समाधि : संभोग-उर्जा का अध्यात्मिक नियोजन—5
लेकिन मैं जिस सेक्स की बात कर रहा हूं, वह तीसरा तल है। वह न आज तक पूरब में पैदा हुआ है, न पश्चिम में। वह तीसरा तल है स्प्रिचुअल, वह तीसरा तल है, अध्यात्मिक। शरीर के तल पर भी एक स्थिरता है। क्योंकि शरीर जड़ है। और आत्मा के तल पर भी स्थिरता है, क्योंकि आत्मा के तल पर कोई परिवर्तन कभी होता ही नहीं। वहां सब शांत है, वहां सब सनातन है। बीच में एक तल है मन का जहां पारे की तरह तरल है मन। जरा में बदल जाता है।
पश्चिम मन के साथ प्रयोग कर रहा है इसलिए विवाह टूट रहा है। परिवार नष्ट हो रहा है। मन के साथ विवाह और परिवार खड़े नहीं रह सकते। अभी दो वर्ष में तलाक है, कल दो घंटे में तलाक हो सकता है। मन तो घंटे भर में बदल जाता है। तो पश्चिम का सारा समाज अस्त-व्यस्त हो गया है। पूरब का समाज व्यवस्थित था। लेकिन सेक्स की जो गहरी अनुभूति थी, वह पूरब को अपलब्ध नहीं हो सकी।
एक और स्थिरता है, एक और घड़ी है अध्यात्म की। उस तल पर जो पति-पत्नी एक बार मिल जाते है या दो व्यक्ति एक बार मिल जाते है। उन्हें तो ऐसा लगता है कि वे अनंत जन्मों के लिए एक हो गये। वहां फिर कोई परिवर्तन नहीं है। उस तल पर चाहिए स्थिरता। उस तल पर चाहिए अनुभव।
तो मैं जिस अनुभव की बात कर रहा हूं,जिस सेक्स की बात कहर रहा हूं। वह स्प्रिचुअल सेक्स हे। अध्यात्मिक अर्थ नियोजन करना चाहता हूं काम की वासना में। और अगर मेरी यह बात समझेंगे तो आपको पता चल जायेगा। कि मां का बेटे के प्रति जो प्रेम है, वह आध्यात्मिक काम है। वह स्प्रिचुअल सेक्स का हिस्सा है। आप कहेंगे यह तो बहुत उलटी बात है…मां को बेटे के प्रति काम का क्या संबंध?
लेकिन जैसा मैंने कहा कि पुरूष और स्त्री पति और पत्नी एक क्षण के लिए मिलते है, एक क्षण के लिए दोनों की आत्माएं एक हो जाती है। और उस घड़ी में जो उन्हें आनंद का अनुभव होता है। वही उनको बांधने वाला हो जाता है।
कभी आपने सोचा कि मां के पेट में बेटा नौ महीने तक रहता है। और मां के आस्तित्व से मिला रहता है। पति एक क्षण को मिलता है। बेटा नौ महीने के लिए होता है इक्ट्ठा होता है। इसीलिए मां का बेटे से जो गहरा संबंध है, वह पति से भी कभी नहीं होता। हो भी नहीं सकता। पति एक क्षण के लिए मिलता है आस्तित्व के तल पर, जहां एग्ज़िसटैंस है, जहां बीइंग है, वहां एक क्षण को मिलता है, फिर बिछुड़ जाता है। एक क्षण को करीब आते है ओर फिर कोसों का फासला शुरू हो जाता है।
लेकिन बेटा नौ महीने तक मां की सांस से सांस लेता है। मां के ह्रदय से धड़कता है। मां के खून, मां के प्राण से प्राण, उसका अपना कोई आस्तित्व नहीं होता है। वह मां का एक हिस्सा होता है। इसीलिए स्त्री मां बने बिना कभी भी पूरी तरह तृप्त नहीं हो पाती। कोई पति स्त्री को कभी तृप्त नहीं कर सकता। जो उसका बेटा उसे कर देता है। कोई पति कभी उतना गहरा कन्टेंटमेंट उसे नहीं दे पाता जितना उसका बेटा उसे दे पाता है।
स्त्री मां बने बिना पूरी नहीं हो पाती। उसके व्यक्तित्व का पूरा निखार और पूरा सौंदर्य उसके मां बनने पर प्रकट होता है। उससे उसके बेटे के आत्मिक संबंध बहुत गहरे होते है।
और इसीलिए आप यह भी समझ लें कि जैसे ही स्त्री मां बन जाती है। उसकी सेक्स में रूचि कम हो जाती है। यह कभी आपने ख्याल किया है। जैसे ही स्त्री मां बन जाती है, सेक्स के प्रति रूचि कम हो जाती है। फिर सेक्स में उसे उतना रस नहीं मालूम पड़ता। उसने एक और गहरा रस ले लिया है। मातृत्व का। वह एक प्राण के साथ और नौ महीने तक इकट्ठी जी ली है। अब उसे सेक्स में रस नहीं रह जाता है।
अकसर पति हैरान होते है। पिता बनने से पति में कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मां बनने से स्त्री में बुनियादी फर्क पड़ जाता है। पिता बनने से पति में कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि पिता कोई बहुत गहरा संबंध नहीं है। जो नया व्यक्ति पैदा होता है उससे पिता का कोई गहरा संबंध नहीं है।
पिता बिलकुल सामाजिक व्यवस्था है, सोशल इंस्टीटयूशन है।
पिता के बिना भी दुनिया चल सकती है, इसीलिए पिता को कोई गहरा संबंध नहीं है बेटे का।
मां से उसके गहरे संबंध है, और मां तृप्त हो जाती है उसके बाद। और उसमें एक और ही तरह की आध्यात्मिक गरिमा प्रकट होती है। जो मां नहीं बनी है स्त्री उसको देखे और जो मां बन गई है उसे देखें। उन दोनों की चमक और उर्जा और उनकी व्यक्तित्व अलग मालूम होगा। मां की दीप्ति दिखाई पड़ेगी—शांत, जैसे नदी जब मैदान में आ जाती है, तब शांत हो जाती है। जो अभी मां नहीं बनी है, उस स्त्री में एक दौड़ दिखेगी, जैसे पहाड़ पर नदी दौड़ती है। झरने की तरह टूटती है, चिल्लाती है; गड़गड़ाहट करती है; आवाज है; दौड़ है; मां बन कर वह एक दम से शांत हो जाती है।
इसीलिए मैं आपसे इस संदर्भ में यह भी कहना चाहता हूं कि जिन स्त्रियों को सेक्स का पागलपन सवार हो गया है, जैसे पश्चिम में—वे इसीलिए मां नहीं बनना चाहती। क्योंकि मां बनने के बाद सेक्स का रस कम हो जाता है। पश्चिम की स्त्री मां बनने से इंकार करती है। क्योंकि मां बनी कि सेक्स का रस कम हुआ। सेक्स का रस तभी तक रह सकता है जब वह मां नहीं बन जाती। पर विकृति एक अपवाद नहीं है।
तो पश्चिम की अनेक हुकूमतें घबरा गयी है इस बात से कि वह रो अगर बढ़ता चला गया तो उनकी संख्या का क्या होगा। हम यहां घबरा रहे कि हमारी संख्या न बढ़ जाए। पश्चिम के मुल्क घबरा रहे है कि उनकी संख्या कहीं कम न हो जाये। क्योंकि स्त्रियों को अगर इतने तीव्र रूप से यह भाव पैदा हो जाये कि मां बनने से सेक्स का रस कम हो जाता है और वह मां न बनना चाहे तो क्या किया जा सकता है। कोई कानूनी जबर्दस्ती की जा सकती है।
किसी को संतति नियमन के लिए तो कानूनी जबर्दस्ती भी की जा सकती है। कि हम जबर्दस्ती बच्चे नहीं होने देंगे। लेकिन किसी स्त्री को मजबूर नहीं किया जा सकता कि बच्चे पैदा करने की पड़ेंगे।
पश्चिम के सामने हमसे बड़ा सवाल है। हमारा सवाल उतना बड़ा नहीं है, हम संख्या को रोक सकते है। जबर्दस्ती कानूनन,लेकिन संख्या को कानूनन बढ़ाने को कोई रास्ता नहीं है। किसी व्यक्ति को जबर्दस्ती नहीं की जात सकती की तुम बच्चे पैदा करों।
और आज से दो सौ साल के भीतर पश्चिम के सामने यक प्रश्न बहुत भारी हो जायेगा, क्योंकि पूरब की संख्या बढती चली जायेगी, वह सारी दुनिया पर छा सकती है। और पश्चिम की संख्या क्षीण होती जा सकती है। स्त्री को मां बनने के लिए उन्हें फिर से राज़ी करना पड़ेगा।
और उनके कुछ मनोवैज्ञानिकों ने यह सलाह देनी शुरू कर दी है, कि बाल विवाह शुरू कर दें, अन्यथा खतरा है। क्योंकि स्त्री होश में आ जाती है तो वह मां नहीं बनना चाहती। उसे सेक्स का रस लेने में ज्यादा ठीक मालूम होता है। इसलिए बचपन में शादी कर दो उसे पता ही न चले कि वह कब मां बन गई।
पूरब में जो बाल-विवाह चलता था, उसके एक कारणों में यह भी था। स्त्री जितनी युवा हो जायेगी और जितनी समझदार हो जायेगी। और सेक्स का जैसे रस लेने लगेगी,वैसे वह मां नहीं बनना चाहेंगी। हालांकि उसे कुछ पता नहीं कि मां बनने से क्या मिलेगा। वह तो मां बनने से ही पता चल सकता है। उससे पहले कोई उपाय नहीं है।
स्त्री तृप्त होने लगती है मां बनकर—क्यों? उसने एक आध्यात्मिक तल पर सेक्स का अनुभव कर लिया बच्चे के साथ। और इसीलिए मां और बेटे के पास एक आत्मीयता है। मां अपने प्राण दे सकती है बेटे के लिए, मां बेटे के प्राण लेने की कल्पना नहीं कर सकती।
पत्नी पति के प्राण ले सकती है। लिए है अनेक बार। और अगर नहीं भी लेगी तो पूरी जिंदगी में प्राण लेने की हालत पैदा कर देगी। लेकिन बेटे के लिए कल्पना भी नहीं कर सकती। वह संबंध बहुत गहरा है।
और मैं आपसे यह भी कहूं कि उससे अपने पति को संबंध भी इतना हो जाता है—तो पति उसे बेटे की तरह दिखाई देता है। पति की तरह नहीं। यहां इतनी स्त्रीयां बैठी है और इतने पुरूष बैठे है। मैं उनसे ये पूछता हूं कि जब उन्होंने अपनी पत्नी को बहुत प्रेम किया है तो क्या उन्होंने इस तरह का व्यवहार नहीं किया। जैसे छोटा बच्चा अपनी मां के साथ करता है। क्या आपको इस बात का ख्याल है कि पुरूष के हाथ स्त्री के स्तन की तरफ क्यों पहुंच जाते है?
वह छोटे बच्चे के हाथ है, जो अपनी मां के स्तन की तरफ जा रहे है।
जैसे ही पुरूष स्त्री के प्रति गहरे प्रेम से भरता है, उसके हाथ उसके स्तन की तरफ बढते है—क्यों, स्तन से क्या संबंध है सेक्स का।
स्तन से कोई संबंध नहीं है। स्तन से मां और बेटे का संबंध है। बचपन से वह जानता रहा है। बेटे का संबंध स्तन से है। और जैसे ही पुरूष गहरे प्रेम से भरता है वह बेटा हो जाता है।
और स्त्री का हाथ कहां पहुंच जाता है?
वह पुरूष के सिर पर पहुंच जाता है। उसके बालों में अगुलियां चली जाती है। वह पुराने बेटे की याद है। वह पुराने बेटे का सर है, जिसे उसने सहलाया है।
इसलिए अगर ठीक से प्रेम आध्यात्मिक तल तक विकसित हो जाये तो पति आखिर में बेटा हो जाता है। और बेटा हो जाना चाहिए। तो आप समझिए कि हमने तीसरे तल पर सेक्स का अनुभव किया। अध्यात्म के तल पर स्प्रिचुअल के तल पर। इस तल पर एक संबंध है, जिसका हमें कोई पता नहीं है। पति पत्नी का संबंध उसकी तैयारी है। उसका अंत नहीं है। वह यात्रा की शुरूआत है। पहुंचा नहीं है।
इसलिए पति पत्नी के बीच एक इनर कानफ्लिक्ट्स चौबीस घंटे चलती रहती है। चौबीस घंटे एक कलह चलती है। जिसे हम प्रेम करते है, उसी के साथ चौबीस घंटे कलह चलती है। लेकिन न पति समझता है, न पत्नी समझती है। कि कलह का क्या करण है। पति सोचता है कि शायद दूसरी स्त्री होती तो ठीक हो जाता। पत्नी सोचती है कि शायद दूसरा पुरूष होता तो ठीक हो जाता। यह जोड़ा गलत हो गया है।
लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि दुनिया भर के जोड़ों का यही अनुभव है। और आपको अगर बदलने का मौका दे दिया जाये तो इतना ही फर्क पड़ेगा कि जैसे कुछ लोग अर्थी को लेकर मरघट जाते है। कंधे पर रखकर अर्थी को। एक कंधा दुःख ने लगता है तो उठाकर दूसरे कंधे पर अर्थी रख लेते है। थोड़ी देर राहत मिलती है। कंधा बदल गया। थोड़ी देर बाद पता चलता है कि बोझ उतना का उतना ही फिर शुरू हो गया है।
पश्चिम में इतने तलाक होते है। उनका अनुभव यह है कि दूसरी स्त्री दस पाँच दिन के बाद फिर पहली स्त्री साबित होती है। दूसरा पुरूष 15 दिन के बाद फिर पहला पुरूष साबित हो जाता है। इसके कारण गहरे है। इसके कारण इसी स्त्री और इसी पुरूष के संबंधित नहीं है। इसके कारण इस बात से संबंधित है कि जो स्त्री और पुरूष का पति और पत्नी का संबंध बीच की यात्रा का संबंध है। वह मुकाम नहीं है, वह अंत नहीं है। अंत तो वही होगा, जहां स्त्री मां बन जायेगी। और पुरूष फिर बेटा हो जायेगा।
तो मैं आपसे कह रहा हूं कि मां और बेटे का संबंध आध्यात्मिक काम का संबंध है और जिस दिन स्त्री और पुरूष में, पति-पत्नी में भी अध्यात्मिक काम का संबंध उत्पन्न होगा,उस दिन फिर मां-बेटे का संबंध स्थापित हो जायेगा। और वह स्थापित हो जाये तो एक तृप्ति है। जिसको मैंने कहा, कन्टेंटमेंट, अनुभव होगा और उस अनुभव से ब्रह्मचर्य फलित होता है। तो यह मत सोचें कि मां और बेटे के संबंध में कोई काम नहीं है। आध्यात्मिक काम है। अगर हम ठीक से कहें तो आध्यात्मिक काम को ही प्रेम कह सकते है। वह प्रेम…स्प्रीच्युअलाइज जैसे ही सेक्स हो जाता है। वह प्रेम हो जाता है।
( क्रमश: अगले अंक में ………………देखें)
ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
प्रवचन—4
गोवा लिया टैंक, बम्बई,
2 अक्टूबर—1968, (45,624)