(कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं। विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।)

कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं?
एक कामना पैदा होती है और कामना के साथ यह भाव पैदा होता है कि मैं हूं। एक विचार उठता है और विचार के साथ यह भाव उठता है कि मैं हूं। इसे अपने अनुभव में ही देखो; कामना के पहले और जानने के पहले अहंकार नहीं है।

मौन बैठो और भीतर देखो। एक विचार उठता है। और तुम उस विचार के साथ तादात्म्य कर लेते हो। एक कामना पैदा होती है और तुम उस कामना के साथ तादात्म्य कर लेते हो। तादात्म्य में तुम अहंकार बन जाते हो। फिर जरा सोचो: कोई कामना नही है। कोई ज्ञान नहीं है। कोई विचार नहीं है—तुम्‍हारा किसी के साथ तादात्‍म्‍य नहीं हो सकता है। अहंकार खड़ा नहीं हो सकता।
बुद्ध ने इस विधि का उपयोग किया है। और उन्‍होंने अपने शिष्‍यों से कहा कि और कुछ मत करो,सिर्फ इतना ही करो कि जब कोई विचार उठे तो उसे देखो। बुद्ध कहा करते थे कि जब कोई विचार उठे तो देखो कि यह विचार उठ रहा है। अपने भीतर ही देखो कि अब विचार उठ रहा है, अब विचार है। अब विचार विदा हो रहा है। बस देखते भर रहो। कि अब विचार उठ रहा है। अब विचार पैदा हो रहा है। अब विचार विलीन हो रहा है। ऐसा देखने से तादात्‍म्‍य नहीं होता।
यह विधि सुंदर है और बहुत सरल है। एक विचार उठता है। तुम सड़क पर चल रहे हो, एक सुंदर कार गुजरती है और तुम उसे देखते हो। और तुमने अभी देखा भी नहीं कि उसे पाने की कामना पैदा हो जाती है। इस पर प्रयोग करो। आरंभ में धीमे शब्‍दों में कहो, धीरे से कहो कि मैं कार देखता हूं, कार सुंदर है और उसे पाने की कामना पैदा हो रही है। पूरी घटना को शब्‍दिक रूप दो।
शुरू-शुरू में शाब्‍दिक रूप देना अच्‍छा है। अगर तुम इसे जोर से कह सको तो और भी अच्‍छा है। जोर से कहो कि ‘मैं देख रहा हूं कि एक कार गुजरी है और मन कहता है कि कार सुंदर है और अब कामना उठी है कि यह कार प्राप्‍त करके रहूंगा।’ सब कुछ शब्‍दों में कहो, स्‍वयं से ही कहो और जोर से कहो; और तुरंत तुम्‍हें अहसास होगा कि मैं इस पूरी प्रक्रिया से अलग हूं।
पहले देखो, मन ही मन में कामना के उठने को देखो। और जब तुम देखने में निष्‍णात हो जाओ तब जोर से कहने की जरूरत नहीं है। तब मन ही मन देखो कि एक कामना पैदा हुई है। एक सुंदर स्‍त्री गुजरती है। और कामवासना उठती है। उसे मन ही मन ऐसे देखो जैसे कि तुम्‍हें उससे कुछ लेना देना नहीं है। तुम सिर्फ घटित होने वाल तथ्‍य को देख भर रहे हो। और तुम अचानक अनुभव करोगे कि मैं इससे बाहर हूं।
बुद्ध कहते है कि जो भी हो रहा है, उसे देखो; और जब वह विदा हो जाए तो उसे भी देखो कि अब कामना विदा हो गई है। और तुम उस विचार से, उस कामना से एक दूरी, एक पृथकता अनुभव करोगे।
यह विधि कहती है: ‘कामना के पहले ओर जानने के पहले के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं?’
अगर कोई कामना नहीं है, कोई विचार नहीं है। तो तुम कैसे कह सकते हो कि मैं हूं? मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं? तब सब कुछ मौन है, शांत है; एक लहर भी तो नहीं है। और लहर के बिना मैं ‘मैं’ का भ्रम कैसे निर्मित कर सकता हूं? अगर कोई लहर हो तो मैं उससे आसक्‍त हो सकता हूं और उसके माध्‍यमसे में अनुभव कर सकता हूं कि मैं हूं। जब चेतना में कोई लहर नहीं है तो कोई ‘मैं’नहीं है।
तो कामना के उठने से पहले स्‍मरण रखो, जब कामना आ जाए तो स्‍मरण रखो, और जब कामना विदा हो जाए तो भी स्‍मरण रखो। जब कोई विचार उठे तो स्‍मरण रखो, उसे देखो। सिर्फ देखो कि विचार उठा है। देर अबेर वह विदा हो जाएगा। क्‍योंकि सब कुछ क्षणिक है। और बीच में एक अंतराल होगा। दो विचारों के बीच में खाली जगह है। दो कामनाओं के बीच में अंतराल है। और उस अंतराल में, उस खाली जगह में ‘मैं’नहीं है।
मन में चलते विचार को देखो और तुम पाओगे कि वहां एक अंतराल भी है चाहे वह कितना ही छोटा हो, अंतराल है। फिर दूसरा विचार आता है और फिर एक अंतराल। उन अंतरालों में ‘मैं’ नहीं। और वे अंतराल ही तुम्‍हारा असली होना है। तुम्‍हारा अस्‍तित्‍व है। आकाश में विचार के बादल चल रहे है। दो बादलों के अंतराल को देखो और आकाश प्रकट हो जाएगा।
‘विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।’
विमर्श करो कि कामना पैदा हुई और कामना विदा हो गई—और मैं उसके अंतराल में हूं और कामना ने मुझे अशांत नहीं किया है। विमर्श करो कि कामना आई, कामना गई, वह थी और अब नहीं है। और मैं अनुद्विग्‍न रहा हूं। वैसा ही रहा हूं जैसा पहले था; मुझमें कोई बदलाहट नहीं हुई है। विमर्श करो कि कामना छाया की भांति आई और चली गई। उसने मुझे स्‍पर्श भी नहीं किया। मैं अछूता रह गया। इस कामना की गतिविधि के प्रति, इस विचार की हलचल के प्रति विमर्श से भरों। और अपने भीतर की अगति के प्रति भी, ठहराव के प्रति भी विमर्श पूर्ण होओ।
‘विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।’
और वह अंतराल सुंदर है; उस अंतराल में डूब जाओ। उस अंतराल में डूब जाओ। शून्‍य हो जाओ। यह सौंदर्य का प्रगाढ़तम अनुभव है। और केवल सौंदर्य का ही नहीं, शुभ और सत्‍य का भी प्रगाढ़तम अनुभव है। उस अंतराल में तुम हो।
सारा ध्‍यान भरे हुए स्‍थानों से हटाकर खाली स्‍थानों पर लगाना है। तुम कोई किताब पढ़ रहे हो। उसमें शब्‍द है, उसमें वाक्‍य है। लेकिन शब्‍दों के बीच वाक्‍यों के बीच खाली स्‍थान पर भी है। और उन खाली स्‍थानों में तुम हो। कागज की जो शुभ्रता है, वह तुम हो; और जो काले अक्षर है वे तुम्‍हारे भीतर चलने वाले विचार और कामना के बादल है। अपने परिप्रेक्ष्‍य को बदलों; काले अक्षरों को मत देखो, शुभ्रता को देखो।
अपने प्राणों के अंतराल को देखो। जो भरे हुए स्‍थान है, उनके प्रति उदासीन रहो; और अंतराल के प्रति, खाली आकाश के प्रति सावचेत बनो। और उस अंतराल के द्वारा, उस आकाश के द्वारा तुम परम सौंदर्य में विलीन हो जाओगे।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-चार
प्रवचन-55

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