अचानक रूकने की कुछ विधियां:
पांचवी विधि:
थोड़े से शब्दों की यह विधि एक अर्थ में बहुत सरल है और दूसरे अर्थ में अत्यंत कठिन। यह पांचवी विधि कहती है:
‘’भक्ति मुक्त करती है।‘’
थोड़े से शब्द: भक्ति मुक्त करती है। सच में तो यह एक ही शब्द है। क्योंकि ‘’मुक्त करती है।‘’ भक्ति का परिणाम है। भक्ति का क्या मतलब है।
विज्ञान भैरव तंत्र में दो कोटि की विधियां है। एक कोटि उनके लिए है जो मस्तिष्क प्रधान है। विज्ञानोन्मुख है। और दूसरी उनके लिए है जो ह्रदय प्रधान है। भावोन्मुख है, कवि है। और दो ही तरह के मन है—वैज्ञानिक मन और काव्यात्मक मन। और इनमें जमीन आसमान का अंतर है। वे एक दूसरे से की नहीं मिलते है। मिलन असंभव है। कभी-कभी वे समानांतर चलते है। लेकिन मिलते कही नहीं।
कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई आदमी कवि भी है और वैज्ञानिक भी। यह दुर्लभ घटना है। कोई व्यक्ति कवि और विज्ञानी दोनो हो। तब उसका व्यक्तित्व खंडित होगा। तब वह यथार्थ में दो होगा, एक नहीं। जब वह कवि होता है तब वैज्ञानिक नहीं होता। अन्यथा उसका वैज्ञानिक उपद्रव करेगा। और जब वह वैज्ञानिक होता है तो अपने कवि को बिलकुल भूल जाता है। और तब वह दूसरे जगत में प्रवेश करता है—जो धारण, विचार, तर्क, बुद्धि और गणित का जगत है। वह जगत ही अलग है। और जब वह कविता के जगत में विचारण करता है तो वह गणित नहीं, संगीत होता है। वहां धारणाएं नहीं होती, वहां शब्द होते है। लेकिन तरल शब्द, ठोस नहीं। वहां एक शब्द दूसरे शब्द में प्रवेश कर जाता है। वहां एक शब्द के अनेक अर्थ हो सकते है। और हो सकता है कोई भी अर्थ न हो। वहां व्याकरण खो जाता है। सिर्फ काव्य रहता है। यह और ही दुनिया हे।
विचारक और भावुक, ये दो कोटियां है। पहली विधि, जिसकी चर्चा अभी मैंने की, वैज्ञानिक मन के लिए थी। ‘’भक्ति मुक्त करती है।‘’ भावुक मन के लिए है। और याद रहे कि तुम्हें अपनी कोटी खोज लेनी है। कोई भी कोटी छोटी या बड़ी नहीं है। यह मत सोचो की बौद्धिक मन श्रेष्ठ है। या भावुक मन श्रेष्ठ है। नहीं वे सिर्फ कोटियां है। ऊंच-नीच की कोई बात नहीं है। इसलिए खोजों कि तुम्हारी कोटि तथ्यतः: क्या है।
दूसरी विधि भावुक कोटि के लोगो के लिए है। क्यों? क्योंकि भक्ति किसी और के प्रति होती है। और भक्ति अंधी होती है। भक्ति में दूसरा तुमसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। यह श्रद्धा है। बुद्धिवादी किसी पर श्रद्धा नहीं कर सकता है। वह सिर्फ आलोचना कर सकता है। श्रद्धा नहीं। वह संदेह कर सकता है। भरोसा नहीं। और अगर कभी कोई बुद्धि प्रधान व्यक्ति आस्था के निकट आता है तो उसकी आस्था प्रामाणिक नहीं होती।
पहली बात तो यह कि वह किसी तरह अपनी आस्था के संबंध में अपने को राज़ी करता है। ऐसी आस्था कभी प्रामाणिक नहीं होती। वह प्रमाण खोजता है। दलील खोजता है। और वह पाता है कि दलीलें ठोस है, तो ही विश्वास करता है। लेकिन यही वह चूक जाता है। क्योंकि आस्था तर्क नहीं करती है और न आस्था प्रमाणों पर आधारित है। अगर प्रमाण उपलब्ध है। तो आस्था की जरूरत क्या है।
तुम सूरज में विश्वास नहीं करते हो, तुम आसमान में विश्वास नहीं करते हो, तुम बस उन्हें जानते हो। सूरज उग रहा है। इसमें विश्वास करने की क्या बात है? अगर कोई तुमसे पूछे कि क्या तुम सूरज उग रहा है। इसमें विश्वास करते हो, तो तुम यह नहीं कहते कि हां, मैं विश्वास करती हू और एक बड़ा विश्वासी हूं। तुम यही कहती हो कि सूरज उग रहा है। और मैं यह जानता हूं। विश्वास या अविश्वास का प्रश्न की नहीं है। क्यों ऐसा व्यक्ति भी है जिसे सूरज में विश्वास हो? ऐसा कोई नहीं है।
श्रद्धा का अर्थ है: बिना किसी प्रमाण के अज्ञात में छलांग।
यह कठिन है, बौद्धिक कोटि के मनुष्य के लिए यह कठिन है। क्योंकि तब पूरी चीज बेतुकी हो जाती है। पागलपन की हो जाती है। पहले प्रमाण चाहिए। अगर तुम कहते हो कि ईश्वर है और उसके प्रति समर्पण करना है, तो पहले ईश्वर को सिद्ध करना होगा।
लेकिन तब ईश्वरा एक प्रमेय हो जाता है; सिद्ध तो हो जाता है। पर व्यर्थ हो जाता है। ईश्वर को असिद्ध ही रहना है; अन्यथा वह किसी काम का न रहेगा। क्योंकि तब श्रद्धा अर्थहीन हो जाती है। अगर तुम एक सिद्ध किए हुए ईश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हारा ईश्वर ज्यामिति का एक प्रमेय मात्र है। कोई यूक्लिड के प्रेमियों में विश्वास नहीं करता; उसकी जरूरत नहीं थी। वह प्रमेय सिद्ध किए जा सकते है। और जो सिद्ध किया जा सकता है वह श्रद्धा के लिए आधार नहीं हो सकता।
एक अत्यंत रहस्यवादी ईसाई संत तरतुलियन ने कहा है कि मैं ईश्वर में इसलिए विश्वास करता हूं क्योंकि वह बेतुका है। अविश्वासी है। और यह ठीक कहता है। भावुक लोगों की दृष्टि यही है। तरतुलियन कहता है कि चूंकि उसे सिद्ध नहीं किया जा सकता इसलिए मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं।
और वह एक अर्थ में सही है; क्योंकि श्रद्धा का अर्थ है। किन्हीं कारणों के बिना अज्ञात में छलांग। और सिर्फ भावपूर्ण व्यक्ति ही यह कर सकता है।
भक्ति को छोड़ो; पहले प्रेम को समझो और तब तुम भक्ति को भी समझ सकोगे।
तुम किसी के प्रेम में पड़े हुए हो। अंग्रेजी में इसे फालिंग इन लव—प्रेम में गिरना कहते है। हम प्रेम में गिरना क्यों कहते है। कुछ नहीं गिरता है सिर्फ तुम्हारा सिर गिरता है। प्रेम में सिर के सिवाय और क्या गिरता है। तुम अपने सिरा से नीचे गिर जाते हो। इसी से हम इसे ‘’प्रेम में गिरना’’ कहते है। भाषा बौद्धिक कोटि के लोग निर्मित करते है। उनके लिए प्रेम पागलपन है। विक्षिप्तता है। कोई प्रेम में गिर गया है। इसका मतलब हुआ कि अब वह कुछ भी कर सकता है। अब वह पागल हो गया है। बुद्धि उसे काम न आएगी। तुम उसके साथ तर्क न कर सकोगे। क्या तुम किसी प्रेमी के साथ तर्क कर सकते हो। लोग चेष्टा करते है। लेकिन कुछ हाथ नहीं आता।
तुम किसी के प्रेम में पड़ गए हो। हर कोई कहता है कि यह तुम्हारे योग्य नहीं है। या कि तुम मुसीबत मोल ल रहे हो, या कि तुम मुर्ख बन रहे हो, और इससे अच्छा प्रेम पात्र मिल सकता था। लेकिन यह सब कहने का तुम पर कोई असर न होगा। कोई दलील काम न आएगी। तुम प्रेम में हो; अब बुद्धि व्यर्थ हो गई। प्रेम की अपनी तर्क सरणी है।
दो प्रेमी मौन हो जाते है। और जब दो प्रेमी फिर बातचीत करने लग जाते है तो समझ लेना कि प्रेम विदा हो चुका है। कि वे फिर अजनबी हो गए है। जाओ और पति-पत्नियों को देखो। जब वे अकेले होते है तो वे किसी भी चीज के बारे में बातचीत करते रहते है। और वह दोनों जानते है कि बातचीत गैर-जरूरी है। लेकिन चुप रहना कितना कठिन है। इसलिए किसी क्षुद्र सी बात पर भी बात किए जाओ। ताकि संवाद चलता रहे।
लेकिन दो प्रेमी मौन हो जाये भाषा खो जायेगी; क्योंकि भाषा बुद्धि की चीज है। शुरूआत तो बच्चों जैसी बातचीत से होगी। लेकिन फिर वह नहीं रहेगी। तब वे मौन में संवाद करेंगे। उनका संवाद क्या है। उनका संवाद अतर्क्य है। वे अस्तित्व के एक भिन्न आयाम के साथ लयवद्ध हो जाते है। और वे उस लयबद्धता में सुखी अनुभव करते है। और अगर तुम उनसे पूछो कि उनका सुख क्या है तो वे उसे प्रमाणित नहीं कर सकते।
सेक्स और प्रेम में यही भेद है। अगर सिर्फ दो शरीर एक होते हों तो बहुत अड़चन नहीं है और उसमें पीड़ा भी नहीं है। यह बहुत सरल बात है; कोई पशु भी कर सकता है। लेकिन जब दो व्यक्ति प्रेम में मिलते है तो कठिनाई है, बहुत कठिनाई है। क्योंकि तब दो मनों को विसर्जित होना पड़ता है। अनुपस्थित होना पड़ता है। तभी वह स्थान निर्मित होता है। जिसमे प्रेम का फूल खिल सके।
प्रेम में होता क्या है? प्रेम में दूसरा महत्वपूर्ण हो जाता है। तुमसे ज्यादा महत्वपूर्ण। चीजें मेरे चारों और घूमती है। और मेरे लिए घूमती है। और केंद्र मैं हूं। बुद्धि सदा इसी भांति काम करती है।
तर्क सदा स्व-केंद्रित होता है। मन सदा अहं-केंद्रित होता है। मैं केंद्र हूं और शेष सब चीजें मेरे चारो और घूमती है, और मेरे लिए घूमती है। लेकिन केंद्र मैं हूं। बुद्धि सदा सी भांति काम करती है।
अगर तुम बुद्धि के साथ बहुत दूर तक चलोगे तो तुम उसी निष्कर्ष पर पहुंचोगे जिस पर बर्कले पहुंचा था। उसने कहा: केवल मैं हूं और शेष सब चीजें मेरे मन की धारणाएं भर है। मैं कैसे सिद्ध कर सकता हूं कि तुम सचमुच हो? हो सकता है, कि तुम बिलकुल न होओ। तुम एक सपना होओ। और मैं भी एक सपना होऊं और सपने में ही बोल रहा हूं। और हो सकता है कि तुम बिलकुल न होओ। मैं कैसे अपने को समझाऊं कि तुम सचमुच हो? हालांकि मैं तुमको छू सकता हूं लेकिन ऐसा छूना तो सपना में भी होता है। और सपने में भी मुझे किसी के छूने पर छूने की अनुभूति होती है। मैं तुम्हें चोट कर सकता हूं। और तुम रोओगे, लेकिन ऐसे में सपने में भी किसी को चोट कर मैं उस स्वप्न के व्यक्ति को रुला सकता हूं। यह भेद कैसे किया जाए कि जो व्यक्ति मेरे सामने है वह स्वप्न नहीं यथार्थ है? हो सकता है, वह काल्पनिक हो।
ह्रदय का मार्ग इसके विपरीत है। मैं खो जाता हूं और दूसरा प्रेम-पात्र यथार्थ हो जाता है। अगर तुम प्रेम को उसकी पराकाष्ठा पर पहुंचा दो तो वह भक्ति हो जाता है। अगर तुम्हारा प्रेम इस चरम बिंदु पर पहुंच जाए कि जहां तुम बिलकुल भूल जाओ कि मैं हूं। जहां तुम्हें अपना होश न रहे, और जहां दूसरा ही रह जाए, तो वही भक्ति है।
प्रेम भक्ति बन सकता है। प्रेम पहला चरण है, तभी भक्ति का फूल खिलता है। लेकिन हमारे लिए तो प्रेम भी दूर का तारा है। हमारे लिए सेक्स या काम ही सच्चाई है।
प्रेम की दो संभावनाएं है। प्रेम अगर नीचे गिरे तो काम बन जाता है। शारीरिक रह जाता है। और अगर प्रेम ऊपर उठे तो भक्ति बन जाता है। आत्मा की चीज बन जाता है। प्रेम दोनों के बीच में है। प्रेम के नीचे सेक्स का पाताल है। और उसके उपर भक्ति का अनंत आकाश है।
यदि तुम्हारा प्रेम गहरा हो तो दूसरा ज्यादा-ज्यादा अर्थपूर्ण हो जाता है—वह इतना अर्थपूर्ण हो जाता है कि तुम उसे अपना भगवान कहने लगते हो। यही कारण है कि मीरा कृष्ण को प्रभु कहे चली जाती है। न कृष्ण को कोई देख सकता है , न मीरास सिद्ध कर सकती है कि कृष्ण वहां है। लेकिन मीरा इसे सिद्ध करने में उत्सुक नहीं है। मीरा ने कृष्ण को अपना प्रेम-पात्र बना लिया है।
और याद रहे, तुम किसी यथार्थ व्यक्ति को अपना प्रेम पात्र बनाते हो या किसी कल्पना के व्यक्ति को, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। कारण यह है कि सारा रूपांतरण भक्ति के माध्यम से आता है। प्रेम-पात्र के माध्यम से नहीं। इस बात को सदा स्मरण रखो। कृष्ण नहीं भी हो सकते है। यह अप्रासंगिक है। प्रेम के लिए अप्रासंगिक है।
‘’भक्ति मुक्त करती है।‘’
इसलिए हमें प्रेम में ही स्वतंत्रता की झलक मिलती है। जब तुम प्रेम में होते हो तो तुम्हें सूक्ष्म ढंग की स्वतंत्रता का अहसास होता है। यह विरोधाभासी है; क्योंकि दूसरे तो वही देखेंगे कि तुम गुलाम हो गए हो। अगर तुम किसी के प्रेम में हो तो तुम्हारे इर्द-गिर्द के लोग सोचेंगे कि तुम एक दूसरे के गुलाम हो गए हो। लेकिन तुम्हें स्वतंत्रता की झलकें मिलने लगेंगी।
प्रेम मुक्ति है। क्यो? इसलिए कि अहंकार ही बंधन है। और कोई बंधन नहीं है। कल्पना करो कि तुम कारागृह में हो और उसके बाहर निकलने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन तुम्हारी प्रेमिका उस कारागृह में पहूंच जाये तो वह कारागृह तत्क्षण खो जायेगा। दीवारें तो जहां की ताह होंगी। लेकिन अब तुम्हें कैद न कर सकेंगी। तुम उन्हें बिलकुल भूल जा सकते हो। तुम एक दूसरे में डूब सकते हो और तुम एक दूसरे के उड़ने के लिए आकाश बन जा सकते हो। कारागृह विलीन हो गया; वह कारागृह अब कारागृह न रहा।
और यह भी हो सकता है कि तुम खुले आकाश के नीचे हो सर्वथा बंधनहीन, सर्वथा मुक्त; लेकिन न हो कि कारागृह में ही हो। क्योंकि तब तुम्हारे उड़ने के लिए आकाश न रहा। यह बाहर का आकाश काम न देगा। इस आकाश में पक्षी उड़ते है; लेकिन तुम न उड़ सकोगे। तुम्हारे उड़ने के लिए एक भिन्न आकाश की जरूरत है। चेतना के आकाश में जरूरत है। कोई दूसरा हूं तुम्हें वह आकाश दे सकता है। उसका पहला स्वाद दे सकता है। जब दूसरा तुम्हारे लिए अपने को खोलना है तो तुम उसमें प्रवेश करते हो, तभी तुम उड़ सकते हो।
प्रेम स्वतंत्रता है। लेकिन समग्र स्वतंत्रता नहीं। जब प्रेम भक्ति बनता है तो ही वह समग्र स्वतंत्रता बनता है। उसका मतलब है कि तुम पूर्णरूपेण समर्पण कर दिया।
इसलिए ये सूत्र भक्ति मुक्त करती है। उनके लिए जो भाव प्रधान है। रामकृष्ण को लो। अगर राम कृष्ण को देखो तो तुम्हें लगेगा कि वे काली के, मां के गुलाम है। वे उसकी आज्ञा के बिना कुछ भी नहीं करते सकते है। लेकिन उनसे ज्यादा कौन स्वतंत्र हो सकता है।
रामकृष्ण जब पहले-पहले दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारी नियुक्त हुए तो उनका रंग-ढंग ही हैरान करने वाला था। मंदिर के ट्रस्टियों ने बैठक बुलायी और कहा के इस आदमी को निकाल बाहर करो। यह तो अभक्त जैसा व्यवहार करता है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि रामकृष्ण पहले खुद फूल को सूँघते और तब उसे काली के चरणों में चढ़ाते। लेकिन यह बात कर्मकांड के विपरीत हो जाती है। सूंघा हुआ फूल देवी-देवताओं को नहीं चढ़ाया जा सकता ; वह तो झूठा हो गया। अशुद्ध हो गया। रामकृष्ण पहले खुद चखते थे। फिर काली को भोग लगाते थे। और वे पुजारी थे। तो ट्रस्टियों ने कहा कि ऐसा नहीं चल सकता है।
रामकृष्ण ने ट्रस्टियों को जवाब दिया कि तब मुझे काम से मुक्त कर दो। मैं मंदिर से निकल जाना पसंद करूंगा। लेकिन मैं चखे बीन मां को भोग नहीं लगा सकता हूं। मेरी मां ऐसा ही करती थी। जब भी वह कुछ भोजन बनाती थी तो पहले खुद चखती थी। तब मुझे खिलाती थी। मैं सूंघ बिना कोई फूल नहीं चढ़ा सकता। मैं निकल जाने के राज़ी हूं। और तुम मुझे रोक नहीं सकते। मैं कहीं भी पूजा कर लुंगा। क्योंकि मां सर्वत्र है। वह तुम्हारे मंदिर में ही सीमित नहीं है। मैं जहां भी जाऊँगा इसी तरह मां की पूजा करता रहूंगा।
ऐसा हुआ कि किसी मुसलमान ने रामकृष्ण से कहा कि अगर आपकी काली सर्वत्र है तो आप हमारी मस्जिद में क्यों नहीं आते। उन्होंने कहा कि ठीक है, मैं आऊँगा। और वे छह महीने मस्जिद में रहे। वे दक्षिणेश्वर को पूरी तरह से भूल गये। और मस्जिद के ही होकर रह गये। तब उनके मित्रों ने आग्रह किया की अब तो बहुत दिन हो गये घर चलो। और उन मित्र ने कहां की आप सही है। और अब आप जा सकते है, सही में मां हर जगह है।
कोई सोच सकता है कि रामकृष्ण गुलाम है; लेकिन उनकी भक्ति ऐसी प्रगाढ़ है कि अब प्रेम-पात्र सब जगह है। जब तुम नहीं होते तो प्रेम-पात्र सर्वत्र होता है। और जब तुम होते हो तो प्रेम-पात्र कहीं नहीं होता।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—2
प्रवचन—17