‘हे शक्ति, समस्त तेजोमय अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है, ऐसा भाव करो।’
अपनी आंखे बंद कर लो। जब इस प्रयोग को करो तो आंखें बंद कर लो और भाव करो कि सारा अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है।
आरंभ में यह कठिन होगा। यह विधि उच्चतर विधियों में से एक है। इसलिए इसे एक-एक कदम समझना अच्छा होगा। तो एक काम करो। यदि इस विधि को प्रयोग में लाना चाहते हो तो एक-एक कदम चलो,क्रम से चलो।
पहला चरण: सोते समय, जब तुम सोने जाओ तो विस्तर पर लेट जाओ। और आंखे बंद कर लो और महसूस करो कि तुम्हारे पाँव कहां है, अगर तुम छह फिट लंबे हो या पाँच फीट हो, बस यह महसूस करो कि तुम्हारे पाँव कहां है, उनकी सीमा क्या है। और फिर भाव करो कि मेरी लंबाई छह इंच बढ़ गई है। मैं छह इंच और लंबा हो गया हूं। आंखें बंद किए बस यह भाव करो। कल्पना में महसूस करो कि मेरी लंबाई छह इंच बढ़ गई है।
फिर दूसरा चरण: अपने सिर को अनुभव करो कि वह कहां है। भीतर-भीतर अनुभव करो कि वह कहां है। और फिर भाव करो कि सिर भी छह इंच बड़ा हो गया है। अगर तुम इतना कर सके तो बात बहुत आसान हो जाएगी। फिर उसे और भी बड़ा किया जा सकता है। भाव करो कि तुम बारह फीट हो गए हो। और तुम पूरे कमरे में फैल गए हो। अब तुम अपनी कल्पना में दीवारों को छू रहे हो; तुमने पूरे कमरे को भर दिया है। और तब क्रमश: भाव करो कि तुम इतने फैल गये हो कि पूरा मकान तुम्हारे अंदर आ गया है। और एक बार तुमने भाव करना जान लिया तो ये बहुत आसान है। अगर तुम छह इंच बढ़ सकते हो तो कितना भी बढ़ सकते हो। अगर तुम भाव करा सके कि मैं पाँच फीट लंबा हूं तो फिर कुछ भी कठिन नहीं है। तब यह विधि बहुत ही आसान है।
पहले तीन दिन लंबे होने का भाव करो और फिर तीन दिन भाव करो कि मैं इतना बड़ा हो गया हूं कि कमरे में भर गया हूं। यह केवल कल्पना का प्रशिक्षण है। फिर और तीन दिन यह भाव करो कि मैंने फैलकर पूरे घर को घेर लिया है। फिर तीन दिन भाव करो कि मैं आकाश हो गया हुं। तब यह विधि बहुत ही आसान हो जाएगी।
‘हे शक्ति, समस्त तेजोमय अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है, ऐसा भाव करो।’
तब तुम आंखें बंद करके अनुभव कर सकते हो कि सारा आकाश, सारा अंतरिक्ष तुम्हारे सिर में समाहित है। और जिस क्षण तुम्हें यह अनुभव होगा, मन विलीन होने लगेगा। क्योंकि मन बहुत क्षुद्रता में जीता है। आकाश जैसे विस्तार में मन नहीं टिक सकता; वह खो जाता है। इस महाविस्तार में मन असंभव है। मन क्षुद्र और सीमित में ही हो सकता है। इतने विराट आकाश में मन को जीने के लिए जगह कही नहीं मिलती है।
यह विधि सुंदरतम विधियों में से एक है। मन अचानक बिखर जाता हे। और आकाश प्रकट हो जाता है। तीन महीने के भीतर यह अनुभव संभव है और तुम्हारा संपूर्ण जीवन रूपांतरित हो जाएगा।
लेकिन एक-एक कदम चलना होगा। क्योंकि कभी-कभी इस विधि से लोग विक्षिप्त भी हो जाते है। अपना संतुलन खो देते है। यह प्रयोग और इसका प्रभाव बहुत विराट है। अगर अचानक यह विराट आकाश तुम पर टूट पड़े और तुम्हें बोध हो कि तुम्हारे सिर में समस्त अंतरिक्ष समाहित हो गया है और तुम्हारे सिर में चाँद-तारे और पूरा ब्रह्मांड घूम रहा है। तो तुम्हारा सिर चकराने लगेगा। इसलिए अनेक परंपराओं में इस विधि के प्रयोग में बहुत सावधानियां बरती जाती है।
इस सदी में एक संत, राम तीर्थ ने इस विधि का प्रयोग किया था। और अनेक लोगों को, जो जानते है, संदेह है कि इसी विधि के कारण उन्होंने आत्मघात कर लिया। राम तीर्थ के लिए आत्मघात नहीं था। क्योंकि उसने जान लिया था कि सारा अंतरिक्ष उसमें समाहित है। उसके लिए आत्मघात असंभव है—वह आत्मघात नहीं कर सकता। वहां कोई आत्मघात करने वाला ही नहीं बचा। लेकिन दूसरों के लिए, जो बाहर से देख रहे थे, यह आत्मघात है।
राम तीर्थ को ऐसा अनुभव होने लगा कि सारा ब्रह्मांड उनके भीतर, उनके सिर के भीतर घूम रहा हे। उनके शिष्यों ने पहले तो सोचा कि वे काव्य की भाषा में बोल रहे है। लेकिन फिर उन्हें लगने लगा कि वे पागल हो गये है। क्योंकि उन्होंने दावा करना शुरू कर दिया कि मैं ब्रह्मांड हूं और सब कुछ मेरे भीतर है। और फिर एक दिन वे एक पहाड़ की चोटी से नदी में कूद गये।
राम तीर्थ ने नदी में कूदने के पहले एक सुंदर कविता लिखी। जिसमें उन्होंने कहा है: ‘मैं ब्रह्मांड हो गया हूं,अब मेरा शरीर भार हो गया है, इस शरीर को मैं अब अनावश्यक मानता हूं। इसलिए मैं इसे वापस करता हूं। अब मुझ किसी सीमा की जरूरत नहीं है। मैं निस्सीम ब्रह्म हो गया हूं।’
मनोचिकित्सक तो सोचते है कि वे विक्षिप्त हो गए। वह पागल हो गए। लेकिन जिन्हें मनुष्य चेतना के गहन आयामों का पता है, वे कहते है कि मुक्त हो गये। बुद्ध हो गये। लेकिन सामान्य चित के लिए यह आत्मघात है।
तो ऐसी विधि से खतरा हो सकता है। इस कारण में कहता हूं उनकी तरफ क्रमश: बढ़ो, धीरे-धीरे चलो। तुम्हें इसका पता नहीं है, अत: कुछ भी संभव है। तुम्हें अपनी संभावनाओं का ज्ञान नहीं है। तुम्हारी कितनी तैयारी है, इसकी भी तुम्हें प्रत्यभिज्ञा नहीं है। ओर कुछ भी संभव है। अंत: सावधानीपूर्वक इस प्रयोग को करने की जरूरत है।
पहले छोटी-छोटी चीजों पर अपनी कल्पना का प्रयोग करो। भाव करो कि शरीर बड़ा हो गया है। छोटा हो रहा है। तुम दोनों तरफ जा सकते हो। तुम यदि पाँच फीट छह इंच के हो तो भाव करो कि चार फीट का हो गया हुं, तीन फीट का हो गया हू….दो फीट का हो गया हूं…..एक फीट का हो गया हूं….एक बिंदू मात्र रह गया हूं।
यह तैयारी भर है, इस बात की तैयारी है कि धीरे-धीरे तुम जो भी भाव करना चाहों वह कर सकते हो। तुम्हारा आंतरिक चित भार करने के लिए बिलकुल स्वतंत्र है। उसे कुछ भी भाव करने में कोई बाधा नहीं है। यह तुम्हारा भाव है, तुम चाहों तो फैल कर बड़े हो सकते हो और चाहो तो सिकुड़कर छोटे हो सकते हो। और तुम्हें वैसा बोध भी होने लगेगा।
और अगर तुम इस प्रयोग को ठीक से करो तो तुम बहुत आसानी से अपने शरीर से बाहर आ सकते हो। अगर तुम कल्पना से शरीर को छोटा-बड़ा कर सकते हो तो तुम शरीर से बहार आने में समर्थ हो। तुम सिर्फ कल्पना करो कि मैं अपने शरीर के बाहर खड़ा हूं, और तुम बाहर खड़े हो जाओगे।
लेकिन यह इतनी जल्दी नहीं होगा। पहले छोटे-छोटे चरणों में प्रयोग करने होगें। और जब तुम्हें लगे कि तुम शांत रहते हो, घबराते नही, तब भाव करो कि तुम्हारे पूरे कमरे को भर दिया है। और तुम वास्तव में दीवारों का स्पर्श अनुभव करने लगोगे। और तब भाव करो कि पूरा मकान तुम्हारे भीतर समा गया है। और तुम उसे अपने भीतर अनुभव कर रहे हो। इस भांति एक-एक कदम आगे बढ़ो। और तब, धीरे-धीरे आकाश को अपने सिर के भीतर अनुभव करो। और जब तुम आकाश को अपने भीतर अनुभव करते हो। जब तुम आकाश को अपने साथ महसूस करते हो, उसके साथ एक हो जाते हो। तो मन एक दम विदा हो जाता है। अब वहां उसका कोई काम नहीं है।
इस विधि को किसी गुरु या मित्र के साथ रह कर करना अच्छा होगा। अकेले में प्रयोग करना खतरनाक भी हो सकता हे। तुम्हारे पास कोई होना चाहिए। जो तुम्हारी देखभाल कर सके। यह समूह विधि है। गुरूकुल या आश्रम में प्रयोग करने की विधि है। किसी आश्रम में जहां अनेक लोग मिलकर काम करते हों। वहां इस विधि का प्रयोग आसान है। कम खतरनाक और कम हानिकारक है। क्योंकि जब भीतर का आकाश विस्फोटित होता है। तो संभव है कि कई दिनों तक तुम्हें अपने शरीर की सुध ही नहीं रहे। तुम भाव में इतने आविष्ट हो जाओ कि तुम्हारा बाहर आना ही संभव न हो। क्योंकि उस विस्फोट के साथ समय विलीन हो जाता है। तो तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि कितना समय व्यतीत हो गया है। शरीर का पता ही नहीं चलेगा। शरीर का बोध ही नहीं रहता। तुम तो आकाश हो जाते हो।
तो कोई चाहिए जो तुम्हारे शरीर की देखभाल करे। बहुत ही प्रेमपूर्ण देखभाल की जरूरत होगी। इसीलिए किसी गुरू या समूह के साथ प्रयोग करने से यह विधि कम हानिकारक हो जाती हे। कम खतरनाक रह जाती हे। और समूह भी ऐसा होना चाहिए, जो जानता हो कि इस विधि में क्या-क्या संभव है, क्या-क्या घटित हो सकता है और तब क्या किया जा सकता है। क्योंकि मन की इस अवस्था में अगर तुम्हें अचानक जगा दिया जाए तो तुम विक्षिप्त भी हो सकते हो। क्योंकि मन को वापस आने के लिए समय की जरूरत होती है। अगर झटक से तुम्हें शरीर में वापस आना पड़े तो संभव है कि तुम्हारा स्नायु संस्थान उसे बर्दाश्त न कर सके। उसे कोई अभ्यास नहीं है। उसे प्रशिक्षित करना होगा।
तो अकेले प्रयोग न करें;समूह में या मित्रों के साथ एकांत जगह में यह प्रयोग कर सकते है। और धीरे-धीरे, एक-एक कदम बढ़े, जल्दबाजी न करे।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-चार
प्रवचन-49