‘प्रत्येक वस्तु ज्ञान के द्वारा ही देखी जाती है।
ज्ञान के द्वारा ही आत्मा क्षेत्र में प्रकाशित होती है।
उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो।’
जब भी तुम कुछ जानते हो, तुम उसे ज्ञान के द्वारा, जानने के द्वारा जानते हो। ज्ञान की क्षमता के द्वारा ही कोई विषय तुम्हारे मन में पहुंचता है। तुम एक फूल को देखते हो; तुम जानते हो कि यह गुलाब का फूल है। गुलाब का फूल बाहर है और तुम भीतर हो। तुमसे कोई चीज गुलाब तक पहुँचती है। तुमसे कोई चीज फूल तक आती है। तुम्हारे भीतर से कोई उर्जा गति करती है। गुलाब तक आती है, उसका रूप रंग और गंध ग्रहण करती है और लौट कर तुम्हें खबर देती है कि यह गुलाब का फूल है। सब ज्ञान, तुम जो भी जानते हो, जानने की क्षमता के द्वारा तुम पर प्रकट होता है। जानना तुम्हारी क्षमता है; सारा ज्ञान इसी क्षमता के द्वारा अर्जित किया जाता है।
लेकिन यह जानना दो चीजों को प्रकट करता है—ज्ञात को और ज्ञाता को। जब भी तुम गुलाब के फूल को जानते हो, तब अगर तुम ज्ञाता को, जो जानता है उसको भूल जाते हो। तो तुम्हारा ज्ञान आधा ही है। तो गुलाब को जानने में तीन चीजें घटित हुई: ज्ञेय यानी गुलाब, ज्ञाता यानी तुम और दोनों के बीच का संबंध यानी ज्ञान।
तो जानने की घटना को तीन बिंदुओं में बांटा जा सकता है। ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान। ज्ञान दो बिंदुओं के बीच, ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सेतु की भांति है। सामान्यत: तुम्हारा ज्ञान सिर्फ ज्ञेय को, विषय को प्रकट करता है। और ज्ञाता जानने वाला अप्रकट रह जाता है। सामान्यत: तुम्हारे ज्ञान में एक ही तीर होता है। वह तीर गुलाब की तरफ तो जाता है। लेकिन वह कभी तुम्हारी तरफ नहीं जाता। और जब तक वह तीर तुम्हारी तरफ भी न जाने लगे तब तक ज्ञान तुम्हें संसार के संबंध में तो जानने देगा। लेकिन वह तुम्हें स्वयं को नहीं जानने देगा।
ध्यान की सभी विधियां जानने वाले को प्रकट करने की विधियां है। जार्ज गुरजिएफ इसी तरह की एक विधि का प्रयोग करता था। वह इसे आत्म-स्मरण करता था। उसने कहा है कि जब तुम किसी चीज को जान रहे हो तो सदा जानने वाले को भी जानो। उसे विषय में मत भुला दो; जानने वाले को भी स्मरण रखो।
अभी तुम मुझे सुन रहे हो। जब तुम मुझे सुन रहे हो तो तुम दो ढंगों से सुन सकते हो। एक कि तुम्हारा मन सिर्फ मुझ पर केंद्रित हो। तब तुम सुनने वाले को भूल जाते हो। तब बोलने वाला तो जाना जाता है, लेकिन सुनने वाला भुला दिया जाता है। गुरजिएफ कहता था कि सुनते हुए बोलने वाले के साथ-साथ सुनने वाले को भी जानों।
तुम्हारे ज्ञान को द्विमुखी होना चाहिए। वह एक साथ दो बिंदुओं की ओर, ज्ञाता और ज्ञेय दोनों की और प्रवाहित हो। उसे एक ही दिशा में सिर्फ विषय की दिशा में नहीं बहना चाहिए। उसे एक साथ दो दिशाओं में, ज्ञेय और ज्ञाता की तरफ प्रवाहित होना चाहिए। इसे ही आत्मा–स्मरण कहते है। फूल को देखते हुए उसे भी स्मरण रखो जो देख रहा है।
यह कठिन है। क्योंकि अगर तुम प्रयोग करोगे, अगर देखने वाले को स्मरण रखने की चेष्टा करोगे तो तुम गुलाब को भूल जाओगे। तुम एक ही दिशा में देखने के ऐसे आदी हो गए हो कि साथ-साथ दूसरी दिशा को भी देखने में थोड़ा समय लगाता है। अगर तुम ज्ञाता के प्रति सजग होते हो तो ज्ञेय विस्मृत हो जाएगा। और अगर तुम ज्ञेय के प्रति सजग होते हो तो ज्ञाता विस्मृत हो जाएगा। लेकिन थोड़े प्रयेत्न से तुम धीरे-धीरे दोनों के प्रति सजग होने में समर्थ हो जाओगे।
इसे ही गुरजिएफ आत्म-स्मरण कहता है। यह एक बहुत प्राचीन विधि है। बुद्ध ने इसका खूब उपयोग किया था। फिर गुरजिएफ इस विधि को पश्चिमी जगत में लाया। बुद्ध इसे सम्यक स्मृति कहते थे। बुद्ध ने कहा कि तुम्हारा मन सम्यक रूपेण स्मृतिवान नहीं है। अगर वह एक ही बिंदु को जानता है। उसे दोनों बिंदुओं को जानना चाहिए।
और तब एक चमत्कार घटित होता है। अगर तुम ज्ञेय और ज्ञाता दोनों के प्रति बोधपूर्ण हो तो अचानक तुम तीसरे हो जाते हो। तुम दोनों से अलग तीसरे हो जाते हो। ज्ञेय और ज्ञाता दोनों को जानने के प्रयत्न में तुम तीसरे हो जाते हो। साक्षी हो जाते हो। तत्क्षण एक तीसरी संभावना प्रकट होती है—साक्षी आत्मा का जन्म होता है। क्योंकि तुम साक्षी हुए बिना दोनों को कैसे जान सकते हो? अगर तुम ज्ञाता हो तो तुम एक बिंदु पर स्थिर हो जाते हो। उससे बंध जाते हो। आत्मा-स्मरण में तुम ज्ञाता के स्थिर बिंदु से अलग हो जाते हो। उससे बंध जाते हो। आत्म-स्मरण में तुम ज्ञाता के एक अलग हो जाते हो। तब ज्ञाता तुम्हारा मन है और ज्ञेय संसार है और तुम तीसरा बिंदू हो जाते हो—चैतन्य, साक्षी, आत्मा।
इस तीसरे बिंदु का अतिक्रमण नहीं हो सकता। और जिसका अतिक्रमण नहीं हो सकता,जिसके पार नहीं जाया जा सकता, वह परम है। जिसका अतिक्रमण हो सकता है वह महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। तुम उसका अतिक्रमण कर सकते हो।
मैं इस एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करूंगा। रात में तुम सोते हो और सपना देखते हो; सुबह तुम जानते हो और सपना खो जाता है। जब तुम जागे हुए हो, जब तुम सपना नहीं देख रहे हो, तब एक भिन्न ही जगत तुम्हारे सामने होता है। तुम रास्तों पर चलते हो; तुम किसी कारखाने या कार्यालय में काम करते हो। फिर तुम अपने घर लौट आते हो। और रात में सो जाते हो। और वह संसार जिसे तुमने जागते हुए जाना था, विदा हो जाता है। तब तुम्हें स्मरण नहीं रहता कि मैं कौन हूं। तब तुम नहीं जानते हो कि मैं काला हूं या गोरा हूं। गरीब हूं या अमीर हूं, बुद्धिमान हूं या बेवकूफ, तुम कुछ भी नहीं जानते हो। कि मैं जवान हूं या बूढ़ा। तुम नहीं जानते हो कि मैं स्त्री हूं या पुरूष हूं। जाग्रत चेतना से जो कुछ संबंधित था वह सब विलीन हो जाता है। और तुम फिर स्वप्न के संसार में प्रवेश कर जाते हो। तुम उस जगत को भूल जाते हो जो तुमने जागते में जाना था; वह बिलकुल खो जाता है। और सुबह फिर सपने का संसार विदा हो जाता है। तुम यथार्थ की दुनियां में लौट आते हो।
इनमें से कौन सच हो? क्योंकि जब तुम सपना देख रहे हो तब वह यथार्थ संसार, जिसे तुम जागते हुए जानते हो, खोजता है। तुम तुलना भी नहीं कर सकते; क्योंकि जब तुम जागे हुए हो तो सपने का संसार नहीं रहता है। इसलिए तुलना असंभव है। कौन सच है? तुम स्वप्न जगत को झूठा कैसे कहते हो? कसौटी क्यों है?
अगर तुम यह कहते हो कि क्योंकि जब मैं जागता हूं तो स्वप्न जगत विलीन हो जाता है। तो यह दलील कसौटी नहीं बन सकती, क्योंकि जब तुम सपना देखते हो तो तुम्हारा जाग्रत जगत वैसे ही विलीन हो जाता है। और सच तो यह है कि अगर तुम इसी को कसौटी मानो तो स्वप्न जगत ज्यादा सच मालूम पड़ता है। क्योंकि जागने पर तुम स्वप्न को याद कर सकते हो, लेकिन जब तुम स्वप्न देख रहे हो जब जाग्रत चेतना को और उसके चारों ओर के जगत को बिलकुल पोंछ देता है। जिसे तुम असली संसार कहते हो। और तुम्हारा असली संसार स्वप्न के संसार को पूरी तरह से नहीं पोंछ पाता है। तब कसौटी क्या है? कैसे तय किया जाए? कैसे तुलना की जाए?
तंत्र कहता है कि दोनों झूठ है। तब सत्य क्या है? तंत्र कहता है कि सत्य वह है जो स्वप्न जगत को जानता है और जो जाग्रत जगत को भी जानता है। वही सत्य है; क्योंकि उसका कभी अतिक्रमण नहीं हो सकता। वह कभी हटाया नहीं जा सकता है। चाहे तुम सपना देख रहे हो या जागे हुए हो, वह है, वह अमिट है। तंत्र कहता है कि वह जो स्वप्न को जानता है कि अब जाग्रत जगत खो गया है। वह सत्य है—क्योंकि ऐसा कोई बिंदु नहीं है जहां वह नहीं है; वह सदा है। जिसे किसी भी अनुभव से अलग नहीं किया जा सकता, वह सत्य है।
वह जिसका अतिक्रमण नहीं हो सकता, जिसके पार तुम नहीं जा सकते हो, वह तुम हो, वह तुम्हारी आत्मा है। और अगर तुम उसके पार जा सकते हो तो वह तुम्हारी आत्मा नहीं है।
गुरजिएफ की यह विधि जिसे वह आत्म-स्मरण कहता है, यह बुद्ध की यह विधि जिसे वह सम्यक स्मृति कहते है, या तंत्र की यह विधि तुम्हें एक ही जगह पहुंचा देती है। वह तुम्हें भीतर उस बिंदु पर पहुंचा देती है जो न ज्ञेय है और न ज्ञाता है। बल्कि जो साक्षी आत्मा है, जो ज्ञेय और ज्ञाता दोनों को जानती है। यह साक्षी परम है; तुम उसके पार नहीं जा सकते हो। क्योंकि अब तुम जो भी करोगे वह साक्षी-भाव ही होगा। तुम साक्षी भाव के आगे नहीं जा सकते। तो साक्षी-भाव चैतन्य का परम आधार है, आत्यंतिक तत्व है।
यह सूत्र तुम पर साक्षी को प्रकट कर देगा।
‘प्रत्येक वस्तु ज्ञान के द्वारा ही देखी जाती है। ज्ञान के द्वारा ही आत्मा क्षेत्र में प्रकाशित होती है। उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो।’
यदि तुम अपने भीतर उस बिंदु को देख सके तो ज्ञाता और ज्ञेय दोनों है। तो तुम आब्जेक्ट्स और सब्जैक्ट दोनों के पार हो गए। तब तुम उस पदार्थ और मन दोनों का अतिक्रमण कर गए; तब तुम बाह्म और आंतरिक दोनों के पार हो गए। तब तुम उस बिंदु पर आ गए जहां ज्ञाता और ज्ञेय एक है। उनमें कोई विभाजन नहीं है। मन के साथ विभाजन है; साक्षी के साथ विभाजन समाप्त हो जाता है। साक्षी के साथ तुम यह नहीं कह सकते कि कौन ज्ञेय है और कौन ज्ञाता है; वह दोनों है।
लेकिन इस साक्षी का अनुभव होना चाहिए; अन्यथा वह दार्शनिक ऊहा पोह बन कर रह जाता है। इसलिए इसे प्रयोग करो। तुम गुलाब के फूल के पास बैठे हो; उसे देखो। पहला काम ध्यान को एक जगह केंद्रित करना है। गुलाब के प्रति पूरे ध्यान को लगा देना है—जैसे कि सारी दुनिया विलीन हो गई है। और सिर्फ गुलाब ही रह गया है। तुम्हारी चेतना गुलाब के अस्तित्व के प्रति पूरी तरह उन्मुख हो।
और अगर ध्यान समग्र हो तो संसार विलीन हो जाता है। क्योंकि ध्यान जितना ही एकाग्र होगा,उतना ही गुलाब के बाहर की दुनिया खो जाएगी। सारा संसार विलीन हो जाता है। केवल गुलाब रहता है। गुलाब ही सारा संसार हो जाता है।
यह पहला कदम है। गुलाब पर एकाग्र होना पहला कदम है। अगर तुम गुलाब पर एकाग्र नहीं हो सकते तो तुम ज्ञाता की तरफ गति नहीं कर सकते; क्योंकि तब तुम्हारा मन सदा भटक-भटक जाता है। इसलिए ध्यान की तरफ जाने के लिए एकाग्रता पहला कदम है। तब सिर्फ गुलाब बचता है और सारा संसार विलीन हो जाता है। अब तुम भीतर की तरफ गति कर सकते हो; अब गुलाब वह बिंदु है जहां से तुम गति कर सकते हो। अब गुलाब को देखो और साथ ही स्वयं के प्रति, ज्ञाता के प्रति जागरूक होओ।
आरंभ में तुम चूक-चूक जाओगे। अगर तुम ज्ञाता की और गति करोगे तो गुलाब तुम्हारी चेतना से ओझल हो जाएगा। तब गुलाब धुंधला जाएगा, खो जाएगा। जब तुम फिर गुलाब पर आओगे तो स्वयं को भूल जाओगे। यह लुकाछिपी का खेल कुछ समय तक चलता रहेगा। लेकिन अगर तुम प्रयत्न करते ही रहे, करते ही रहे तो देर-अबेर एक क्षण आएगा जब तुम अपने को दोनों के बीच में पाओगे। ज्ञाता होगा,मन होगा। गुलाब होगा। और तुम ठीक माध्य में होगे,दोनों को देख रहे होगे। वह मध्य बिंदु, वह संतुलन का बिंदु ही साक्षी है।
और एक बार तुम यह जान गए तो तुम दोनों हो जाओगे। तब गुलाब और मन, ज्ञेय और ज्ञाता,तुम्हारे पंख हो जाएंगे। तब आब्जेक्ट्स और सब्जैक्ट दो पंख है और तुम दोनों के केंद्र हो। तब वे तुम्हारे ही विस्तार है। तब संसार और भगवता दोनों तुम्हारे ही विस्तार है। तुम अपने अस्तित्व के केंद्र पर पहुंच गए। और यह केंद्र साक्षी मात्र है।
‘उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो।’
किसी चीज पर एकाग्रता शुरू करो। और जब एकाग्रता समग्र हो तो भीतर की और मुड़ो, स्वयं के प्रति जागरूक होओ। और तब संतुलन की चेष्टा करो। इसमें समय लगेगा। महीनों लग सकते है। वर्षों भी लग सकते है। यह इस पर निर्भर है कि तुम्हारा प्रयत्न कितना तीव्र है। क्योंकि यह बहुत सूक्ष्म संतुलन है। लेकिन यह संतुलन आता है। और जब यह आता है तो तुम अस्तित्व के केंद्र पर पहुंच गए। उस केंद्र पर तुम आत्मस्थ हो। अचल हो, शांत हो, आनंदित हो, समाधिस्थ हो। वहां द्वैत नहीं रह जाता है। इसे ही हिंदुओं ने समाधि कहा है। इसे ही जीसस ने प्रभु का राज्य कहा है।
इसे सिर्फ शाब्दिक रूप से, सिर्फ शब्दों के तल पर समझना बहुत काम का नहीं है। लेकिन अगर तुम प्रयोग करते हो तो तुम्हें आरंभ से ही अनुभव होने लगेगा कि कुछ घटित हो रहा है। जब तुम गुलाब पर एकाग्रता करोगे तो सारा संसार विलीन हो जाएगा। यह चमत्कार है कि सारा संसार विलीन हो जाता है। तब तुम्हें बोध होता है कि बुनियादी चीज मेरा ध्यान है। तुम जहां भी अपनी दृष्टि को ले जाते हो वहीं एक संसार निर्मित हो जाता है। और जहां से तुम अपनी दृष्टि हटा लेते हो वह संसार खो जाता है। तो तुम अपनी दृष्टि से, अपने ध्यान से संसार की रचना कर सकते हो।
इसे इस भांति देखो। तुम यहां बैठे हो। अगर तुम किसी व्यक्ति के प्रेम में हो तो अचानक इस हॉल में एक ही व्यक्ति रह जाता है। शेष सब कुछ खो जाता है। मानो यहां और कुछ नहीं है। क्या हो जाता है। क्यों तुम्हारे प्रेम में होने पर एक ही व्यक्ति रह जाता है। सारा संसार बिलकुल खो जाता है। जैसे कि धूप छाया का खेल हो। सिर्फ एक व्यक्ति यथार्थ है, सच है। क्योंकि तुम्हारा मन एक व्यक्ति पर केंद्रित है, एकाग्र है; तुम्हारा मन एक व्यक्ति पर पूरी तरह तल्लीन है। शेष सब कुछ छाया वत हो जाता है। धूप छाया का खेल हो जाता है। तुम्हारे लिए यह यर्थाथ न रहा।
जब भी तुम एकाग्र होते हो, यह एकाग्रता तुम्हारे अस्तित्व के पूरे ढंग ढांचे को बदल देती है। तुम्हारे चित की सारी रूपरेखा बदल देती है। इसका प्रयोग करो—किसी भी चीज पर प्रयोग करो। बुद्ध की किसी प्रतिमा के साथ प्रयोग करो। या किसी फूल या वृक्ष या किसी भी चीज के साथ प्रयोग करो। या अपनी प्रेमिका या अपने मित्र के चेहरे पर प्रयोग करो—चेहरे को सिर्फ देखो।
यह सरल होगा, क्योंकि अगर तुम किसी चेहरे को प्रेम करते हो तो उस पर एकाग्र होना सरल होगा। और सच बात तो यह है जिन लोगों ने बुद्ध या जीसस या कृष्ण पर एकाग्र होने की कोशिश की, वे प्रेमी थे; बुद्ध को प्रेम करते थे। सारिपुत्र या मौद्गल्यायन या अनय शिष्यों के लिए बुद्ध के चेहरे पर ध्यान करना सरल था। जैसे ही वे बुद्ध के चेहरे को देखते थे, वे सरलता से उसकी तरफ प्रवाहित होने लगते थे। उन्हें उनसे प्रेम था; वे उनसे मोहित थे।
तो कोई चेहरा खोज लो—और जिस चेहरे से भी तुम्हें प्रेम हो वह काम देगा—बस आंखों में झांको चेहरे पर एकाग्र होओ। और अचानक तुम पाओगे कि सारा संसार विलीन हो गया है। और एक नया ही आयाम खुल गया है। तब तुम्हारा चित किसी एक चीज पर एकाग्र होता है तब वह व्यक्ति या वह चीज तुम्हारे लिए सारा संसार बन जाती है।
मेरे कहने का मतलब यह है कि जब तुम्हारा ध्यान किसी चीज पर समग्र होता है, तब वह चीज ही सारा संसार हो जाती है। तुम अपने ध्यान के द्वारा अपना संसार निर्मित करते हो। तुम अपना संसार अपने ध्यान से बनाते हो। और जब तुम पूरी तरह तल्लीन हो, तुम्हारी चेतना जैसे नदी की धार की तरह विषय की तरफ बह रही है। तो अचानक तुम उस मूल स्त्रोत के प्रति बोधपूर्ण हो जाओ जहां से ध्यान प्रवाहित हो रहा है। नदी बह रही है। तुम उसके उद्गम के प्रति मूल स्त्रोत के प्रति होश पूर्ण हो जाओ।
आरंभ में तुम बार-बार होश खो दोगे; तुम यहां से वहां डोलते रहोगे। अगर तुम उद्गम की तरफ ध्यान दोगे तो तुम नदी को भूल जाओगे। और उस विषय को, सागर को भूल जाओगे। जिसकी और नदी प्रवाहित हो रही है। यह फिर बदलेगा—यदि तुम लक्ष्य पर ध्यान दोगे तो मूल स्त्रोत भूल जाएगा। यह स्वभाविक है; क्योंकि मन का बंधा-बंधाया ढंग है—यह ऑब्जेक्ट को देखता है या सब्जैक्ट को।
यही कारण है कि बहुत से लोग एकांत में चले जाते है। ये संसार को छोड़ ही देते है। संसार को छोड़ने का बुनियादी कारण है कि वे विषय को छोड़ रहे है। ताकि वे अपने आप पर एकाग्र हो सके। यह सरल है। अगर तुम संसार छोड़ दो और आँख बंद कर लो, इंद्रियों को बंद कर लो, तो तुम आसानी से स्वयं के प्रति बोधपूर्ण हो सकते हो।
लेकिन यह बोध भी झूठा है। क्योंकि तुमने द्वैत का एक बिंदू ही चुना है। यह उसी रोग की दूसरी अति है। पहले तुम विषय के प्रति सजग थे, ज्ञेय के प्रति सजग थे और तुम स्वयं का, ज्ञाता का बोध नहीं था। और अब तुम ज्ञाता से बंधे हो और ज्ञेय को भूल गए हो। लेकिन तुम द्वैत में ही हो। और फिर यह पुराना ही मन है जा नए रूप में प्रकट हो रहा है। कुछ भी नहीं बदला है।
यही करण है कि मैं इस बात पर जोर देता हूं कि आब्जेक्ट्स के संसार को नहीं छोड़ना है। आब्जेक्ट्स के जगत से मत भागों; बल्कि ऑब्जेक्ट और सब्जैक्ट दोनों के प्रति साथ-साथ बोधपूर्ण होने की कोशिश करो, बाह्म और आंतरिक दोनों के प्रति साथ-साथ सजग बनो। अगर दोनों मौजूद है तो ही तुम दोनों के बीच संतुलित हो सकते हो। अगर एक ही है तो तुम उससे ग्रस्त हो जाओगे।
जो लोग हिमालय चले जाते है और अपने को बंद कर लेते है, वे तुम्हारे ही जैसे लोग है सिर्फ शीर्षासन में खड़े है। तुम आब्जेक्ट्स से बंधे हो; वे सब्जैक्ट से बंध गए है। तुम बाहर अटके हो; वे भीतर अटक गए है। ने तुम मुक्त हो, न वे मुक्त है। क्योंकि एक के साथ तुम मुक्त नहीं हो सकते; एक के साथ तुम तादात्म्य कर लेते हो।
मुक्त तो तुम तभी हो सकते हो जब तुम दोनों के प्रति सजग होते हो, दोनों को जानते हो। तब तुम तीसरे हो जाते हो। और यह तीसरा ही मुक्ति का बिंदू है। एक के साथ तुम तादात्म्य कर लेते हो। दो के साथ गति संभव है, बदलाहट संभव है, संतुलन संभव है—और तुम मध्य बिंदु पर ठीक मध्य बिंदु पर पहुंच सकते हो।
बुद्ध कहते थे कि मेरा मार्ग मज्झम निकाय है। मध्य मार्ग है। यह बात ठीक से नहीं समझी गई कि क्यों वे इसे मध्यमार्ग कहने पर इतना जोर देते थे। कारण यह है; उनकी पूरी प्रक्रिया सजगता की है। सम्यक स्मृति की है—यह मध्य मार्ग है। बुद्ध कहते है: इस संसार को मत छोड़ो और परलोक से मत बंधो; मध्य में रहो। एक अति को छोड़कर दूसरी अति पर मत सरक जाओ। ठीक मध्य में रहो। क्योंकि मध्य में लोक और परलोक दोनों नहीं है। ठीक मध्य में तुम मुक्त हो। ठीक मध्य में द्वैत नही है। तुम अद्वैत को उपलब्ध हो गए और द्वैत तुम्हारा विस्तार भर है—जैसे दो पंख हो।
बुद्ध का मज्झम निकाय इसी विधि पर आधारित है। यह बहुत सुंदर विधि है। अनेक कारणों से यह सुंदर है। एक कि यह बहुत वैज्ञानिक है; क्योंकि तुम केवल दो के बीच संतुलन को उपलब्ध हो सकते हो। अगर एक ही बिंदु हो तो असंतुलन अनिवार्यतः: अनिवार्यतः: रहेगा। इसलिए बुद्ध कहते है। कि जो संसारी है तो असंतुलित और जो त्यागी है वे भी दूसरी अति पर असंतुलित है। संतुलित आदमी वह है जो न इस अति पर है और न उस अति पर; जो ठीक मध्य में है। तुम उसे संसारी नहीं कह सकते; तुम उसे गैर संसारी भी नहीं कह सकते। वह गति करने के लिए स्वतंत्र है; वह किसी से भी आसक्त नहीं है, बंधा नहीं है। वह मध्य बिंदू पर स्वर्णिम मध्य पर पहुंच गया है।
दूसरी बात: दूसरी अति पर चला जाना बहुत आसान है—बहुत ही आसान। अगर तुम बहुत भोजन लेते हो तो तुम उपवास आसानी से कर सकते हो; लेकिन सम्यक भोजन लेना कठिन है। अगर तुम बहुत बातचीत करते हो तो तुम मौन में आसानी से उतर सकत हो। लेकिन तुम मितभाषी नहीं हो सकते। अगर तुम बहुत खाते हो तो बिलकुल न खाना बहुत आसान है—यह दूसरी अति है। लेकिन सम्यक भोजन लेना, मध्य बिंदु पर रूक जाना बहुत मुश्किल है। किसी को प्रेम करना सरल है, किसी को धृणा करना भी सरल है; लेकिन उदासीन रहना बहुत मुश्किल है। तुम एक अति से दूसरी अति पर जा सकत हो। लेकिन मध्य में ठहरना बहुत कठिन है। क्यों?
क्योंकि मध्य में तुम्हें अपना मन गंवाना पड़ेगा। तुम्हारा मन अतियों में जीता है। मन का मतलब अति है। मन सदा अतियों में डोलता रहता है। तुम या तो किसी के पक्ष में होते हो यह विपक्ष में; तुम तटस्थ नहीं हो सकते। मन तटस्थता में नहीं हो सकता है। वह यहां हो सकता है या वहां हो सकता है। क्योंकि मन को विपरीत की जरूरत है; उसे किसी के विरोध में होना जरूरी है। अगर वह किसी के विरोध में नह हो तो वह तिरोहित हो जाता है। तब उसकी कोई प्रयोजन नहीं रहा जाता है।
इसे प्रयोग करो। किसी भी बात में तटस्थ हो जाओ, उदासीन हो जाओ, और तुम पाओगे कि अचानक मन को कोई काम न रहा। अगर तुम पक्ष में हो तो तुम सोच-विचार कर सकते हो। अगर तुम विपक्ष में हो तो भी तुम सोच विचार कर सकते हो। लेकिन अगर तुम न पक्ष में हो न विपक्ष में तो सोच विचार के लिए क्या रह जाता है।
बुद्ध कहते है कि उपेक्षा मज्झम निकाय का आधार है। उपेक्षा—अतियों की उपेक्षा करो। बस इतना ही करो के अतियों के प्रति उदासीन रहो, और संतुलन घटित हो जाएगा।
यह संतुलन तुम्हें अनुभव का एक नया आयाम देगा। जहां तुम ज्ञाता और ज्ञेय दोनों हो, लोक और परलोक, यह और वह शरीर और मन दोनों हो; जहां तुम दोनों हो और साथ ही साथ दोनों नहीं हो, दोनों के पार हो, एक त्रिकोण निर्मित हो गया।
तुमने देखा होगा कि अनेक रहस्यवादी गुह्म संप्रदायों ने त्रिकोण को अपना प्रतीक चुना है। त्रिकोण गुह्म विद्या का एक अति प्राचीन प्रतीक रहा, उसका यही कारण है। त्रिकोण में तीन कोण है। सामान्यत: तुम्हारे दो कोण ही है। तीसरा कोण गायब है। तीसरा कोण अभी नहीं है। वह अभी विकसित नहीं हुआ है। तीसरा कोण दोनों के पार है। दोनों कोण इस तीसरे कोण के अंग है। और फिर भी यह कोण उनके पार है और दोनों से ऊँचा है।
अगर तुम यह प्रयोग करो तो तुम्हें अपने भीतर त्रिकोण निर्मित करने में सहयोगी होगा। तीसरा कोण धीरे-धीरे ऊपर उठेगा। और जब वह अनुभव में आता है तो तुम दुःख में नहीं रह सकते। एक बार तुम साक्षी हुए कि दुःख नहीं रह सकता है। दुःख का अर्थ है किसी चीज के साथ तादात्म्य बना लेना।
लेकिन एक सूक्ष्म बात याद रखने जैसी है—तब तुम आनंद के साथ भी तादात्म्य नहीं जोड़ोगे। यही कारण है कि बुद्ध कहते है: ‘मैं इतना ही कहा सकता हूं,कि दुःख नहीं होगा। समाधि में दुःख नहीं होगा। मैं यह नहीं कहा सकता कि आनंद होगा। बुद्ध कहते है: मैं यह बात नहीं कह सकता; मैं यही कह सकता हूं कि दुःख नहीं होगा।’
और बुद्ध ठीक कहते है। क्योंकि आनंद का अर्थ है कि किसी भी तरह का तादात्म्य नहीं रहा, आनंद के साथ भी तादात्म्य नहीं रहा। यह बहुत बारीक बात है। सूक्ष्म बात है। अगर तुम्हें ख्याल है कि मैं आनंदित हूं तो देर अबेर तुम फिर दुःखी होने की तैयारी कर रहे हो। तुम अब भी किसी मनोदशा से तादात्म्य कर रहे हो।
तुम सुखी अनुभव करते हो; अब तुम सुख के साथ तादात्म्य कर रहे हो। और जिस क्षण तुम्हारा सुख से तादात्म्य होता है उसी क्षण दुख शुरू हो जाता है। अब तुम सुख से चिपकोगे; अब तुम उसके विपरीत से, दुःख से भयभीत होगे और चाहोगे कि सुख सदा तुम्हारे साथ रहे। अब तुमने वे सब उपाय कर लिए जो दुःख के होने के लिए जरूरी है। और फिर दुःख आएगा। और जब तुम सुख से तादात्म्य करते हो तो तुम दुःख से भी तादात्म्य कर लोगे। तादात्म्य ही रोग है।
इस तीसरे बिंदु पर तुम किसी के साथ भी तादात्म्य नहीं करते हो। जो भी आता-जाता है, बस आता-जाता है। तुम मात्र साक्षी रहते हो। देखते हो—तटस्थ, उदासीन और तादात्म्य रहित। सुबह आती है, सूरज उगता है। और तुम उसे देखते हो, तुम उसके साक्षी रहते हो। तूम यह नहीं कहते कि मैं सुबह हूं। फिर जब दोपहर आती है तो तुम यह नहीं कहते कि मैं दोपहर हूं। और जब सूरज डूबता है, अँधेरा उतरता है और रात आती है, तब तुम यह नहीं कहते कि मैं अँधेरा हूं, कि मैं रात हू। तुम उनके साक्षी रहते हो। तुम कहते हो कि सुबह थी, फिर दोपहर हुई फिर श्याम हुई, अब रात है। और फिर सुबह होगी और यह चक्र चलता रहेगा। और मैं केवल द्रष्टा हूं। देखनेवाला हूं, मैं देखता रहता हूं।
और अगर यही बात तुम्हारी मनोदशा ओर के साथ लागू हो जाए—सुबह की मनोदशा, दोपहर की मनोदशा, श्याम की, रात की मनोदशा और उनके अपने वर्तुल है, वे घूमते रहते है। तो तुम साक्षी हो जाते हो। तुम कहते हो: अब सूख आया है—ठीक सुबह की भांति,और अब रात आयेगी—दूःख की रात। मेरे चारों और मन:स्थितियां बदलती रहेंगी और मैं स्वयं में केंद्रित, स्थिर बना रहूंगा। मैं किसी भी मन स्थिति में आसक्त नही होऊंगा। मैं किसी भी मन: स्थिति में चिपकूंगा नहीं, बाधूंगा नहीं। मैं किसी चीज की आशा नहीं करुंगा और न मैं निराशा ही अनुभव करूंगा। मैं केवल साक्षी रहूंगा। जो भी होगा मैं उसका देखूँगा। जब वह आएगा,मैं उसका आना देखूँगा; जब वह जाएगा मैं उसका जाना देखूँगा।
बुद्ध इसका बहुत प्रयोग करते है। वे बार-बार कहते है कि जब कोई विचार उठे तो उसे देखो। दूःख का विचार उठे, सूख का विचार उठे, उसे देखते रहो। जब वह शिखर पर आए तब उसे देखो, उसके साक्षी रहो। और जब वह उतरने लगे तब भी उसके द्रष्टा बने रहो। विचार अब पैदा हो रहा है। वह अब है, और अब वह विदा हो रहा है—सभी अवस्थाओं में तुम उसे देखते रहो। उसके साक्षी बने रहो।
यह तीसरा बिंदु तुम्हें साक्षी बना देता है। और साक्षी चैतन्य की परम संभावना है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-चार
प्रवचन-61