‘’जैसे जल से लहरें उठती है और अग्नि से लपटें, वैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।‘’
पहले तो यह समझने की कोशिश करो लहर क्या है, और तब तुम समझ सकते हो कि कैसे यह चेतना की लहर तुम्हें ध्यान में ले जाने में सहयोगी हो सकती है।
तुम सागर में उठती लहरों को देखते हो। वे प्रकट होती है; एक अर्थ में वे है, और फिर भी किसी गहरे अर्थ में वे नहीं है। लहर के संबंध में समझने की यह पहली बात है। गहरे अर्थ में प्रकट होती है; एक अर्थ में लहर है। लेकिन किसी गहरे अर्थ में लहर नहीं है। गहरे अर्थ में सिर्फ सागर है। सागर के बिना लहर नहीं हो सकती। और जब लहर है भी तो भी यह सागर ही है। लहर रूप भर है। सत्य नहीं है। सागर सत्य है। लहर केवल रूप है।
भाषा के कारण अनेक समस्याएं उठ खड़ी होती है। क्योंकि हम कहते है लहर, इससे लगता है कि लहर कुछ है। बेहतर हो कि हम लहर न कहकर लहराना कहें। लहर नहीं, लहराना ही है। वह कोई वस्तु नहीं है, एक क्रिया है। वह एक गति है, प्रक्रिया है; वह कोई पदार्थ नहीं है। वह कोई तत्व सत्य नहीं है। पदार्थ या तत्व तो सागर है; लहर एक रूप भर है।
सागर शांत हो सकता है। तब लहरें विलीन हो जाएंगी। लेकिन सागर तो रहेगा। सागर शांत हो सकता है। या बहुत सक्रिय और क्षुब्ध हो सकता है; या सागर निष्क्रिय हो सकता है। लेकिन तुम्हें कोई शांत लहर देखने को नहीं मिलेगी। लहर सक्रियता है, सत्य नहीं। जब सक्रियता है तो लहर है; यह लहराना है, गति है, हलन चलन है—एक साधारण सी हलचल। लेकिन जब शांति आती है। जब निष्क्रियता आती है तो लहर नहीं रहती। लेकिन सागर रहता है। दोनों अवस्थाओं में सागर सत्य है। लहर उसका एक खेल है। लहर उठती है। खो जाती है। लेकिन सागर रहता है।
दूसरी बात लहरें अलग-अलग दिखती है। प्रत्येक लहर का अपना व्यक्तित्व है। अनूठा औरों से भिन्न। कोई दो लहरें समान नहीं होती। कोई लहर बड़ी होती है। कोई छोटी उनके अपने-अपने विशिष्ट लक्षण होते है। प्रत्येक लहर का निजी ढंग होता है। और निश्चित ही प्रत्येक लहर दूसरे से भिन्न होती है। एक लहर उठ रही होती है, दूसरी मिट रही होती है। जब एक उठती है तो दूसरी गिरती है। दोनों एक नहीं हो सकती। क्योंकि एक जन्म ले रही होती है और दूसरी मिट रही होती है। फिर भी दोनों लहरों के पीछे जो सत्य है वह एक ही है।
लेकिन संभव है कि उठती हुई लहर मिटने वाली लहर से ऊर्ज ग्रहण कर रही हो। मिटने वाली लहर अपनी मृत्यु के द्वारा उसे उठने में मदद कर रही हो। बिखरने वाली लहर उस लहर के लिए कारण बन सकती है जो उठ रही है। बहुत गहरे में वि एक ही सागर से जुड़ी है। वे भिन्न नहीं है। वे पृथक नहीं है। उनका व्यक्तित्व झूठ है, भ्रामक है। वे जुड़ी है। उनका द्वैत भासता है। लेकिन है नहीं। उनका अद्वैत सत्य है।
अब सूत्र को फिर से पढ़ता हूं: ‘’जैसे जल से लहरें उठती है, और अग्नि से लपटें, वैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।‘’
हम जागतिक सागर में लहर मात्र है। इस पर ध्यान करो; इस भाव को अपने भीतर खूब गहरे उतरने दो। अपनी श्वास को उठती हुई लहर की तरह महसूस करना शुरू करो। तुम श्वास लेते हो; तुम श्वास छोड़ते हो। जो श्वास अभी तुम्हारे अंदर जा रही है वह एक क्षण पहले किसी दूसरे की श्वास थी। और जो श्वास अभी तुम्हारे से बहार जा रही है। वही श्वास अगले क्षण किसी दूसरी की श्वास हो जायेगी। श्वास लेना जीवन के सागर में लहरों के उठनें-गिरने जैसा ही है। तुम पृथक नहीं हो, बस लहर हो। गहराई में तुम एक हो। हम सब इकट्ठे है, संयुक्त है। वैयक्तिकता झूठी है। भ्रामक है। इसलिए अहंकार एकमात्र बाधा है। वैयक्तिकता झूठी है। वह भासती है। लेकिन सत्य नहीं है। सत्य तो अखंड है, सागर है, अद्वैत है।
यही कारण है कि प्रत्येक धर्म अहंकार के विरोध में है। जो व्यक्ति कहता है कि ईश्वर नहीं है वह अधार्मिक न भी हो, लेकिन जो कहता है कि मैं हूं वह अवश्य अधार्मिक है।
गौतम बुद्ध नास्तिक थे; वे किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। महावीर वर्धमान नास्तिक थे। उन्हें भी किसी ईश्वर में विश्वास नहीं था। लेकिन वे पहुंच गए, उन्होंने पाया; वे समग्रता को, पूर्ण को उपलब्ध हुए। अगर तुम्हें किसी परमात्मा में विश्वास नहीं है तो तुम अधार्मिक नहीं हो। क्योंकि धर्म के लिए ईश्वर बुनियादी नहीं है। धर्म के लिए निरहंकार बुनियादी है। और अगर तुम ईश्वर में विश्वास भी करते हो, लेकिन अहंकार भरे मन सक विश्वास करते हो तो तुम अधार्मिक हो। अहंकार रहित मन के लिए ईश्वर में विश्वास की भी जरूरत नहीं है। निरहंकारी व्यक्ति अपने आप ही, सहज ही परमात्मा में लीन हो जाता है। निरहंकारी होकर तुम लहर से नहीं चिपके रह सकते हो; तुम्हें सागर में गिरना ही होगा। अहंकार लहर से चिपका रहता है। जीवन को सागर की भांति देखो और अपने को लहर मात्र समझो; और इस भाव को अपने भीतर उतरने दो।
इस विधि को तुम कई ढंग से उपयोग में ला सकते हो। श्वास लेते हो तो भाव करो कि सागर ही तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है; सागर ही तुम्हारे भीतर आता है। और बाहर जाता है। प्रत्येक श्वास के साथ महसूस करो। जब लहर मिट रही है, उन दोनों के बीच तुम कौन हो। बस एक शुन्य एक खाली पन।
उस शून्यता के भाव के साथ तुम रूपांतरित हो जाओगे। उस खालीपन के भाव के साथ तुम्हारे सब दुःख विलीन हो जायेगे। क्योंकि दुःख को होने के लिए किसी केंद्र की जरूरत होती है। वह भी झूठे केंद्र की। शुन्य ही तुम्हारा असली केंद्र है। उस शून्य में दुःख नहीं है। उस शून्य में तुम गहन विश्राम में होते हो। जब तुम ही नहीं हो तो तनावग्रस्त कौन होगा। तुम तब आनंद से भर जाते हो। ऐसा नहीं है कि तुम आनंदपूर्ण होते हो; सिर्फ आनंद होता है। तुम्हारे बिना क्या तुम दुःख निर्मित कर सकते हो।
यही कारण है कि बुद्ध कभी नहीं कहते है कि उस अवस्था में, परम अवस्था में आनंद होगा। वे ऐसा नहीं कहते; वे यही कहते है कि दुःख नहीं होगा। बस। आनंद की बात करने से तुम भटक सकते हो, इसलिए बुद्ध आनंद की बात नहीं करते। वे कहते है कि आनंद की बात ही मत करो। सिर्फ जानो कि दुःख से कैसे मुक्त हुआ जाए; उसका मतलब है कि अपने बिना खुद के बिना कैसे हुआ जाए।
हमारी समस्या क्या है? समस्या यह है कि लहर अपने को सागर से पृथक मानती है। तब समस्याएं उठ खड़ी होती है। अगर लहर को सागर से पृथक मानती है तो उसे तुरंत मृत्यु का भय पकड़ता है। लहर तो मिटेगी। लहर अपने चारों और अन्य लहरों को मिटते हुए देख सकती है। लहर जानती है कि उसके उठने में ही कहीं मृत्यु छिपी है। क्योंकि दूसरी लहरें भी तो क्षण भर पहले उठ रही थी और अब वे गिर रही है। बिखर रही है। मिट रही है। तुम्हें भी मिटना होगा।
अगर लहर अपने को सागर से पृथक मानती है तो देर-अबेर मृत्यु का भय उसे अवश्य घेरेगा। लेकिन अगर लहर जान ले कि मैं नहीं हूं, सागर है। तो मृत्यु का कोई भय नहीं है। लहर ही मरती है; सागर नहीं मरता। मैं मर सकता हूं; लेकिन जीवन नहीं मरता। तुम मर सकते हो, तुम मरोगे। लेकिन जीवन नहीं मरेगा। अस्तित्व नहीं मरेगा। अस्तित्व तो लहराता ही जाता है। वह तुममें लहराया है; वह दूसरों में लहराएगा। और जब तुम्हारी लहर बिखर रही होगी; तो संभव है कि तुम्हारे बिखराव में से ही दूसरी लहरें उठे। सागर जारी रहता है।
जब तुम अपने को लहर के रूप में पृथक देख लेते हो तो सागर के साथ, अरूप के साथ एक जान लेते हो। एकात्म अनुभव करते हो। प्रत्येक संताप में, प्रत्येक चिंता में मृत्यु का भय मूलभूत है। तुम भयभीत हो, कांप रहे हो। चाहे तुम्हें इसका बोध न हो, लेकिन अगर तुम अपने अंतस में प्रवेश करोगे। तो पाओगे। कि प्रत्येक क्षण तुम कांप रहे हो, क्योंकि तुम मरने वाले हो। तुम अनेक सुरक्षा के उपाय कर सकते हो, तुम अपने चारों और क़िलाबंदी कर सकते हो; लेकिन कुछ भी काम न देगा। कुछ भी काम नहीं देगा। धूल-धूल में जा मिलती है। तुम धूल में मिलने ही वाले हो।
क्या तुमने कभी इस बात पर गौर किया है, इस तथ्य पर ध्यान किया है। कि अभी तुम रास्ते पर चल रहे हो तो जो धूल तुम्हारे जूते पर जमा हो रही है, हो सकता है वह धूल किसी नेपोलियन, किसी सिकंदर के शरीर की धूल हो। सिकंदर इस समय कही न कही धूल बना पडा है। और हो सकता है। कि तुम्हारे जूते से चिपकी धूल सिकंदर के शरीर की ही धूल हो। यही तुम्हारी भी हाल होने वाला है। इस क्षण तुम हो और अगले क्षण तुम नहीं होगे। यही तुम्हारा भी हाल होने वाला है। देर-अबेर धूल-धूल में मिल जाएगी। लहर विदा हो जायेगी।
भय पकड़ता है। जरा कल्पना करो कि तुम किसी के जूते से चिपकी हुई धूल हो या कोई तुम्हारे शरीर से, तुम्हारी प्रेमिका के शरीर से चाक पर बर्तन गढ़ रहा हो। या कल्पना करो कि तुम किसी कीड़े के शरीर में या वृक्ष के शरीर में प्रवेश कर रहे हो। लेकिन यही हो रहा है। प्रत्येक चीज रूप है और रूप को मिटना है। केवल अरूप शाश्वत है। अगर तुम रूप से बंधे हो, अगर रूप ही तुम्हारा तादात्म्य है। अगर तुम अपने को लहर मानते हो, तो तुम अपने ही हाथों उपद्रव में पड़ने वाले हो।
तुम सागर हो, लहर नहीं। यह ध्यान सहयोगी हो सकता है। यह तुम्हारा रूपांतरण बन सकता है। लेकिन इसे अपने पूरे जीवन पर फैलने दो। श्वास लेते हुए सोचो, भोजन करते हुए सोचो, चलते हुए सोचो। दो चीजें सोचो कि रूप सदा लहर है। और अरूप सागर है। कि रूप मृण्मय है। और अरूप अमृत है।
और ऐसा नहीं है कि तुम किसी दिन मरोगे; तुम प्रतिदिन मर रहे हो। बचपन मरता है। और यौवन जन्म लेता है। फिर यौवन मरता है और बुढ़ापा जन्म लेता है। और फिर बुढ़ापा मरता है और रूप विदा हो जाता है। प्रत्येक क्षण तुम मर रहे हो; प्रत्येक क्षण तुम जन्म रहे हो। तुम्हारे जनम का पहला दिन तुम्हारे जीवन का पहला दिन नहीं है। वह तो आने वाले अनेक-अनेक जन्मों में से एक है। वैसे ही तुम्हारे इस जीवन की मृत्यु पहली मृत्यु नहीं है। वह तो सिर्फ इस जीवन की मृत्यु है। वैसे ही तुम पहले भी मरते रहे हो। प्रतिक्षण कुछ मर रहा हे। और कुछ जन्म ले रहा है। तुम्हारा एक अंश मरता है, दूसरा अंश जन्मता है।
शरीर शास्त्री कहते है कि सात वर्षों में तुम्हारे शरीर का कुछ भी पुराना नहीं बचता है। एक-एक चीज, एक-एक कोष्ठ बदल जाता है। अगर तुम सत्तर वर्ष जीने वाले हो तो इस बीच तुम्हारा शरीर दस बार बदलेगा। पूरे का पूरा बदलेगा। हर सात वर्षों में तुम्हें नया शरीर मिलता है। लेकिन यह परिवर्तन अचानक नहीं होता। प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ बदल रहा होता है।
तुम एक लहर हो और वह भी बहुत ठोस नहीं। प्रत्येक क्षण बदल रही हो। और लहर थिर नहीं हो सकती। गतिहीन नहीं हो सकती। लहर को सतत बदलते रहना है, सतत गतिमान रहना है। थिर रहना है। थिर लहर जैसी कोई चीज नहीं होती। कैसे हो सकती है? थिर लहर का कोई अर्थ नहीं है। वह गति है, प्रक्रिया है। तुम गति हो, प्रक्रिया हो। अगर तुम इस गति से तादात्म्य कर बैठे हो और अपने को जन्म और मृत्यु के बीच सीमित मानने लगते हो। तुम पीड़ा में, दुःख में पड़ोगे। तब तुम आभास को सत्य मान रहे हो। इसको ही शंकर माया कहते थे।
सागर ब्रह्म है; सागर सत्य है। अपने को लहर मानो, या उठती गिरती लहरों का एक सातत्य मानो। और उसके साक्षी होओ। तुम कुछ कर नहीं सकते हो। ये लहरें विलीन होंगी। जो प्रकट हुआ है, वह विलीन होगा, उसके संबंध में कुछ नहीं किया जा सकता है। सब प्रयत्न बिलकुल व्यर्थ है। सिर्फ एक चीज की जा सकती है। वह है इस लहर रूप का साक्षी होना। और एक बार तुम साक्षी हो गए तो तुम्हें अचानक उसका बोध हो जाएगा जा लहर के पार है। जो लहर के पीछे है, जो लहर में भी है। और लहर के बहार भी है। जिससे लहर बनती है। और जो फिर भी लहर के पार है; जो सागर है।
‘’जैसे-जल से लहरें उठती है। अग्नि से लपटें, वैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।‘’
सर्वव्यापक हमसे लहराता है। तुम नहीं हो; सर्वव्यापक है। वह तुम्हारे द्वारा लहरा रहा है। इसे महसूस करो, इसका मनन करो, इस पर ध्यान करो। और बहुत-बहुत ढंगों से इसे अपने पर घटित होने दो।
मैंने तुम्हें श्वास के संबंध में कहा। तुममें कामवासना उठती हे। उसे महसूस करो, ऐसे नहीं जैसे वह तुम्हारी कामवासना है, बल्कि ऐसे कि सागर तुममें लहरा रहा है, जीवन तुममें धड़क रहा है। जीवन तुममें लहर ले रहा है। तुम संभोग में मिलते हो ; ऐसा मत सोचो कि दो लहरें मिल रही है। ऐसा मत सोचो कि दो व्यक्ति मिल रहे है। बल्कि ऐसा सोचो कि दो व्यक्ति एक दूसरे में विलीन हो रहे है। दो व्यक्ति अब नहीं बचे; लहरें विलीन हो गई है, केवल सागर बचा है। तब संभोग ध्यान बन जाता है।
जो भी तुम्हें घटित हो रहा है। ऐसा भाव करो कि वह ब्रह्मांड को घटित हो रहा है। कि मैं उसका अंश हूं, कि मैं सतह पर एक लहर मात्र हूं, सब कुछ अस्तित्व पर छोड़ दो।
झेन सदगुरू डोजेन कहा करता था—जब उसे भूख लगती है, तो वह कहता था—कि ऐसा लगता है कि अस्तित्व को मेरे द्वारा भूख लगी है। जब उसे प्यास लगती है तो वह कहता था कि मेरे भीतर अस्तित्व प्यासा है।
यह ध्यान तुम्हें उसी स्थिति में पहुंचा देगा। तब तुम्हारा अहंकार बिखर जाता है। मिट जाता है और सब कुछ ब्रह्मांड का हिस्सा हो जाता है। तब जो भी होता है। अस्तित्व को होता है। तुम अब यहां नहीं हो। और तब कोई पाप नहीं है; तब कोई जिम्मेदारी नहीं है।
अब तो केवल तुम हो; इसलिए किसके प्रति जिम्मेदार होगे?
अब अगर तुम किसी को मरते देखोगें तो तुम्हें लगेगा कि उसके साथ, उसके भीतर मैं ही मर रहा हूं। तब तुम्हें लगेगा कि पूरा जगत मर रहा है और मैं उस जगत का अंश हूं। और अगर किसी फूल को खिलते देखोगें तो तुम उसके साथ-साथ खोलोगे। अब सारा ब्रह्मांड तुममय है। और ऐसी घनिष्ठता में, ऐसा लयबद्धता में होना समाधि में होना है। ध्यान मार्ग है। और यह एकता का भाव, सब के साथ जुड़े होने का भाव मंजिल हे।
इसे प्रयोग करो। सागर को स्मरण रखो। और लहर को भूल जाओ। और ध्यान रहे, जब भी तुम लहर को स्मरण करोगे। और लहर की भांति व्यवहार करोगे। तो तुम भूल करोगे और उसके कारण दुःख में पड़ोगे। कहीं कोई ईश्वर नहीं है। जो तुम्हें दंड दे रहा है। जब भी तुम किसी भ्रांति के शिकार होते हो, तुम अपने को दंड देते हो। जगत में एक नियम है। धर्म है, ताओ है। अगर तुम इसके साथ लयबद्ध चलते हो तो तुम आनंद में हो। यदि तुम उसके विपरीत चलोगे, तुम अपने को दुःख में पाओगे। वहां आकाश में कोई नहीं बैठा है तुम्हें दंडित करने को। वहां तुम्हारे पापों को कोई बही-खाता नहीं है। न उसकी कोई जरूरत है।
यह ठीक गुरूत्वाकर्षण जैसा है। अगर तुम सही ढंग से चलते हो तो गुरूत्वाकर्षण सहयोगी होता है, गुरूत्वाकर्षण के बिना तुम चल नहीं सकते। लेकिन अगर तुम गलत ढंग से चलोगे तो गिरोगे; अपनी हड्डी भी तोड़ सकते हो। लेकिन कोई तुम्हें दंड नहीं दे रहा है। सिर्फ नियम है। गुरुत्वाकर्षण का। निरपेक्ष नियम है। अगर तुम गलत चलोगे और गिरोगे तो तुम्हारी हड्डी टूट जायेगी। और ठीक से चलोगे तो उसका मतलब है कि तुम गुरूत्वाकर्षण का सही उपयोग कर रहे हो। ऊर्जा का सही और गलत दोनों तरह से उपयोग हो सकता है।
जब तुम अपने को लहर मानते हो तो तुम जागतिक नियम के विरोध में हो, तुम सत्य के विरोध में हो। तब तुम अपने लिए दुःख निर्मित करोगे। कर्म के सिद्धांत का यही मतलब है। कोई कानून बनाने वाला नहीं है। परमात्मा कोई जज नहीं है। जज होना कुरूप बात है। और अगर ईश्वर कोई जज होता तो बिलकुल ऊब जाता। या पागल हो जाता। जगत में अपने नियम है। और बुनियादी नियम यह है कि सच्चा होना आनंद में होना है। और झूठा होना दुःख में होना है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन
प्रवचन-39