाएं नीचे झुक आती थी, जब वह बच्चा खेलता हुआ आता उस वृक्ष के पास, और वह जब उसका फूल तोड़ता, तब वह वृक्ष अंदर तक सिहर जाता, प्रेम की छुअन से सराबोर हो जाता। और खुशी के मारे उसकी शाखाएं नाचने झूमने लगती। उसके प्राण आनंद से भर जाते।
प्रेम जब भी कुछ दे पाता है तो खुश हो जाता है।
अहंकार जब भी कुछ ले पाता है, तभी खुश होता है।
फिर वह बच्चा बड़ा होने लगा। वह कभी उसकी छाया में सोता, कभी उसके फल खाता, कभी उसके फूलों का ताज बनाकर पहनता, वृक्ष उसे जंगल के सम्राट के रूप में देख कर गद्द गद हो जोता।
प्रेम के फूल जिसके पास भी बरसतें हैं, वही सम्राट हो जाता है, वृक्ष के प्राण आनंद से भर जाते, उसकी छूआन उसे अन्दर तक गुदगुदा जाती। हवा जब उसके पता को छूती तो उससे मधुर गान निकलता। नये-नये गीत फूटते उस बच्चे के संग।
वह लड़का कुछ और बड़ा हुआ। वह वृक्ष के उपर चढ़ने लगा। उसकी शाखाओं से झुलने लगा। वह उस की विशाल शाखाओं पर लेट कर विश्राम करता। वृक्ष आनंदित हो उठता। प्रेम आनंदित होता है जब प्रेम किसी के लिए छाया बन जाता है।
अहंकार आनंदित होता है जब किसी की छाया छीन लेता है।
लड़का धीरे-धीरे बड़ा होता चला गया। दिन पर दिन बीतते ही चले गये, मानों समय को पंख लग गये। ऋतु पर ऋतु बदलती चली गयी। वृक्ष को पता ही नहीं चला उस समय का। जब हम आनंद में होते है तो समय की गति तेज हो जाती है। मानों उसके पंख लग गये हो। तब लड़का बड़ा हो गया तो उसे और दूसरे काम भी उसकी दुनियां में आ गये। महत्वकांक्षाएं आ गई। उसे परीक्षाए पास करनी थी। उसे मित्रों के साथ भी खेलना था। पढ़ाई में सब को पछाड़ कर अव्वल आना था। धीरे-धीरे उसका आना कम से कमतर होता चला गया। कभी आता कभी नहीं आता। लेकिन वृक्ष तो हमेशा उसकी राह ताकता रहता। की वह कब आये और उसके उपर चढ़े उसकी टहनीयों से खोले, उसके फूल तोड़े। उसके फल खाये। लेकिन वह हफ्तों महीनों बाद कभी आता। वृक्ष उसकी प्रतीक्षा करता कि वह आये। वह आये। उसके सारे प्राण पुकारते कि आओ-आओ।
प्रेम निरंतर प्रतीक्षा करता है कि आओ-आओ।
प्रेम एक प्रतीक्षा है, एक अवेटिंग है।
लेकिन वह कभी आता, कभी नहीं आता, तो वृक्ष उदास रहने लगा।
प्रेम की एक ही उदासी है जब वह बांट नहीं सकता। तब वह उदास हो जाता है। जब वह दे नहीं पाता, तो उदास हो जाता है।
और प्रेम की एक ही धन्यता है कि जब वह बांट देता है, लुटा देता है तो आनंदित हो जाता है।
फिर लड़का और बड़ा होता चला गया। और वृक्ष के पास आने के दिन कम होत चले गये।
जो आदमी जितना बड़ा होता चला जाता है महत्वाकांक्षा के जगत में, प्रेम के निकट आने की सुविधा उतनी ही कम होती चली जाती है। उस लड़के की महत्वाकांक्षा बढ़ रही थी। कहां अब वृक्ष के पास जाना।
फिर एक दिन वह वहां से निकला जा रहा था, तो उस वृक्ष ने उसे पुकार की सुनो। हवाओं ने पत्तों ने उसकी आवाज को गुंजायमान किया। तुम आते नहीं, मैं प्रतीक्षा करता हूं, मैं रोज तुम्हारी राह देखता हूं, कि तुम इधर आओ, मेरी आंखें थक जाती है। पर तुम अब इधर नहीं आते क्यों?
उस लड़के ने एक बार घुर कर देखा उस वृक्ष को और कहां की क्या है तुम्हारे पास। जो मैं आऊं,मुझे तो रूपये चाहिए।
हमेशा अहंकार पूछता है, कि क्या हे तुम्हारे पास, जो मैं आऊं। अहंकार मांगता है कि कुछ हो तो मैं आऊं। न कुछ हो तो आने की जरूरत नहीं है।
अहंकार एक प्रयोजन है, एक परपज़ है। प्रयोजन पूरा होता है तो मैं आऊं। अगर कोई प्रयोजन न हो तो आने की जरूरत क्या है।
और प्रेम निष्प्रयोजन है। प्रेम का कोई प्रयोजन नहीं। प्रेम अपने में ही अपना प्रयोजन है, वह बिलकुल पर्पजलेस है।
वृक्ष तो चौंक गया। उसने कहा, तुम तभी आओगे, जब मैं तुम्हें कुछ दूँ। मैं तुम्हें सब दे सकता हूं। क्योंकि प्रेम कुछ भी रोकना नहीं चाहता। जो रो ले वह प्रेम नहीं है। अहंकार रोकता है। प्रेम तो बेशर्त देता है। लेकिन ये रूपये तो मेरे पास नहीं है। ये रूपये तो आदमी की ईजाद है। उसी का रोग है अभी हमे नहीं लगा। हम बचे है अभी।
उस वृक्ष ने कहां, इस लिए तो देखो हम इतने आनंदित है। पर मनुष्य के संग साथ रह कर हम उसके रोक को पाल लेते है। वरना तो हमारे उत्सव को देखो इन खीलें फूलों को देखो, इतने विशाल तने, इनकी छाया। इनपर पक्षियों का चहकना। अपने घर बनाना। खेलना नाचना। कलरव करना। देखो हम कितने नाचते है आकाश में , कितने गीत गाते है। क्योंकि हमारे पास पैसा नहीं है। हम आदमी की तरह दीन-हीन मंदिरों में बैठ कर, शांति की कामना करते है। कि कैसे पाई जाये। सर टरकाते है उसके चरणों में कि हमें कुछ तो दो हम पड़े है तेरे द्वार…पर हमारे पास पैसा नहीं है।
तो उसने कहा, फिर क्यों आऊं में तुम्हारे पास। जहां पर रूपये है मुझे तो वहीं जाना है। तुम समझते नहीं हमारी मजबूरी, क्योंकि तुम्हें पैसे की जरूरत नहीं है। पानी तुम्हें कुदरत से मिल जाता है, जिस मिट्टी पर तुम खड़े हो वह तुम्हें मुफ्त में मिल गई है। हवा, धूप जो तुम्हें पोशण देती है उसके लिए तुम्हें कुछ देना नहीं होता। पर हमें तो सब पैसे से ही लेना है, हमारा जीवन तो पैसे से ही चला है…..अब ये बात तुम्हें कैसे समझाऊं।
अहंकार रूपये मांगता है। क्योंकि रूपया शक्ति है, सुरक्षा है।
उस वृक्ष ने बहुत सोचा, फिर उसे ख्याल आया….तो तुम एक काम तो कर सकते हो, मेरे सारे फल तोड़ कर ले जाओ ओर बेच दो उसे बाजार में, फिर तुम्हें शायद पैसा मिल जाये।
उस लड़के की आंखों में चमक आ गई। उसे तो ये ख्याल ही नहीं आया था। वह खुशी से राजा हो गया। वह चढ़ गया उस वृक्ष पर और तोड़ने लगा फल, पर आज उसके हाथों में कुरता थी, उसके चढ़ने से भी उस वृक्ष को कुछ भारी पन लग रहा था। उसने फलों के साथ तोड़ डालें हजारों पत्ते, टहनीया, वृक्ष को पीड़ा होती पर वह यह जान कर आनंदित होता की ये पीड़ा उसके प्रेमी ने ही तो दी है। प्रेम पीड़ा में भी आनंद देख लेता है। और अहंकार उदारता में भी दु:ख। लेकिन फिर भी वह वृक्ष खुश था कि इस बहाने उसे उस का संग साथ तो मिला।
टूटकर भी प्रेम आनंदित हो जाता है।
अहंकार पाकर भी आनंदित नहीं होता। पाकर भी दु:खी होता है। ओर उस लड़के ने तो धन्यवाद भी नहीं दिया और सारे फल ले कर चल दिया बाजार की और। वृक्ष उसे निहारता रहा। जाते हुए देखता रहा, अपने को तृप्त करता रहा पर उसने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
लेकिन उस वृक्ष को पता भी नहीं चला। उसे तो धन्यवाद मिल गया इसी में कि उस लड़के ने उसके प्रेम को स्वीकार किया। और उससे फल तोड़े और उन्हें बेचकर उसे धन मिल जायेगा। वह यह सोच-सोच कर गद्द गद हो रहा था।
लेकिन इसके बाद भी वह लड़का बहुत दिनों तक नहीं आया। उसके पास रूपये थे,और रुपयों से रूपये पैदा करने की कोशिश में वह लग गया। वह भूल ही गया उस बात को। कि वह पैसा उसे उसी वृक्ष के प्रेम की देन है। सालों गुजर गये।
और धीरे-धीरे वृक्ष की उदासी उसके पत्तों पर भी उभरने लगी। तेज हवा ये उसे खड़खड़ाती जरूर पर अब उनमें वह लय वदिता नहीं थी। एक मुर्दे की सी खड़खड़ाहट थी। वह इस लिए जीवत भी की उसके प्राणों में रस का संचार हाँ रहा था। उसके प्राणा को रस बार-बार पुकारता उस लड़के को की तू मेरे पास आ मैं तुझे अपना रस दूँगा। जैसे किसी मां के स्तन में दूध भरा हो और उसका बेटा खो जाये। और उसके प्राण तड़प रहे है कि उसका बेटा कहां है जिसे वह खोजें, जो उसे हलका कर दे। निर्भार कर दे। ऐसा उस वृक्ष के प्राण पीड़ित होने लगे कि वह आये—आये,आये। उसके प्राणों की सारी आवाज में यही गुंज रहा था। आओ-आओ।
बहुत दिनों के बाद वह आया। वह लड़का प्रौढ़ हो गया था। वृक्ष ने उससे कहा आओ मेरे पास। मेरे आलिंगन में आओ। उसने कहा छोड़ो,यह बकवास। यह बचपन की बातें है। अब में बड़ा हो गया हुं मेरे कंधों पर घर गृहस्थी का बोझ आ गये है। ये सब तुम नहीं समझ सकते।
अहंकार प्रेम को पागलपन समझता है। बचपन की बातें समझता है।
उस वृक्ष ने कहा, आओ मेरी डलियों से झूलों—नाचो, चढ़ो मुझ पर। दौड़ों भागों….
उसने कहा छोड़ो भी ये फजूल की सब बातें,क्या रखा इन सब में। समय खराब करना ही है। मुझे एक मकार बनाना है। तुम मुझे मकान दे सकते हो?
वृक्ष ने कहा, मकान? वह क्या होता है, हम तो कोई मकान नहीं बनाते। क्यों बनाओगे तूम मकान। क्या काम आयेगा। और भी पशु पक्षी भी मकान, घोसला बनाते, है चींटियाँ, दीमक,पर वह तो आदमी की तरह दुःखी नहीं होती। वह तो बड़े आनंद उत्सव से उसके बनाने कास आनंद लेती है। फिर तुम इतने उदास क्यों है? लेकिन एक बात हो सकती है, मैं क्या सहायता कर सकता हूं तुम्हारे मकान बनाने के लिए…..कोई हो तो कहो।
वह आदमी थोड़ी देर के लिए तो चुप हो गया। उसके दिल की बात ज़ुंबाँ पर आते-आते रूक गई। पर वह साहस कर के कहने लगा। तुम अपनी शाखाएं मुझे दे दो तो में अपने मकान की छात आराम से डाल सकता हूं। वृक्ष मुस्कुराया और कहने लगा तो इसमें इतना सोचने की क्या बता है। तुम ले सकते हो मेरी शाखाएं। मैं तुम्हारे किसी भी काम आ सकूँ तो अपने को धन्य ही मानूँगा। और मुझे लगेगा की तुमने मुझे प्यार किया।
और वह आदमी गया और कुल्हाड़ी लेकिर आ गया और उसने उस वृक्ष की शाखाएं काट डाली। वृक्ष एक ठूंठ रह गया। एक दम मृत प्राय, नग्न, पर फिर भी वह वृक्ष आनंदित था।
प्रेम सदा आनंदित रहता है। चाहे उसके अंग भी काटे जायें। लेकिन कोई ले जाये, कोई ले जाये, कोई बांट ले, कोई सम्मिलित हो जाये, कोई साझीदार हो जाये।
और उस आदमी ने पीछे मुड़ कर इस बार भी नहीं देखा।
और वक्त गुजरता गया। वह ठूंठ राह देखता रहा, वह चिल्लाना चाहता था। कहना चाहता था, अपने ह्रदय की पुकार, पर अब उसके पास पत्ते भी नहीं थे। शाखाएं भी नहीं थी। हवाएँ आती और वह उनसे बात भी नहीं कर पाता था। बुला भी नहीं पाता था अपने प्रेमी को। लेकिन प्राणों में अब भी एक गुंज थी आओ-आओ….एक बार फिर आओ।
और बहुत दिन बीत गये। तब वह बच्चा अब बूढा आदमी हो गया था। वह निकल रहा था उसके पास से। और वह वृक्ष के पास आकर खड़ा हो गया। बहुत दिनों बाद आये, पर तुम्हें मेरी याद सताती तो है। कहो सब ठीक है। कैसे उदास हो। कमर झुक गई है। बाल सफेद हो गये। आंखों पर चशमा लगा गया है। उसने कहा में प्रदेश जाना चाहता हूं। यहां इतनी मेहनत की कुछ नहीं मिला। वहां जा कर खूब धन कमाऊगां। पर मैं नदी पर नहीं कर सकता। उसके लिए नाव चाहिए। तुम अपना तना मुझे दे दो तो मैं नाव बना जा सकता हूं। नाव तो तुम मेरी बना सकते हो, पर मुझे भूल मत जाना वहां जाकर। मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। तुम लोट कर जरूर इधर आना। मैं यहां तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा।
और उसने उस वृक्ष के तने को काट कर नाव बना ली। वहां रह गया एक छोटा सा ठूंठ, और वह आदमी दूर यात्रा पर निकल गया। और वह ठूंठ उसकी प्रतीक्षा करता रहा की अब आयेगा। अब आयेगा। लेकिन अब तो उसके पास कुछ भी नहीं था। उसे देने की लिए शायद वह कभी इधर नहीं आयेगा। क्योंकि अहंकार वहीं आता है। जहां कुछ पाने को है। अहंकार वहीं नहीं जाता,जहां कुछ पाने को नहीं है।
मैं उस ठूंठ के पास एक रात मेहमान हुआ था। तो वह ठूंठ मुझसे बोला कि वह मेरा मित्र अब तक नहीं आया। और मुझे बड़ी पीड़ा होती है। की वह ठीक से तो है। वह मेरे तने की नाव बना कर परदेश गया था। कही मेरे तने में कोई छेद तो नहीं था। मुझे रात दिन यही चिंता सताये जाती है। बस एक बार यह पता चल जाये की वह जहां भी है खुश है। तो में तृप्त हो जाऊँगा। एक खबर मुझे भर कोई ला दे। अब मैं मरने के करीब हूं। इतना पता चल जाये कि वह सकुशल है, फिर कोई बात नहीं। फिर सब ठीक है। अब तो मेरे पास देने को कुछ नहीं है। इसलिए बूलाऊं भी तो शायद वह नहीं आयेगा। क्योंकि वह केवल लेने की ही भाषा समझता है।
अहंकार लेने की भाषा समझता है।
प्रेम देने की भाषा है।
इससे ज्यादा ओर कुछ भी मैं नहीं कहूंगा।
जीवन एक ऐसा वृक्ष बन जाये और उस वृक्ष की शाखाएं अनंत तक फैल जायें। सब उसकी छाया में हों और सब तक उसकी बाँहें फैल जायें तो पता चल सकता है कि प्रेम क्या है।
प्रेम का कोई शस्त्र नहीं है। न कोई परिभाषा है। नहीं प्रेम का कोई सिद्धांत ही है।
तो मैं बहुत हैरानी मैं था कि क्या कहूंगा आपसे की प्रेम क्या है, तो बताना मुश्किल है। आकर बैठ सकता हूं—और अगर मेरी आंखों में वह दिखाई पड़ जाये तो दिखाई पड़ सकता है। अगर मेरे हाथों में दिखाई पड़ जाये तो दिखाई पड़ सकता है। मैं कह सकता हूं ये है प्रेम ।
लेकिन प्रेम क्या है? अगर मेरी आँख में न दिखाई पड़े मेरे हाथ में न दिखाई पड़े, तो शब्दों में तो बिलकुल भी दिखाई नहीं पडा सकता है कि प्रेम क्या है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहित हूं, और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करे।
–ओशो
संभोग से समाधि की और
भारतीय विद्या भवन,बम्बई,
28 अगस्त 1968,
प्रवचन—1