साक्षित्व की दूसरी विधि–
‘’यह तथा कथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र-कृति जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।‘’
यह सारा संसार ठीक एक नाटक के समान है, इसलिए इसे गंभीरता से मत लो। गंभीरता तुम्हें उपद्रव में डाल देगी। तुम मुसीबत में पड़ोगे। इसे गंभीरता से मत लो। कुछ गंभीर नहीं है। सारा संसार एक नाटक मात्र है।
अगर तुम सारे जगत को नाटक की तरह देख सको तो तुम अपनी मौलिक चेतना को पा लोगे। उस पर धूल जमा हो जाती है। क्योंकि तुम अति गंभीर हो। यह गंभीरता ही समस्या पैदा करती है। और हम इतने गंभीर है कि नाटक देखते हुए भी हम धूल जमा करते रहते है। किसी सिनेमाघर में जाओ और दर्शकों को देखो। फिल्म को मत देखो, फिल्म को भूल जाओ पर्दे की तरफ मत देखो, हाल में जो दर्शक है उन्हें देखो। कोई रो रहा होगा। कोई हंस रहा होगा। किसी की कामवासना उत्तेजित हो रही होगी। सिर्फ लोगो को देखो। वे क्या कर रहे है। उन्हें क्या हो रहा है। पर्दे पर छाया-चित्रों के सिवाय कुछ भी नहीं है—धूप छांव का खेल है। पर्दा खाली है। लेकिन वे उत्तेजित क्यों हो रहे है?
वे हंस रहे है, वे रो रहे है। चित्र मात्र चित्र नहीं है; फिल्म मात्र फिल्म नहीं है। वे भूल गये है कि यह एक कहानी है। उन्होंने इसको गंभीरता से ले लिया है। चित्र जीवित हो उठा है, यर्थाथ हो गया है।
और यही चीज सर्वत्र घट रही है। यह सिनेमाघरों तक ही सीमित नहीं है। अपने चारों और के जीवन को तो देखो; क्या है? इस धरती पर असंख्य लोग रह चूके है। जहां तुम बैठे हो वहां कम सक कम दस लाशों की कब्र है। और वे लोग भी तुम्हारे जैसे ही गंभीर थे। वे अब कहां है? उनका जीवन कहां चला गया? उनकी समस्याएं कहा गई? वे लड़ते थे, एक-एक इंच जमीन के लिए, वह जमीन पड़ी रह गई और वे लोग कही नहीं है।
और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उनकी समस्याएं-समस्याएं नहीं थी। वे थीं; जैसे तुम्हारी समस्याएं-समस्याएं है। लेकिन कहां गई वह समस्याएं? और अगर किसी दिन पूरी मनुष्यता खो जाए तो भी धरती रहेगी। वृक्ष रहेगें । नदिया रहेगी। और सूरज इसी तरह से उगेगा। और पृथ्वी को मनुष्य की गैर-मौजूदगी पर न कोई खेद होगा। न आश्चर्य।
जरा इस विस्तार पर अपनी निगाह को दौडाओं। पीछे देखो, आगे देखो; सभी आयामों को देखा और देखो कि तुम क्या हो। तुम्हारा जीवन क्या है? सब कुछ एक बड़ा स्वप्न जैसा मालूम पड़ेगा। और हर चीज जिसे तुम इस क्षण इतनी गंभीरता से ले रहे हो, अगले क्षण ही व्यर्थ हो जाती है। तुम्हें उसकी याद भी नहीं रहती।
अपने प्रथम प्रेम को स्मरण करो। कितनी गंभीर बात थी वह, जैसे कि जीवन ही उस पर निर्भर करता है। और अब वह तुम्हें स्मरण भी नहीं है। बिलकुल भूल गया है। वैसे ही वे चीजें भी भूल जाएंगी जिन पर तुम आज अपने जीवन को निर्भर समझते हो।
जीवन एक प्रवाह है, वहां कुछ भी नहीं टिकता है। जीवन भागती फिल्म की भांति है। जिसमें हर चीज दूसरी चीज में बदल रहा है। लेकिन इस क्षण वह तुम्हें बहुत गंभीर बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है। और तुम उद्विग्न हो जाते हो।
वह विधि कहती है: ‘’यह तथा कथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र-कृति जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।‘’
भारत में हम इस जगत को परमात्मा की सृष्टि नहीं कहते, हम उसे लीला कहते है। यह लीला की धारणा बहुत सुंदर है। सृष्टि की धारणा गंभीर मालूम पड़ती है। ईसाई और यहूदी ईश्वर बहुत गंभीर है। एक अवज्ञा के लिए आदम को अदन के बग़ीचे से निकाल दिया गया। वह हमारा पिता था; और हम सब उसके कारण दुःख में पड़े है। ईश्वर बहुत गंभीर मालूम पड़ता है। उसकी अवज्ञा नहीं होनी चाहिए। और अगर अवज्ञा होगी तो वह बदला लेगा। और उसका प्रतिशोध अभी तक चला आ रहा है। प्रतिशोध के मुकाबले में पाप इतना बड़ा नहीं लगता है।
सच तो यह है कि आदम ने परमात्मा की बेवकूफी के चलते यह पाप किया। परम पिता परमात्मा ने आदम से कहा कि ज्ञान के वृक्ष के पास मत जाना और उसका फल मत खाना। यह निषध ही निमंत्रण बन गया। वह मनोवैज्ञानिक है। उसे बड़े बग़ीचे में केवल ज्ञान का वृक्ष आकर्षण हो गया। क्योंकि वह निषिद्ध था। कोई भी मनोवैज्ञानिक कहेगा कि भूल परमात्मा की थी। अगर उस वृक्ष के फल को नहीं खाने देना था तो उसकी चर्चा ही नहीं करना थी। तब आदम उस वृक्ष तक कभी नहीं जाता और मनुष्यता अभी भी उसी बग़ीचे में रहती होती। लेकिन इस वचन ने, इस आज्ञा ने कि ‘मत खाना’ सारा उपद्रव खड़ा कर दिया। इस निषेध ने उपद्रव पैदा किया। क्योंकि आदम ने अवज्ञा की, वह स्वर्ग से निकाल बहार किया गया। और प्रतिशोध कितना बड़ा है।
ईसाई कहते है कि जीसस हमें हमारे पाप से उद्भार दिलाने के लिए, हमें आदम के किए पाप से मुक्त करने लिए सूली पर चढ़ गये। तो ईसाइयों की इतिहास की पूरी धारणा दो व्यक्तियों पर निर्भर है। आदम और जीसस पर। आदम को क्षमा दिलाने के लिए सब यंत्रणा झेली। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि ईश्वर ने अब भी क्षमादान दिया हो। जीसस को तो सूली लग गई। लेकिन मनुष्यता अब भी उसी भांति दुःख में है।
पिता के रूप में ईश्वर की धारणा ही गंभीर है, कुरूप है। ईश्वर की भारतीय धारण स्त्रष्टा की नहीं, लीलाधर की है। वह गंभीर नहीं है। वह खेल-खेल रहा है। नियम नहीं है। लेकिन वह खेल के नियम है। उनके संबंध में गंभीर होने की जरूरत नहीं है। कुछ पाप नहीं है। भूल भर है। और तुम भूल के कारण कष्ट में पड़ते हो। परमात्मा तुम्हें दंडित नहीं कर रहा है। लीला की पूरी धारणा जीवन को एक नाटकीय रंग दे देती है। जीवन एक लंबा नाटक हो जाता है। और यह विधि इसी लीला की धारणा पर आधारित है।
‘’यह तथाकथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र-कृति जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।‘’
अगर तुम दुःखी हो तो इसलिए कि तुमने जगत को बहुत गंभीरता से लिया है। और सुखी होने का कोई उपाय मत खोजों, सिर्फ अपनी दृष्टि को बदलों। गंभीर चित से तुम सुखी नहीं हो सकते। उत्सव मनाने वाला चित ही सुखी हो सकता है। इस पूरे जीवन को एक नाटक, एक कहानी की तरह लो ऐसा ही है। और अगर तुम उसे इस भांति ले सके तो तुम दुःखी नहीं होगे। दुःख अति गंभीरता का परिणाम है।
सात दिन के लिए यह प्रयोग करो। सात दिन तक एक ही चीज स्मरण रखो। कि सारा जगत नाटक है। और तुम वही नहीं रहोगे। जो अभी हो। सिर्फ सात दिन के लिए प्रयोग करो। तुम्हारा कुछ खो नहीं जाएगा। क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए भी तो कुछ चाहिए। तुम प्रयोग कर सकते हो। सात दिन के लिए सब कुछ नाटक समझो। तमाशा समझो।
इन सात दिनों में तुम्हें तुम्हारे बुद्ध स्वभाव की, तुम्हारी आंतरिक पवित्रता की अनेक झलकें मिलेंगी। और इस झलक के मिलने के बाद तुम फिर वही नहीं रहोगे। जो हो। तब तुम सुखी रहोगे। और तुम सोच भी नहीं सकते कि यह सुख किस तरह का होगा। क्योंकि तुमने कोई सुख नहीं जाना। तुमने सिर्फ दुःख की कम-अधिक मात्राएं जानी है। कभी तुम ज्यादा दुःखी थे, और कभी कम। तुम नहीं जानते हो कि सुख क्या है। तुम उसे नहीं जान सकते हो। जब तुम्हारी जगत की धारणा ऐसी है कि तुम उसे बहुत गंभीरता से लेते हो तो तुम नहीं जान सकते कि सुख क्या हे। सुख भी तभी घटित होता है। जब तुम्हारी यह धारणा दृढ़ होती है। कि यह जगत केवल एक लीला है।
इस विधि को प्रयोग में लाओ। और हर चीज को उत्सव की तरह लो, हर चीज को उत्सव मनाने के भाव से करो। ऐसा समझो कि यह नाटक है। कोई असली चीज नहीं है। अगर अपने संबंधों को खेल बना लो बेशक खेल के नियम है; खेल के लिए नियम जरूरी है। विवाह नियम है। तलाक नियम है। उनके बारे में गंभीर मत होओ। वे नियम है और एक नियम को जन्म देता है। लेकिन उन्हें गंभीरता से मत लो फिर देखो कि कैसे तत्काल तुम्हारे जीवन का गुणधर्म बदल जाता है।
आज रात अपने घर जाओ और अपनी पत्नी या पति या बच्चों के साथ ऐसे व्यवहार करो जैसे कि तुम किसी नाटक में भूमिका निभा रहे हो। और फिर उसका सौंदर्य देखो अगर। तुम भूमिका निभा रहे हो तो तुम उसमे कुशल होने की कोशिश करोगे। लेकिन उद्विग्न नहीं होगे। उसी कोई जरूरत नहीं है। तुम अपनी भूमिका निभा कर सोने चले जाओगे। लेकिन स्मरण रहे कि यह अभिनय है। और सात दिन तक इसका सतत ख्याल रखे। तब तुम्हें सुख उपलब्ध होगा। और जब तुम जान लोगे कि क्या सुख है तो फिर दुःख में गिरने की जरूरत नहीं रही। क्योंकि यह तुम्हारा ही चुनाव है।
तुम दुःखी हो, क्योंकि तुमने जीवन के प्रति गलत दृष्टि चूनी है। तुम सुखी हो सकते हो। अगर दृष्टि सम्यक हो जाए। बुद्ध सम्यक दृष्टि को बहुत महत्व देते है। वे सम्यक दृष्टि को ही आधार बनाते है। बुनियाद बनाते है। सम्यक दृष्टि क्या है? उसकी कसौटी क्या है ?
मेरे देखे कसौटी यह है: ‘’जो दृष्टि सुखी करे वह सम्यक दृष्टि है। और जो दृष्टि तुम्हें दुखी पीडित बनाए वह असम्यक दृष्टि है। और कसौटी बाह्य नहीं है। आंतरिक है। और कसौटी तुम्हारा सुख है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन
प्रवचन-37