अचानक रूकने की कुछ विधियां:
दूसरी विधि:
‘’जब कोई कामना उठे, उसे पर विमर्श करो। फिर, अचानक, उसे छोड़ दो।‘’
यह पहली विधि का ही दूसरा आयाम है।
‘’जब कोई कामना उठे, उस पर विमर्श करो। अचानक, उसे छोड़ दो।‘’
तुम्हें कोई इच्छा होती है—चाहे वह कामवासना हो, चाहे प्रेम की इच्छा हो, चाहे भोजन की इच्छा हो। तुम्हें इच्छा होती है तो उस पर विमर्श करो। जब यह सूत्र कहता है कि विमर्श करो तो उसका मतलब होता है कि उसके पक्ष या विपक्ष में विचार मत करो। बल्कि देखो कि वह इच्छा क्या है।
मन में कामवासना पैदा होती है और तुम कहते हो कि यह बुरी है। यह विमर्श करना नहीं हुआ। तुम्हें सिखाया गया है कि कामवासना बुरी है। इसीलिए उसे बुरा कहना विमर्श नहीं है। तुम शास्त्रों से पूछ रहे हो। तुम अतीत से पूछ रहे हो। तुम गुरूओ और ऋषियों से पूछ रहे हो। तुम स्वयं कामना पर विमर्श नहीं कर रहे हो। तुम किसी और चीज पर विमर्श कर रहे हो। हो सकता है, वह तुम्हारा संस्कार हो, तुम्हारे पालन-पोषण की शैली हो। तुम्हारी शिक्षा हो। तुम्हारी संस्कृति हो, तुम्हारा धर्म हो। तुम उन पर विचार कर रहे हो कामना पर विमर्श नहीं।
यह सीधी सी चाह पैदा हुई है। इसमे मन को मत बीच में लाओ। अतीत को शिक्षा को, संस्कार को मत बीच में लाओ। केवल इस चाह पर विमर्श करो की यह क्या है। अगर वह सब तुम्हारी खोपड़ी से बिलकुल पोंछ दिया जाए जो तुम्हें समाज से, मां-बाप से, शिक्षा और संस्कृति से मिला है। अगर तुम्हारा मन पोंछकर अलग कर दिया जाए तो भी कामवासना पैदा होगी। क्योंकि वह वासना तुम्हें समाज से नहीं मिलती है। वह वासना जैविक है। तुम में बिल्ट है। वह तुम में ही है।
उदाहरण के लिए, एक नवजात शिशु को लो। यदि उसे कोई भाषा न सिखायी जाए तो वह भाषा नहीं जानेगा। भाषा के बिना रहेगा। भाषा एक सामाजिक घटना है। वह सिखायी जाती है। लेकिन जब ठीक समय आएगा तो इस बच्चे को भी कामवासना उठेगी। कामवासना समाजिक घटना नहीं है। वह जैविक रूप से बिल्ट है। सही और प्रौढ़ क्षण आने पर वह पैदा होगी। वह आएगी। वह समाजिक नहीं है। जैविक है और गहरी है। वह तुम्हारी कोशिकाओं में ही बिल्ट इन है।
तुम्हारा जन्म कामवासना से हुआ है, इसलिए तुम्हारे शरीर की प्रत्येक कोशिका काम-कोशिका है। तुम काम-कोशिकाओं से बने हो। जब तूम तुम्हारी बायोलाजी पूरी तरह न मिटा दी जाए तब के कामवासना रहेगी। वह आएगी ही, क्योंकि वह है ही । कामवासना बच्चे के जन्म के साथ-साथ आती है; क्योंकि बच्चा मैथुन की उप-उत्पती है। वह कामवासना से ही पैदा हुआ है। उसका समूचा शरीर काम कोशिकाओं से बना है। वासना मौजूद है, सिर्फ समय की जरूरत है। जब उसका शरीर प्रौढ़ होगा तो वासना आएगी और वह उसमें जाएगा। चाहे कोई तुम्हें सिखाये या न सिखाये। या तुम्हें लाख कहे की कामवासना बुरी चीज है। वह अच्छी नहीं है। वह पाप है। वह नरक में ले जाती है। या वह ये है या वो है। कामवासना सदा मौजूद रहती है।
पुरानी परंपराएं, पुराने धर्म खासकर ईसाइयत कामवासना के खिलाफ थी। वह उसके खिलाफ जोर दार प्रचार कर रही थी। यिप्पी या हिप्पी और अन्य संप्रदाय इसके विपरीत आंदोलन चला रहे है। वे कहते है कि कामवासना शुभ है। कि कामवासना में परम सुख है। वे कहते है कि संसार में कामवासना ही असली चीज है।
उसे अशुभ कहो या शुभ, दोनों ही सिखावन है। किसी सिखावन के मुताबिक अपनी चाह का विचार मत करो। कामना पर, उसकी शुद्धि में, वह जैसी है, एक तथ्य की तरह विमर्श करो। उसकी व्याख्या मत करो। यहां विमर्श का मतलब व्याख्या नहीं है। तथ्य को तथ्य की तरह देखना है। चाह है, उसे सीधा और प्रत्यक्ष देखो। विचारों और धारणाओं को बीच में मत लो। कोई विचार तुम्हारा नहीं है। कोई धारण तुम्हारी नहीं है। हर चीज तुम्हें दी गई है। हर धारणा उधार है। कोई विचार मौलिक नहीं है। कोई विचार मौलिक नहीं हो सकता। इसलिए विचार को बीच में मत लो। सिर्फ कामना को देखो कि वह क्या है। ऐसे देखो जैसे कि तुम्हें उसके संबंध में कुछ भी पता नहीं है। उसका साक्षात्कार करो। विमर्श का अर्थ यही है।
‘’जब कोई कामना उठे, उस पर विमर्श करो।‘’
उसे तथ्य की तरह देखा; देखो कि यह क्या है। दुर्भाग्य से यह सर्वाधिक कठिन कामों में से एक है। इसके मुकाबले चाँद पर जाना कठिन नहीं है। गौरी शंकर पर पहुंचना कठिन नहीं है। चाँद पर पहुंचना बहुत जटिल है। अत्यंत जटिल; लेकिन आंतरिक मन के किसी तथ्य के साथ जीने की बात के सामने चाँद पर पहुंचना कुछ भी नहीं है। क्योंकि तुम जो भी करते हो उसमें मन बहुत सूक्ष्म रूप से संलग्न रहता है। मन उसमें सदा समाया रहता है। उलझा रहता है।
इस शब्द को देखो, ज्यों ही मैंने कहां कि कामवासना या संभोग कि तुम तुरंत उसके पक्ष या विपक्ष में कुछ निर्णय लेते हो। जिस क्षण मैंने कहां संभोग कि तुम ने व्याख्या कर ली। तुम कहते हो, यह भला है या वह बुरा है। तुम शब्द की भी व्याख्या कर लेते हो।
जब ‘’संभोग’’ से समाधि की और पुस्तक प्रकाशित हुई तो बहुत से लोग मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि कृपा कर यह नाम ‘’संभोग से समाधि की और’’ बदल दीजिए। संभोग शब्द से उन्हें घबड़ाहट होती है। उन्होंने किताब भी नहीं पढ़ी। और वे भी नाम बदलने को कहते है। जिन्होंने किताब नहीं पढ़ी वे भी क्यों?
यह शब्द ही तुम्हारे भीतर व्याख्या को जन्म देता है। मन ऐसा व्याख्याकार है कि अगर मैंने कहा के नींबू का रस तो तुम्हारी लार टपकने लगती है। तुमने शब्दों की व्याख्या कर ली। ‘’नींबू का रस’’ इन शब्दों में नींबू जैसी कोई चीज नहीं है। लेकिन तुम्हारे मुंह में खट्टापन भर जायेगा। मन ने व्याख्या कर ली; मन बीच में आ गया।
‘’फिर अचानक, उसे छोड़ दो।‘’
इस विधि के दो हिस्से है। पहला कि तथ्य के साथ रहो। जो हो रहा है उसके प्रति सजग रहो। अवधान पूर्ण रहो। देखो कि जब कामवासना पकड़ती है तो तुम्हारे भीतर क्या-क्या घटित होता है। तुम्हारा शरीर ज्वरग्रस्त हो जाता है। कांपने लगता है। तुम्हें लगता है। कि तुम किसी से आविष्ट हो। इसका अनुभव करो, इस पर विमर्श करो; कोई निर्णय न लो। सीधे तथ्य में प्रवेश करो। यह मत कहो कि यह बुरा है। अगर बुरा कहा तो विमर्श समाप्त हो गया, तुम ने द्वार बंद कर दिया। अब कामवासना की और तुम्हारी पीठ है, मुंह नहीं। तुम उससे दूर सरक गए। ऐसे तुम ने एक गहरा और कीमती क्षण गंवा दिया। जिसमें तुम अपने जीवन की एक जैविक पर्त का दर्शन कर सकते थे।
तुम अभी जिस पर्त से परिचित हो वह सामाजिक पर्त है, और तुम उससे ही चिपके हो। वह सतही है। कामवासना तुम्हारे शास्त्रों से गहरी है। क्योंकि वह जैविक है। अगर सभी शास्त्र नष्ट कर दिए जाए—ऐसा हो सकता है। ऐसा कई बार हुआ है। तो तुम्हारी व्याख्या खो जाएगी। लेकिन कामवासना तब भी रहेगी। वह ज्यादा गहरी है।
सतही चीजों को बीच में मत लाओ। तथ्य पर अवधान दो, उसमे प्रवेश करो, और देखो कि तुम्हें क्या हो रहा है। किसी ऋषि विशेष को, मोहम्मद को, महावीर को क्या हुआ। वह प्रासंगिक नहीं है। इस क्षण तुम्हें क्या हो रहा है। इस जीवंत क्षण में जो हो रहा है। वह प्रासंगिक है। उस पर विमर्श करो। उसका ही निरीक्षण करो।
और अब दूसरा हिस्सा; यह सचमुच अद्भुत है।
शिव कहते है: ‘’फिर, अचानक छोड़ दो।‘’
यहां ‘’अचानक’’ को याद रखो। यह मत कहो कि यह खराब है, इसलिए छोड़ रहा हूं। यह मत कहो कि यह खराब है। इस लिए इसे नहीं रखूंगा। यह मत कहो कि यह बुरा है। यह पाप है, इसलिए इसके साथ गति नहीं करूंगा। मैं इसे त्याग दूँगा। मैं इसका दमन कर दूँगा। तब तो दमन घटित होगा। ध्यान नहीं। आरे दमन अपने ही हाथों अपना एक भ्रमित चित निर्मित करना है।
दमन मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है; उसके द्वारा तुम समूचे यंत्र को उपद्रव में डाल रहे हो।1 उन ऊर्जाओं को दबा रहे हो जो किसी ने किसी दिन फुटकर बहार आएँगी। ऊर्जा तो है ही, सिर्फ दमित हो गई है। न इसे बाहर जाने दिया गया है और न भीतर; उसे सिर्फ दमित कर दिया गया है। वह कोने कातर में छिप गई है। जहां वह पड़ी रहेगी। और विकृत होगी।
और स्मरण रहे, विकृत ऊर्जा ही मनुष्य की बुनियादी समस्या है। जो मानसिक रूग्णताएं है, वे विकृत ऊर्जा की उप-उत्पती है। तब वह ऊर्जा ऐसे ढंगों में अभिव्यक्त होगी जिसकी कोई कल्पना नहीं हो सकती है। और इन विकृतियां में भी वह फिर अपने को अभिव्यक्त करने की चेष्टा करेगी। और जब वह विकृत रूप में अभिव्यक्ति होती है। तो बहुत दुःख और संताप लाती है। विकृत ऊर्जा की अभिव्यक्ति से संतुष्टि नहीं मिलती है। और अड़चन यह है कि तुम विकृत नहीं रह सकते। तुम्हें विकृति को अभिव्यक्ति देना होगी। दमन विकृति पैदा करता है। इस सूत्र का दमन से कुछ लेना-देना नहीं है। यह सूत्र यह नहीं कहता कि नियंत्रण करो; यह सूत्र दमन की बात ही नहीं करता है।
यह सूत्र कहता है: ‘’अचानक, छोड़ दो।‘’
तो क्या किया जाए। कामना है; कामना पर तुमने विमर्श किया है। अगर कामना पर तुमने विमर्श किया है तो दूसरा भाग कठिन नहीं होगा। तब यह आसान होगा। यदि विमर्श नहीं किया है तो तुम्हारे मन में विचार चलते रहेंगे। मन कहेगा, यह अच्छा है कि कामवासना को हम अचानक छोड़ दे।
तुम छोड़ना चाहोगे। लेकिन यह सवाल नहीं है। यह पसंद तुम्हारी न होकर समाज की हो सकती है। यह पसंद तुम्हारा विमर्श न होकर मात्र परंपरा हो सकती है। इसलिए विमर्श करो। पसंद या गैर पसंद की बात मत उठाओ। केवल विमर्श करो। और तब तुम्हारा हिस्सा आसान हो जाएगा। तब तुम कामना को छोड़ सकते हो। कैसे छोड़ सकते हो।
जब किसी चीज पर तुम ने समग्र रूपेण विमर्श किया है तो उसे छोड़ना बहुत आसान हो जाता है। वह इतना ही आसान है जितना मेरे लिए इस कागज़ हो गिराना। ‘’इसे छोड़ दो।‘’ क्या होगा? कामना है; उसे तुम ने दबाया नहीं है। कामना है; और वह बाहर जाना चाहती है। वह उठ रही है। और तुम्हारे पूरे अस्तित्व को उद्वेलित कर दिया है। सच तो यह है कि जब तुम किसी कामना पर बिना किसी व्याख्या के विचार करोगे तो तुम्हारा पूरा अस्तित्व ही कामना बन जाएगा।
समझो कि कामवासना है और तुम उसके पक्ष या विपक्ष में नहीं हो। उसके संबंध में तुम्हारी कोई धारणा नहीं है, तुम सिर्फ उसे देख रहे हो। तो इस देखने भर से तुम्हारा पूरा अस्तित्व उस कामना में संलग्न हो जाएगा। एक अकेली कामवासना आग की लपट बन जाएगी। उस में तुम्हारा अस्तित्व जलने लगेगा—मानो कि तुम समग्र रूपेण कामुक हो उठे हो। तब कामवासना काम-केंद्र पर ही सीमित नहीं रहेगी। वह तुम्हारे पूरे शरीर पर फैल जाएगी। तुम्हारे शरीर का एक-एक तंतु कांपने लगेगा। कामना अंगारा बन जाएगी। तब उसे छोड़ दो, उससे अचानक हट जाओ। उससे लड़ों मत, इतना ही कहो कि मैं छोड़ता हूं।
तब क्या होगा। ज्यों ही तुम कहते हो कि मैं छोड़ता हूं, एक अलगाव घटित होता है। तुम्हारा शरीर कामात्तप्त शरीर और तुम दो हो जाते हो। अचानक एक क्षण को भीतर उनके बीच जमीन-आसमान की दूरी पैदा हो गई। शरीर तो आवेग में, कामवासना से उद्वेलित है। और केंद्र शांत है। मात्र देख रहा है। स्मरण रहे, वहां कोई संघर्ष नहीं है। सिर्फ अलगाव है। संघर्ष तुम अलग नहीं होते, जब तुम लड़ते हो, तुम लड़ाई के विषय के साथ एक होते हो। तुम जब मात्र छोड़ देते हो तब तुम अलग होते हो, तब तुम इसे देख सकते हो। मानो तुम नहीं दूसरा देख रहा है।
मेरे एक मित्र बहुत वर्षों तक मेरे साथ थे। वे सतत धूम्रपान करते थे—चेन स्मोकर थे। और जैसा कि सभी धूम्रपान करने वाले करते है। मेरे मित्र ने भी निरंतर उससे छूटने की चेष्टा की। किसी सुबह अचानक तय करते कि अब मैं धूम्रपान नहीं करूंगा। और श्याम होते-होते फिर पीने लगते। और फिर वह अपराधी अनुभव करते और अपना बचाव करते और तब कुछ दिनों तक धूम्रपान छोड़ने का नाम भी नहीं लेते। फिर वे यह सब भूल जाते और किसी दिन साहस जुटाकर फिर कहते कि अब मैं धूम्रपान नहीं करूंगा। और मैं सिर्फ हंसता, क्योंकि यह घटना इतनी बार दुहरा चुकी थी।
फिर वे खुद भी इस दुस्चक्र से ऊब उठे कि धूम्रपान करना और छोड़ना मानो हमेशा-हमेशा के लिए उनका संगी साथी बन गया है। वे गंभीरता से सोचने लगे कि क्या करू। और तब उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं क्या करूं। मैंने उनसे कहा कि पहली बात तो यह कि धूम्रपान का विरोध करना छोड़ दो, धूम्रपान करो और मजे से करो। सात दिनों तक इसका कोई विरोध मत करो, इसे स्वीकार कर लो।
उन्होंने कहा कि यह आप क्या कह रहे है। मैं इसके विरोध में रहकर भी इसे नहीं छोड़ सकता हूं। और आप इसे स्वीकार को कहते है। तब तो छोड़ने की जरा भी संभावना नहीं रहेगी। मैंने उन्हें समझाया कि तुम शत्रुता का रूख प्रयोग करके देख चुके, निष्फलता ही हाथ लगी है। अब मैत्री के रूख का प्रयोग करो। बस सात दिनों के लिए धूम्रपान का विरोध मत करो।
उन्होंने छूटते ही पूछा कि क्या तब धूम्रपान छूट जाएगा? मैंने कहा: तुम अब भी उसके प्रति शत्रुता का भाव रखते हो। छोड़ने के भाव में ही शत्रुता है। छोड़ने की बात ही भूल जाओ। धूम्रपान के साथ रहो। उसके साथ सहयोग करो। क्या कोई मित्र को छोड़ने का विचार करता है। सात दिन तक छोड़ने की बात को भूल जाओ। उसका सहयोग करो। जितना संभव हो उतने प्रगाढ़ ढंग से, उतने प्रेम के साथ पीओ। जब तुम धूम्रपान कर रहे हो तो उस समय सब कुछ भूलकर धूम्रपान ही हो जाओ। उसके साथ आराम से रहो, उसके साथ संवाद साध लो। सात दिन तक जितना संवाद साध लो। सात दिन तक जितना चाहो उतना धुम्रपान करो, छोड़ने की बात ही भूल जाओ।
ये सात दिन उनके लिए विमर्श के दिन बन गये। वे धूम्रपान के तथ्य को सीधा-सीधा देख पाए। वे इसके विरोध में नहीं थे। इसलिए अब वे इसका साक्षात्कार कर सकते थे। जब तुम किसी व्यक्ति या वस्तु के विरोध में होते हो तो तुम उसका साक्षात्कार नहीं कर सकते। विरोध ही बाधा बन जाता है। तब विमर्श कहां। क्या तुम शत्रु पर विमर्श करते हो? तुम उसे देख भी नहीं सकते। तुम उसकी आँख से आँख नहीं मिला सकते। शत्रु को देखना बहुत कठिन है। तुम उसी व्यक्ति की आंखों में आँख डालकर देख सकते हो। जिसे तुम प्रेम करते हो। प्रेम में ही तुम गहरे उतर सकते हो। अन्यथा आँख मिलाना मुश्किल है।
मेरे उन मित्र ने धूम्रपान के तथ्य का गहराई से साक्षात्कार किया। सात दिन तक वे विमर्श करते रहे। उन्होंने विरोध छोड़ दिया था। इसीलिए ऊर्जा सुरक्षित थी। और वह ध्यान बन गया। उन्होंने सहयोग किया और वे धुम्रपान सी बन गए।
सात दिन बाद मेरे मित्र मुझे कहना भी भूल गये कि क्या हुआ था। मैं इंतजार कर रहा था कि वे और कहेंगे कि सात बित गये। अब मैं धूम्रपान कैसे छोडू। वे सात दिन की बात ही भूल गये। तीन सप्ताह गुजर गये तो मैंने ही उनसे पूछा कि आप बिलकुल भूल गये क्या? उन्होंने कहा कि यह अनुभव सुंदर रहा, इतना सुंदर कि अब मैं किसी चीज के विषय में सोचना ही नहीं चाहता। पहली बार मैंने तथ्य के साथ संघर्ष नहीं किया, पहली बार मैं सिर्फ अनुभव कर रहा हूं। उसे जो मेरे साथ घटित हो रहा है।
तब मैंने उनसे कहा, ‘’अब जि भी धुम्रपान की वृति पैदा हो, तो उसे छोड़ दो।‘’ उन्होंने फिर नहीं पूछा कि कैसे छोड़ना है। उन्होंने पूरी चीज पर विमर्श किया था। और उससे ही वह पूरी चीज बचकानी दिखने लगी थी। संघर्ष की गुंजाईश ही नहीं थी। तब मैंने उनसे कहा कि अब जब फिर धूम्रपान की चाह पैदा हो तो उसे देखो। और उसे छोड़ दो। सिगरेट को अपने हाथ में ले लो, एक क्षण के लिए रूको और तब सिगरेट को छोड़ दो, गिर जाने दो। और सिगरेट के गिरने के साथ-साथ धूम्रपान की वृति पैदा हो और तुम उसे छोड़ दो तो सारी ऊर्जा एक छलांग लेकर भीतर गति कर जाती है।
विधि एक ही है, केवल उसके आयाम भिन्न है।
‘’जब कोई कामना उठे, उस पर विमर्श करो। फिर, अचानक, उसे छोड़ दो।‘’
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—2
प्रवचन—17