‘यह जगत परिवर्तन का है, परिवर्तन ही परिवर्तन का। परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।’
पहली बात तो यह समझने की है कि तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है, तुम्हारे अतिरिक्त जानने वाले के अतिरिक्त सब कुछ परिवर्तन है। क्या तुमने कोई ऐसी चीज देखी है। जो परिवर्तन न हो। जो परिवर्तन के अधीन न हो। यह सारा संसार परिवर्तन की घटना है।
हिमालय भी बदल रहा है। हिमालय का अध्यन करने वाले वैज्ञानिक कहते है कि हिमालय बढ़ रहा है। बड़ा हो रहा है। हिमालय संसार का सबसे कम उम्र का पर्वत है।
वह अभी बच्चा है और बढ़ रहा है। वह अभी प्रौढ़ नहीं हुआ है। वह अभी उस अवस्था को नहीं प्राप्त हुआ है। जहां पहूंच कर ह्रास या गिरावट शुरू होती है। हिमालय बच्चे जैसा है। विंध्याचल संसार के सबसे पुराने पर्वतों में हैं। कुछ तो उसे दुनियां का सबसे पुराना पर्वत मानते है। सदियों से वह अपने बुढ़ापे के कारण क्षीण हो रहा है। मर रहा है।
तो इतना स्थिर और अडिग और दृढ़ मालूम पड़ने वाला हिमालय भी बदल रहा है। वह बस पत्थरों कीं नदी जैसा नहीं है। पत्थर होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। पत्थर भी प्रवाहमान है, बह रहा है। तुलनात्मक दृष्टि से सब कुछ बदल रहा है। लेकिन ऐसा सापेक्षत: है।
कोई भी चीज, जिसे तुम जान सकते हो बदलाहट के बिना नहीं है। मेरी बात खयाल में रहे। जिसे तुम जानते हो वह वस्तु नित्य बदल रही है। जाननेवाले के अतिरिक्त कुछ भी नित्य नहीं है। शाश्वत नही है। लेकिन जानने वाला सदा पीछे है। वह सदा जानता है; वह कभी जाना नहीं जाता। वह कभी आब्जेक्ट्स नहीं बन सकता; वह सदा सब्जैक्ट ही रहता है। तुम जो कुछ भी करते हो या जानते हो, जाननेवाला सदा उससे पीछे है। तुम उसे नहीं जान सकते हो।
और जब मैं कहता हूं कि तुम जाननेवाले को नहीं जान सकते, तो इससे परेशान मत होओ। जब मैं कहता हूं कि तुम उसे नहीं जान सकते हो तो उसका मतलब है कि तुम उसे विषय की तरह नहीं जान सकते हो। मैं तुम्हें देखता हूं , लेकिन मैं उसी तरह अपने को कैसे देख सकता हूं। यह असंभव है। क्योंकि ज्ञान के लिए दो चीजें जरूरी है। ज्ञाता और ज्ञेय। तो जब मैं तुम्हें देखता हूं तो तुम ज्ञेय हो और मैं ज्ञाता हूं। और दोनों के बीच ज्ञान सेतु की तरह है। लेकिन ज्ञान का यह सेतु कहां बनेगा। जब मैं अपने को ही देखता हूं। जब मैं अपने को ही जानने की कोशिश करता हूं। वहां तो केवल मैं ही हूं, पूरी तरह अकेला मैं हूं। दूसरा किनारा बिलकुल अनुपस्थित है। फिर सेतु कहां निर्मित किया जाए? स्वयं को जाना कैसे जाएं?
तो आत्मज्ञान एक नेति-नेति प्रक्रिया है। तुम अपने को सीधे-सीधे नहीं जान सकते; तुम सिर्फ ज्ञान के विषयों को हटाते जा सकते हो। ज्ञान के विषयों को एक-एक करके छोड़ते चले जाओ। और जब ज्ञान का कोई विषय न रह जाए, जब जानने को कुछ भी न रह जाए। सिर्फ एक शून्य, एक खाली पन रह जाए—और यही ध्यान है। ज्ञान के विषयों को छोड़ते जाना—तब एक क्षण आता है जब चेतना तो है लेकिन जानने के लिए कुछ नहीं है। जानना तो है, लेकिन जानने को कुछ नहीं बचता है। तब जानने की सहज-शुद्ध ऊर्जा रहती है। लेकिन जानने को कुछ नहीं बचता है। कोई विषय नहीं रहता है। उस अवस्था में जब जानने को कुछ नहीं रहता, तुम एक अर्थों में स्वयं को जानते हो। अपने को जानते हो।
लेकिन यह ज्ञान अन्य सब ज्ञान से सर्वथा भिन्न है। दोनो के लिए एक ही शब्द का उपयोग करना भ्रामक है। इसीलिए अनेक रहस्यवादियों ने कहा है कि आत्मज्ञान शब्द विरोधाभासी है। ज्ञान सदा दूसरे को होता है। अंत: आत्म ज्ञान संभव नहीं है। जब दूसरा नहीं होता है तो कुछ होता है, तुम उसे आत्म ज्ञान कह सकते हो। लेकिन यह शब्द भ्रामक है।
तो तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है। ये जो दीवारें है, ये भी निरंतर बदल रही है। और भौतिक शास्त्र भी इसका समर्थन करता है। जो दीवार है, ये स्थाई मालूम पड़ती है। ठहरी हुई लगती है। वह भी प्रति पल बदल रही है। एक-एक परमाणु बह रहा है। प्रत्येक चीज बह रही है। लेकिन उसकी गति इतनी तीव्र है कि उसका पता नहीं चलता है। दोपहर भी वह ऐसे लगती थी श्याम भी ऐसे लगती है।
यह सूत्र कहता है कि सभी चीजें बदल रही है। ‘यह जगत परिवर्तन का है…..।’
इस सूत्र पर ही बुद्ध का समस्त दर्शन खड़ा है। बुद्ध कहते है कि प्रत्येक चीज बहाव है, बदल रही है। क्षणभंगुर है। और यह बात प्रत्येक व्यक्ति को जान लेना चाहिए। बुद्ध का सारा जोर इसी एक बात पर है; उनकी पूरी दृष्टि इसी बात पर आधारित है।
तुम्हें एक चेहरा दिखाई देता है, बहुत सुंदर है। और जब तुम सुंदर रूप को देखते हो तो भाव होता है कि यह रूप सदा ही ऐसा रहेगा। इस बात को ठीक से समझ लो ऐसी अपेक्षा कभी मत करो। और अगर तुम जानते हो कि यह रूप तेजी से बदल रहा है, कि यह इस क्षण सुंदर है और अगले क्षण कुरूप हो जायेगा। तो फिर आसक्ति कैसे पैदा होगी? असंभव है। एक शरीर को देखो,वह जीवित है; अगले क्षण वह मृत हो सकता है। अगर तुम परिवर्तन को समझो तो सब व्यर्थ है।
बुद्ध ने अपना महल छोड़ दिया, परिवार छोड़ दिया। सुंदर पत्नी छोड़ दी, प्यारा पुत्र छोड़ दिया। और जब किसी ने पूछा कि क्यों छोड़ रहे हो, तो उन्होंने कहां: ‘जहां कुछ भी स्थाई नहीं है,वहां रहने का क्या प्रयोजन? बच्चा एक न एक दिन मर जायेगा।’ और बच्चे का जन्म उसी रात हुआ था। उसके जन्म के कुछ घंटे बाद ही उन्होंने उसे अंतिम बार देखा। अपनी पत्नी के कमरे में गये। पत्नी की पीठ दरवाजे की और थी और वह बच्चे को अपनी बांहों में लिए सो रही थी। बुद्ध ने अलविदा कहना चाहा। लेकिन वे झिझके। उन्होंने कहा: ‘एक क्षण उनके मन में यह विचार कौंधा कि बच्चे के जन्म के कुछ घंटे ही हुए है। मैं उसे अंतिम बार देख हूं। तब उनके मन ने कहां, क्या प्रयोजन है, सब तो बदल रहा है। आज बच्चा पैदा हुआ है। कल मर जायेगा। एक दिन पहले यह नहीं था, अभी वह है। और एक दिन फिर नहीं रहेगा। तो क्या प्रयोजन है सब बदल रहा है।’ वे मुड़े और विदा हो गये।
जब किसी ने पूछा कि आपने क्यों सब कुछ छोड़ दिया? मैं अपनी खोज में हूं। जो कभी नहीं बदलता,जो शाश्वत है। यदि मैं परिवर्तनशील के साथ अटका रहूंगा। तो निराशा ही हाथ आयेगी। क्षण भंगुर से आसक्त होना मूढ़ता है। वह कभी ठहरने वाला नहीं है। मैं मूढ़ नहीं हूं। मैं तो उसकी खोज कर रहा हूं जो कभी नहीं बदलता, जो नित्य है। अगर कुछ शाश्वत है तो ही जीवन में अर्थ है, जीवन में मूल्य है। अन्यथा सब व्यर्थ है।
यह सूत्र सुंदर है। यह सूत्र कहता है। ‘परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।‘’
बुद्ध कभी दूसरा हिस्सा नहीं कहते। यह दूसरा हिस्सा बुनियादी रूप से तंत्र से आया है। बुद्ध इतना ही कहेंगे। कि सब कुछ परिवर्तनशील है। इसे अनुभव करो। और तुम्हें आसक्ति नहीं होगी। और जब आसक्ति नहीं होगी तो धीरे-धीरे अनित्य को छोड़ते-छोड़ते तुम अपने केंद्र पर पहुंच जाओगे। जो नित्य है। शाश्वत है। परिवर्तन को छोड़ते जाओ और तुम अपरिवर्तन पर केंद्र पर, चक्र के केंद्र पर पहुंच जाओगे।
इस लिए बुद्ध ने चक्र को अपने धर्म का प्रतीक बनाया है। क्योंकि चक्र चलता रहता है। लेकिन उसकी धुरी, जिसके सहारे चक्र चलता है, ठहरी रहती है। स्थाई है। तो संसार चक्र की भांति चलता रहता है। तुम्हारा व्यक्तित्व चक्र की भांति बदलता रहता है। धुरी अचल रहती है।
तंत्र कहता है कि जो परिवर्तनशील है उसे छोड़ो मत, उसमे उतरो, उसमें जाओ। उससे आसक्त मत होओ। लेकिन उसमें जीओं। उससे डरना क्या है? उसे घटित होने दो। और तुम उसमें गति कर जाओ। उसे उसके द्वारा ही विसर्जित करो। डरों मत; भागों मत। भागकर कहां जाओगे। इससे बचोगे कैसे? सब जगह तो परिवर्तन है। तंत्र कहता है,बदलाहट ही मिलेगी। सब भागना व्यर्थ है। भागने की कोशिश ही मत करो। तब करना क्या है?
आसक्ति मत निर्मित करो। तुम परिवर्तन हो जाओ। उसके साथ कोई संघर्ष मत खड़ा करो। उसके साथ बहो। नदी बह रही हे। उसके साथ बहो। तेरो भी मत। नदी को ही तुम्हें ले जाने दो। उसके साथ लड़ों मत; उससे लड़ने से तुम्हारी शक्ति बरबाद होगी। और जो होता है, उसे होने दो। नदी के साथ बहो।
इससे क्या होगा? अगर तुम नदी के साथ बिना संघर्ष किए बह सके; बिना किसी शर्त के बह सके, अगर नदी की दिशा ही तुम्हारी दिशा हो जाए, तो तुम्हें अचानक यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं, तुम्हें यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं, इसे अनुभव करो; किसी दिन नदी में उतर कर इसका प्रयोग करो। नदी में उतरो, विश्राम पूर्ण रहो और अपने को नदी के हाथों में छोड़ दो। उसे तुम्हें बहा ले जाने दो। लड़ों मत, नदी के साथ एक हो जाओ। तब अचानक तुम्हें अनुभव होगा कि चारों तरफ नदी है, लेकिन मै नदी नहीं हूं।
यदि नदी में लड़ोगे तो तुम यह बात भूल जा सकते हो। इसीलिए तंत्र कहता है: ‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’ लड़ो मत, लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि परिवर्तन तुममें नहीं प्रवेश कर सकता है। डरो नहीं; संसार में रहो। डरो मत;क्योंकि संसार तुममें प्रवेश नहीं कर सकता है। उसे जीओं। कोई चुनाव मत करो।
दो तरह के लोग है। एक वे जो परिवर्तन के जगत से चिपके रहते है। और एक वे है जो उससे भाग जाते है। लेकिन तंत्र कहता है कि जगत परिवर्तन है, इसलिए उससे चिपकना नहीं है। दोनों व्यर्थ है। इससे भागने को। वह बदल ही रहा है। तुम नहीं थे तब यह बदल रहा था। तुम नहीं रहोगे तब भी यह बदलता रहेगा। फिर इसके लिए इतना शोर गूल क्यो?
‘परिवर्तन को परिवर्तन से विसर्जित करो।’
यह एक बहुत गहन संदेश है। क्रोध को क्रोध से विसर्जित करो; काम को काम से विसर्जित करो; लोभ को लोभ से विसर्जित करो, संसार को संसार से विसर्जित करो। उससे संघर्ष मत करो, विश्रामपूर्ण रहो। क्योंकि संघर्ष से तनाव पैदा होता है; तनाव से चिंता और संताप पैदा होता है। विश्रामपूर्ण रहो। तुम नाहक उपद्रव में पड़ोगे। संसार जैसा है उसे वैसा ही रहने दो।
दो तरह के लोग है जो संसार को वैसा ही नहीं रहने देना चाहते जैसा वह है। वे क्रांतिकारी कहलाते है। वे उसे बदलेंगे ही; वे उसे बदलने के लिए जद्दोजहद करेंगे। वे उसे बदलने में अपना सारा जीवन लगा देंगे। और यह जगत अपने आप बदल रहा है। उनकी कोई जरूरत नहीं है। वे अपने को नष्ट करेंगे। दुनिया को बदलने में वे खुद खत्म होंगे। और संसार बदल ही रहा है; इसके लिए किसी क्रांति की जरूरत नहीं है। संसार स्वयं एक क्रांति है; वह बदल ही रहा है।
तुम्हें आश्चर्य होगा। की भारत में महान क्रांतिकारी क्यों नहीं पैदा हुए। यह इसी अंतदृष्टि का परिणाम है कि सब अपने आप ही बदल रहा है। उसके लिए क्रांति की कोई जरूरत नहीं है। तुम उसे बदलने के लिए क्यों परेशान होते हो। तुम न उसे बदल सकते हो और न बदलाहट को रोक सकते हो।
एक तरह का व्यक्तित्व सदा संसार को बदलने की चेष्टा करता है। धर्म की दृष्टि में वह मानसिक तल पर रूग्ण है। सच तो यह है अपने साथ रहने में उसे भय लगता है। इसलिए वह भागता फिरता है। और संसार में उलझा रहता है। राज्य को बदलना है, सरकार को बदलना है; समाज , व्यवस्था, अर्थनीति, सब कुछ को बदलना है। और इसी सब में वि मर जाएगा। और उसे आनंद का, उस समाधि का एक कण भी नहीं उपलब्ध होगा। जिसमें वह जान सकता था कि मैं कौन हूं। और संसार चलता रहेगा। संसार चक्र घूमता रहेगा। संसार चक्र ने अनेक क्रांतिकारी देखे है। और वह घूमता ही जाता है। तुम न तो इसे रोक सकते हो, और न तुम उसकी बदलाहट को तेज ही कर सकते हो।
रहस्यवादियों की, बुद्धों की यह दृष्टि है। वे कहते है कि संसार को बदलने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बुद्धों की भी दो कोटियां है। कोई कह सता है कि संसार को बदलने की जरूरत नहीं है, लेकिन अपने को बदलने की जरूरत तो है। वह भी परिवर्तन में विश्वास करता है। वह जगत को बदलने में नहीं, लेकिन अपने में बदलने में विश्वास करता है।
लेकिन तंत्र कहता है। कि किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है—न संसार को और न अपने को। रहस्य का, अध्यात्म का यह गहनत्म तल है। यह उसका अंतरतम केंद्र है। तुम्हें किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है—न संसार को और न अपने को। तुम्हें इतना ही जानना है कि सब कुछ बदल रहा है, और तुम्हें उस बदलाहट के साथ बहाना है, उसे स्वीकार करना है।
और जब बदलने को कोई परिवर्तन नहीं है, तो तुम समग्ररतः: विश्रामपूर्ण हो सकते हो। जब तक प्रयत्न है। तुम विश्रामपूर्ण नहीं हो सकते। तब तक तनाव बना रहेगा। क्योंकि तुम्हें अपेक्षा है कि भविष्य में कुछ होने वाला है, जगत बदलने वाला है। संसार में साम्यवाद आने वाला है। या पृथ्वी पर स्वर्ग उतरने वाला है। या भविष्य में कोई ऊटोपिया आने वाला है। या तुम प्रभु के राज्य में प्रवेश करने वाले हो। स्वर्ग में देवदूत तुम्हारा स्वागत करने के लिए तैयार खड़े है—जो भी हो; तुम भविष्य में कही अटके हो। इस अपेक्षा के साथ तुम तनावपूर्ण रहोगे।
तंत्र कहता है, इन बातों को भूल जाओ। संसार बदल ही रहा है। और तुम भी निरंतर बदल रहे हो। बदलाहट ही अस्तित्व है। इसलिए बदलाहट की चिंता मत करो। तुम्हारे बिना ही बदलाहट हो रही है। तुम्हारी जरूरत नहीं है। तुम भविष्य की कोई चिंता किए बिना उसमे बहो; और तब अचानक तुम्हें अपने भीतर के उस केंद्र का बोध हो गा जो कभी नहीं बदलता है, जो सदा वही का वही रहता है।
ऐसा क्यों होता है? क्योंकि जब तुम विश्रामपूर्ण होते हो तो बदलाहट की पृष्ठभूमि में विपरीत दिखाई पड़ता है। परिवर्तन की पृष्ठभूमि में तुम्हें सनातन का, शाश्वत का बोध होता है। अगर तुम संसार को या अपने को बदलने का प्रयत्न में लगे हो तो तुम अपने भीतर छोटे से अकंप, स्थिर ठहरे हुए केंद्र को नहीं देख पाओगे। तुम बदलाहट में इतने घिरे हो कि तुम उसे नहीं देख पाते हो जो है।
सब तरफ परिवर्तन है। यह परिवर्तन पृष्ठभूमि बन जाता है। कंट्रास्ट बन जाता है। और तुम शिथिल होते हो। विश्राम में होते हो, इसलिए तुम्हारे मन में भविष्य नहीं होता। भविष्य के विचार नहीं होते। तुम यहां और अभी होते हो। यह क्षण ही सब कुछ होता है। सब कुछ बदल रहा है—और अचानक तुम्हें अपने भीतर उस बिंदू का बोध है जो कभी नहीं बदला है।
‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’
इसका अर्थ यही है। लड़ो मत। मृत्यु के द्वारा अमृत को जान लो; मृत्यु के द्वारा मृत्यु को मर जाने दो। उससे लड़ाई मत करो।
तंत्र की दृष्टि को समझना कठिन है। कारण है कि हमारा मन कुछ करना चाहता है। और तंत्र है कुछ न करना। तंत्र कर्म नहीं, पूर्ण विश्राम है। लेकिन यह एक सर्वाधिक गुह्म रहस्य है। और अगर तुम इसे समझ सको। अगर तुम्हें अगर तुम्हें इसकी प्रतीति हो जाए,तो तुम्हें किसी अन्य चीज की चिंता लेने की जरूरत नहीं है। ये अकेली विधि तुम्हें सब कुछ दे सकती है।
तब तुम्हें कुछ करने की जरूरत नही है। क्योंकि तुमने इस रहस्य को जान लिया है जो परिवर्तन से परिवर्तन का अतिक्रमण कर रहा हे। मृत्यु से मृत्यु का अतिक्रमण हो सकता है। काम से काम का अतिक्रमण हो सकता है। क्रोध से क्रोध का अतिक्रमण हो सकता है। अब तुम्हें यह कुंजी मिल गई है कि जहर से जहर का अतिक्रमण हो सकता है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन
प्रवचन-43